Wednesday, November 16, 2011

मैं क्यों लिखती हूँ

" मैं क्यों लिखती हूँ ?" यह सवाल पिछले काफी समय से मुझे घेर कर बैठा है | इस सवाल की घेराबंदी और मेरे विचारों के साथ मैं बहुत पीछे चली गई | एक नए सवाल पर कि मैंने पहली बार कब लिखा था ....
समय यंत्र ने मुझे १९८४ के दंगो और हाहाकार के मध्य खड़ा कर दिया |
वह मेरे जीवन की पहली , आसमान से टपकी बेमौसमी छुट्टियाँ थी | होश संभालने के बाद का पहला कर्फ़्यू |
विद्यालय में खाने की छुट्टी के समय दौड़ा-भागी के बीच बड़ी दीदियो की हाय-हाय कान में पड़ी थी कि एक सरदार ने इंदिरा गांधी को मार डाला है | विद्यालय आनन-फानन बंद कर दिया गया | बहुत सारे बच्चो के घर के लोग उन्हें लेने आ गये थे | मेरे घर और विद्यालय की दीवाल एक थी | मैं एक मिनट में घर पर थी |देखते ही देखते सड़के सूनी हो गई | किसी भी आहट से विहीन | काली सड़के,खाली सड़के और अकेली हो गई |

मैं छावनी क्षेत्र के बेहद शांत और गहरे सन्नाटो में रहती थी | लगभग ४५०० वर्ग गज के बड़े से वकील साहब के बंगले में सारी आमद बंद हो गई थी | बड़ी मशक्कतों और मुसीबतों के बाद मिलने वाले कई तरह के अखबार और गाहे-बगाहे बजने वाली लैंड लाइन फोन की घंटी ही सूचना और संचार माध्यम थे | अखबार के आते ही उसके सारे पन्ने बँट जाते थे | क्रमवार एक दूसरे को पढ़ने को सरकाए जाते रहते थे |
पहली बार मेरी आँखों ने टायर डाल कर जिन्दा जलते आदमी की छपी हुई तस्वीर और खबर देखी थी| जलते हुए घरों, दुकानों , उठते हुए धुएँ के गुबारों , घिरे हुए गुरूद्वारों , सड़को पर छितरे गुम्मे-पत्थर की अजीब सी डरावनी सिहरनो वाली तस्वीरें | मरे हुए लोगो,गुमशुदा लोगो और जन-धन की क्षति के आंकड़े |
जिंदगी और इंसानियत के साथ-साथ हर चीज की तंगी थी |
चारो ओर डर और दहशत का दमघोंटू माहौल था | सड़को पर आदमी नहीं थे | थे तो बस पुलिस वाले, उनकी गाडियों के बजते सायरन , घोषणाएँ कर्फ़्यू के उठान और चढ़ान की|
बंगले के पास की नहरपट्टी पर स्थित पेठे की आढत में एक सरदार छिपा था | एक-आध बार घर से उसके लिए रोटी सब्जी गई थी | चोरी-छिपे एक शाम मैं उसे देख भी आई थी | बांस के टट्टर से घुप्प अँधेरे में खूब आँखे गडा कर देखा था मैंने | कोने में चूने के पानी के लिए बनी एक पक्की नांद में वह हाथ-पाँव,पेट गुडिया कर घुटनों में अपना पग्गड़ घुसाये बैठा था | मेरी छोटी सी आहट से इतना सिकुड़ा हुआ वह और बहुत सा सिकुड गया था |
थोड़ी शान्ति होने पर सुना था कि चुपचाप उसके मददगारों ने एक नाई बुलाया था | वह अपने केश कटा कर साफ़-सुथरा हो गया था | बिना किसी से कुछ कहे चला गया था |

यह भी सुना था कि नाई ने उसके द्वारा दी जा रही कोई कीमती चीज ली नहीं थी |

उन कर्फ़्यूजदा लंबी-भारी छुट्टियों के उतार का कोई दिन था वो| शाम के समय फूल बाग,कंपनी बाग का बहुत सारा हरापन और उतरते सूरज के रंगों की छावनी | ऐसा लग रहा था कि सारी हरियाली एक विकराल मुख में बदल गई थी और समूचे सूरज के निवाले दर निवाले अपने हलक में उतार रही थी | देखते-देखते कुबेरी बिरिया पूरा सूरज और सारे रंग निगल गई थी |

उन सारी घटनाओं और उस टट्टर से दिखे व्यक्ति ने एक छोटी खेलती-कूदती लड़की के अंदर जैसे बेचैनी का उबाल उठा दिया था |

वह उबाल गणित की कॉपी के पीछे के पन्ने में बह गया था कॉपी गुम गई पर कुछ पंक्तियां मुझे वैसे ही याद है ....


अपनी ही
परछाई से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
साँसों से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
आहट से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
देहरी पे डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपने ही
चौराहों पे जलते
आदम को देखा है तुमने ?
................
......................
......................


जब इन पंक्तियों को लिखा था तब यह पता नहीं था कि यह कविता हो सकती है | यह भी नहीं पता था कि मैं आगे भी लिखती रहने वाली हूँ | यह चंद पंक्तियाँ एक छोटी सी लड़की की बहुत बड़े राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर में महसूसी हुई छटपटाहट थी | उस वक़्त में वह छपने ,कविता और कवि होने के बहुत मायने नहीं जानती थी |
वह घटनाएं और उनके जरिये अपने अंदर घटित अहसास जानती थी | यही उसका सरोकार था |

कभी कोई उसे पढ़ने वाले होंगे उसे यह भी नहीं पता था |

पढ़ने वाले नहीं थे इसलिए पढ़े जाने के लिए नहीं लिखा गया | छपने का ख्याल नहीं था इसलिए छापने वालो के अनुसार नहीं लिखना हुआ |

कुछ वर्षों बाद एक ऑन स्पॉट कविता लिखो प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिलने पर जाना कि कविता पुरस्कार भी दिला देती है |

पर इस पुरस्कार ने उसके साथ कुछ अजीब किया था | खेलने-कूदने हँसने-बोलने वाली आम लड़कियों से हटा कर एक अलग संजीदा और साहित्यिक जीव की श्रेणी में रख दिया था |सब कुछ वैसा ही था | मैं वही थी | अपेक्षाए बदल गई थी |
कविता ने मुझे बड़ा जिम्मेदार और कुछ अलहदा कर दिया था |
सबकी नजरों ने मुझ पर अनजाने ही गहरे पैठने के सरोकार डाल दिये थे |
अपने आस-पास की हर चीज और घटना को एक अलग,अपने नजरिये से देखने-परखने और महसूसने के ...|
प्रत्येक घटित को अपने निजी अरण्य में ले जाने का .... |
मैंने खूब देखा और खंगाला खुद को, ठोक-पीट कर देखा डायरी और इधर उधर बिखरी लिखी-अनलिखी लिखतों के पड़ावो पर जा-जा कर पूछा - मैं कब लिखती हूँ और क्यों लिखती हूँ...............

मैं लिखती हूँ जब चीजों,घटनाओं और अनुभवों का पात्र इतना भर जाता है कि जीवन के लिपे-पुते कच्चे चूल्हे पर चढ़ी बटलोई का अदहन खदबदाने लग जाता है | उठती हुई भाप का दबाव ढकने को उठाने-गिराने लग जाता है तो अंदर भरे शब्दों को बहना ही पड़ता है |
कविता जैसे चूल्हे पर चढ़ीं बटलोई की बेचैन खदबदाहट है|

......................... जारी

Post Comment