Thursday, December 6, 2012

सिलसिला ...

मेरे भीतर
एक फरियादी सूरज
रोज एक
बहरे आसमान में चढ़ता है ,
गुहार  लगाता है ,
सर पीटता है और
बेआवाज दिशाओं के
गमछे से
अपने पसीने को पोंछता हुआ
मेरी विवशताओं के
पश्चिम में ढेर हो जाता है ...
क्या  करूँ ...
रोज का यही सिलसिला है ...


~~~हेमा~~~

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Wednesday, December 5, 2012

गुजर गया एक और दिन ...

धृतराष्ट्र देश की
अंधी महाभारतों में
सारे 'भीष्मपुत्रों' की
गर्दनों को रेतता हुआ
देखो आज फिर
गुजर गया
एक और दिन
हाथ मलता हुआ ...

शब्द-अशब्द
स्वीकृति-अस्वीकृति
सहमति-असहमति
उपस्थिति-अनुपस्थिति
अमर्ष-विमर्श के
स्वांगों की रामनामी ओढ़े
शकुनि राजनीति की
त्यौरी चढ़ी बिसातों पर
झल्लाते पासों का
एक और दाँव
खेलता हुआ ...
गुजर गया
एक और दिन
हाथ मलता हुआ ...

पेट के बल
औंधे मुँह लोटती
खोखले बादलों की
सूखी वर्षाओं के
भविष्यफलों का
लग्न-पत्रा बांचता हुआ ...
गुजर गया
एक और दिन
हाथ मलता हुआ ...


~~~हेमा~~~

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Sunday, November 25, 2012

मुझे कहना है ...

मैंने छुटपन में पढ़ा था
और माना भी था कि ...

"भारत यानी इण्डिया एक कृषि प्रधान देश है ...
इसके निवासी
यहाँ की धरती मे
बोए गये बीजो से
उत्पन्न होने वाले
भांति-भाँति के स्वादों में
बहते और जीते है ..."

अब मैं जानती हूँ
और पहचानती हूँ कि ...

"भारत यानी इण्डिया एक भाव प्रधान देश है ...
यहाँ की सत्ताएँ
भाँति-भाँति की भावनाओं पर खेती करती है ...
और यह उमड़ता हुआ देश
भावनाओं की फसलों की लहरों में बहता है ...
कोई भी आता है या जाता है ...
मरता है जीता है ...
कहता  है सुनता है ...
जोड़ता है तोड़ता है ...
और यह उसकी लहरों में उठता और गिरता है ...
डूबता और तिरता है ...
जीता और मरता है ...
मारता और काटता है ...

सोता और रोता है ...
प्रलोभनों  के सर्कस में ,
भावनाओं की मौतों के कुँए से
खींचा हुआ पानी
हमारी अपनी ही माटी मे
हमारे ही सपनों की कब्रों पर
हमें एक गहरी नींद में खींचता है ...
और पलकों को जबरन मूंदता है ...

मुझे कहना है  ...
कि जागो ...

यह जागने का वक़्त है ...
एक बार फिर से
आज़ाद तरानों को गाने का वक़्त है ...
यह प्रभात फेरियों का वक़्त है ...



~~~हेमा~~~

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Thursday, November 22, 2012

बिटिया का जाना ...

ड्राइंगरूम के सोफे के नीचे से झांकती 
एक चटक बैगनी स्लीपर 
फ्रिज के डोर मे ढनकती चौथाई बची स्प्राइट ...
मुड़ी-तुड़ी पन्नी से अपने दांत झलकाती अधखाई चाकलेट ...
जिस-तिस कोने से झांकती 
उसकी बनाई हुई सपनीली,
 पनीले रंगों वाली कचबतिया सी चित्र लेखाएँ ...
डिब्बे में बचा थोडा सा अनमना कोर्नफ्लेक्स ...
दूध वाले के नपने के नीचे
घटा हुआ दूध का अनुपात ...
सुबह से अनछुआ
अपने गैर कसे टेढ़े मुँहवाला जैम ...
लटके हुए फीके चेहरे वाला टोस्टर ...
फ्रीजर में खाली पड़ी आइस ट्रे ...
पीछे छूटी एक अदद स्कर्ट ...
एक बिना पेन का ढक्कन ...
सब के सब मिल कर
मेरी  उदासियों को बेतरह मुँह चिढ़ा रहे है ...
बहुत  कोशिशों के बाद भी रहती हूँ नाकाम ...
कोई भी चीज़ उसकी खिलखिलाहट की
अनुपस्थिति को भर नहीं पाती  है ...
सोनचिरैया फिर से उड़ गई है ना ...
बस ऐसे ही मेरी
सोनचिरैया आती है जाती है और
अपने दो-चार पँख छोड़ कर
फिर से उड़ जाती है ...


