Saturday, October 29, 2011

सुख ....

वो रात-रात रोती है
उनकी खुली आँखे नहीं सोती है
वो कहती है
अब ये सपनो में नहीं खोती है
अम्मा के पेट के तीनो बलों की नरमी में
उंगलिया फेरते
मैं उनसे और चिपकती हूँ
सुनती हूँ अनकहा
देखती हूँ अनदेखा
कमरे,रसोई ,आँगन
बर्तन, जूना ,मंजना
नौकर - चाकर
घर -दुआर
रूपये,गहना -गुरिया
गाड़ी,ड्राईवर
देवर-देवरानियां
नाते-पनाते
भूख-प्यास
सब कुछ तो है
और बिल्कुल वैसे ही है पर
अम्मा पल-पल कहती है ....
पति नहीं मेरा सुख चला चला गया है....
वृथा है जीवन .....
अब काहे का सुख ....
मैं उनसे और चिपकती हूँ
पर वो नहीं चमकती है
....दो बरसो से
अम्मा बिल्कुल नहीं मिलती है
बस मिलता है दुःख ....
मुझे अम्मा के गले लगना है
और अब मैं पी जाना चाहती हूँ
उनके साथ के छूटे का दुःख .....
कहना चाहती हूँ
देखो मैंने तुम्हारे लिए
अपने पास बचा रखे है
कुछ थोड़े बहुत सुख ....
सिर्फ तुम्हारे अपने लिए ...
तुम्हारे अपने सुख ....







***हेमा***

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Sunday, October 9, 2011

घर.......

टूटे बिखरे मन के
कच्चे कूलों का
ब्याह रचाया
दो वस्त्रो का गठबंधन
सिन्दूरी रंगत
मांग भरी-
आह,स्याह छाया
माहुर लगे
बिछुआ सजे पाँव
सबके मन भाये
पर,धान को
परे धकेल
आगे बढ़ते
पावो तले
आदर्शो की
सावली पड़ती
रुपहली काया
कोई देख न पाया
औंस की बूंदो सी लड़ी
हवा और भीनी खुशबू
प्रतिबिम्ब छुआ
बाहों में लिया
पर मन को
कोई बंध कही
कहाँ लगाया,
सपनों की मरी काया
कपडे-लत्ते
गहने-गुरिया
ढेरो-ढेर सामान
इतना अर्जन
यहाँ से वहा तक
कमरों में गया सजाया
इस दीवार से उस दीवार तक
-जाते-
-एकटक-
-अपलक-
घूरते
सबकी दुलारी
पगली छोटी
तुझको-
घर क्यों नहीं दिख पाया!
*** हेमा ***

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Where is she........?

A life was lying there
on a frigid rectangle
I was sitting there
glancing silently
from each and every angle
not a lifeless body,
but spectrum of
a complete life cycle
passing by as a slide show
so many motions and emotions
moments and moments
churning through a time machine
rewinding the reels
again and again
heart filled
absent mindedly
peeping through
numb n heavy glides
nothing left to hide
I was sitting there
On a silent droplets ride
with a continuous twinkle
she is not gone
she is here
she is alive
with all her flavors
she is breathing
SHE is ME !!
28 May 2011 -hema

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Monday, October 3, 2011

यूँ तो सब कुछ पूर्ववत है ..

आजकल
मेरे ख्यालो में
रोज ही रोज चली आती है
जो दौड़ती रहती थी
यहाँ सड़को पर
किसी पागल मोटर साइकिल की तरह,
कोई भी उसे छेड़ कर
मरोड़ देता था उसका
गिड़-बिड़ भाषाई होर्न
बरसो से बिना धुले जट्ट
गर्द सने बालों
और चीकट कपड़ो के साथ
कोंची जाती थी दिन भर
देह और बावरे मन के
हर कोने पर,
राह गुजरते ऐरे-गैरे इंसान
दाग देते थे उस पर
अपनी निर्दयता के नीले चिमोटे
उसकी बिलबिलाहट में थी
तमाम मर्दानी गालियाँ,
चाय की दुकानों पर बैठे लोग
चाय के कपो और
धुओं के छल्लो के संग
उसकी चुस्की लेते थे और
पी जाते थे
खुलेआम
सार्वजनिक स्थल पर
एक सार्वजनिक स्त्री,
पटिया बाजी के शौक़ीन
रोज छीनते थे
उसके कंधो पर लदी
उसकी जिंदगी की गठरी
बिखेर डालते थे वे
उसके गिने चुने रिश्तों की जमा पूंजी
एक रोज मैंने सुना था
उसे कहते कि
गठरी में है उसके
माँ-बाप,पति और बच्चे
खुल कर बिखरने पर देखा था मैंने
कि वहाँ तो है
कूड़े के ढेर से बीने हुए लत्ते,
चीथड़े,एक टुकड़ा आईना,
गिनेचुने दांतों का आधा कंघा
अपना संसार दरकने पर वह
रोती ,अजीब सी आवाजे निकालती
लोगो को दौड़ाती
पत्थर फेंकती,
सरकारी पार्क की तरह
कोई भी कर सकता था
उस पर अवैध कब्ज़ा
बिलएवज एक रुपया ,
दो जलेबी ,एक समोसा
या फिर दिखा-दिखा कर
ललचाते दो कचौड़ी,
छोटे से शहर के
भद्र इलाके का
चलता -फिरता
सार्वजनिक शौचालय
बिना किसी पूर्व सूचना के
एक दिन अचानक
विलुप्त हो गया
यूँ तो सब कुछ
पूर्ववत है
पर उस 'स्त्री'
(पगली नहीं )
के बिना
अजीब सा खालीपन है ...........




***हेमा ***

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