~~~हेमा~~~

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Sunday, November 18, 2012

यूँ ही बस ऐसे ही ...२


समय की
किसी चोर तह में,
दबा कर रखा हुआ
कोई पुराना प्रेम
दबे पाँव
उतर आई
किसी शाम
ऐसे मिलता है
जैसे किसी
कविता की
किताब के
किसी ख़ास पन्ने पर
डाला हुआ
तीन कोनों का
एक छोटा सा
मोड़ - त्रिकोण ...

किसी भी दिशा में
अलट-पलट
हो जाने पर भी
समय की
जाने कितनी ही
सुरंगों से
गुजर जाने पर भी
बना रहता है
वैसा ही - त्रिभुजाकार
और अपने बिन्दुओं पर
उतना ही तीखा और
धारदार ... !!!

~~हेमा~~

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Wednesday, October 31, 2012

बेशीर्षक- ३

मैंने सुना है
स्वर्ग होता है,
होता है
जीवन के बाद
मृत्यु के पार
होता है
और बहुत खूब होता है ...

वहाँ ‘सब कुछ’ होता है
वह सब कुछ
जो धरती का नरक भोगते
बसता है तुम्हारी कल्पनाओं में
जिसके सपने के पंखों पर
उड़-उड़ कर
रौरव नरकों के
जमीनी पल काटे जाते है ...

सुना है
वहाँ सर्व-इच्छा पूर्ति के
कल्पवृक्ष हुआ करते है
कामधेनु सरीखी
स्वादों की गाय होती है ...

समय के अणु जैसे थिर जाते हैं
नदी के तल पर टिक गई
किसी शिला की तरह
चिर युवा होते हो तुम ...

वहाँ बोटोक्स की सुइयाँ और
वियाग्रा की बूंदे नही मिलती
क्योंकि झुर्रियों और जरावस्था को
स्वर्ग का पता नहीं बताया गया है ...

वहाँ सोलह श्रृंगार रची
मेनका और रम्भा में बसी
सहस्त्रो, अक्षुण्ण यौवन वाली अप्सराएं हैं
सुर है सुरा है
नाद है गन्धर्व-नाद है
ऐश्वर्य है उत्सव है
उत्साह है अह्लाद है ...

राजपुरुषों से जीवन का
राजसिंहासनों पर बैठा
स्वर्ग में
सब सामान है ...

विस्मित हूँ मैं
मृत्यु के बाद भी
जीवन के पार भी
परलोक की रचना करने वाले
मक्कारों की व्यूह रचना पर ...

स्वर्ग में अप्सराएं बसती है
पर स्त्रियाँ नही मिलती ...

है किसी को पता ...
कि ‘उनके’ हिस्से का
वैभव, अह्लाद और स्वर्ग कहाँ है ...

क्यों नही है स्वर्ग में
अप्सराओं के पुरुषांतरण ...

कल्पनाओं में भी नहीं है ...

क्यों नहीं हैं
स्त्रियों के हिस्से के
आमोद की रचनाएं ...

सोचने पर
ढूँढें से भी मुझे
गले मिलने नहीं आते
उनके उत्सव ...

विस्मित हूँ और
क्रोधित भी
कि सृष्टि के
उत्सों की भाषा में
क्यों नहीं रचे गये
स्त्रियों के
निजी सुख ...



~हेमा~


'कथादेश' में जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित ...

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Wednesday, October 3, 2012

बेशीर्षक - २





चलने को
बना दी गई
गाढ़ी-पक्की
सीधी-सरल लकीरों की
पूर्व नियत फकीरी में
गाड़ा हुआ
खूँटा तुड़ा कर
छूट भागी स्त्रियाँ
हर ऐरे-गैरे की
ऊहा के
उत्खनन की
खटमिट्ठी झरबेरी हो जाती हैं ...

पूरी निष्ठा से
अपना फर्ज निभाते हुए
दौड़ पड़ते है
सारे खेतिहर ...

अपने-अपने
फरुआ,गैती,कुदाल,हल उठा कर
आखिर मेहनतकशी जो ठहरी ...

खूंदना-मूँदना है
उसका आगत-विगत
सोना-जागना, उठना-बैठना
साँस-उसाँस, उबासी
यार-दयार ... सब कुछ ...

और बीजना है
भूमिपतियों को
उस पर,
चटखारों की लिखावट का
अपना-अपना
दो कौड़ी का सिंदूर ...

चारों दिशाओं से उठती
असंख्य तर्जनियाँ
अपने काँधो पर पड़ा यज्ञोपवीत
अपने कानो मे
खोंस लेती है ...

लकीरों से हट कर
चलने वाली
स्त्रियों की
फ़िजा बनती है
बनाई जाती है
फ़िजाओं में घोली गई स्त्रियाँ,
स्त्रियाँ कहाँ रह जाती है ...

चौक पर रहने वाली
नगरवधुओं में
तब्दील कर दी जाती है ... 


~
हेमा~



( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )


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Saturday, September 22, 2012

उम्मीद ... एक कमीज़ के बहाने से ...

सत्ता ,बाजार और पूँजी की
इस फर्राटा दौड़ में
जाने कितनी ही बार
उतरी और उतारी गयी
विरोध की , बेरोजगार
उतरे मुँह वाली
झक्क सफ़ेद कमीज़ें

और उन पर
टाँके गए
काले धागों से
दुःख और बेबसी के
मनमाने अँधे बटन ...

उघाड़े हुए सीनों और
बेची गई छातियों पर
उदारीकृत नीतियों के अधीन
मुक्त हाथों
छापे गये
निरीहताओं के खुले जख्म, और
उनमें भर दिये गए
जोड़-तोड़ और रियायतों की
मक्कार सियासत के,
बेपेंदे-निकम्मे घटक ...

फिर भी कहो तुम्हें कहना  ही होगा ...
कि जो ज़ख्म भरते नही
दिन और रात
गूँगे नासूरों की तरह
सिर्फ टीसते हुए भी ,
फटी बिवाइयों वाली
तपती हुई धरती के माथे पर
रख कर अपना हाथ
नाप ही लेते है
उसका अमियादी बुखार ...

और झोलाछाप तालिबानी सत्ताओं की
अवैध और शून्य
दिखावटी संरक्षण परेडों के नीचे भी
पनप ही जाती है ...

नयी क्रांतियों के अँगूठों की
चमकती स्याही की ज़बान ...


~~हेमा~

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Wednesday, September 19, 2012

पाप


कुछ विलंबित ही सही परंतु मेरे आस-पास अपनी चौकस उपस्थिति के साथ मौजूद और अपना द्रोण ज्ञान बिन मांगे ही बाँटते कलजुगी नवगुरुओं की दिव्यदृष्टियों को साष्टांग प्रणाम के साथ समर्पित ...



उडती चिडिया पर
पत्थर मारना
निशाना साधना
पाप है ...

क्योंकि, उड़ना ...
उसकी साधना है
और ,
जमीन पर उतरना
दाना खोजना
उसका लक्ष्य है
क्षत-विक्षत होना
खंडित होना
जमीन पर गिर जाना
मृत्यु है
उसकी साधना की ...
लक्ष्य की ...

इसलिए बंद कर दो
उड़ानों के
लक्ष्य को बेधना
एकलव्य के
अँगूठे को
बार-बार माँगना
बस अब बहुत हुआ ...

अब आज और अभी
बंद कर दो ...

नृशंसताओं की
पूर्व आरक्षित
द्रोण परम्परा में
दायें हाथ के
प्रतिबद्ध ,
निर्दोष अँगूठों की
नींव भरना ... !!!

~हेमा~

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Sunday, August 12, 2012

बेशीर्षक ...

सप्त ऋषियों की
बैलगाडी के नीचे
अनामिका  में पहनाई हुई
एक अँगूठी भर
या फिर ललाट पर
खिंचित भाग्य रेखा भर
और बस तय हो जाते है
जागीरदार और जागीरो के
विपरीत ध्रुव ...

जागीरें रख दी जाती है
संभाल कर सहेज कर
खजानों की अकूत ढेरी में
सात पहरों की
सात परतों  में ...

फिर तैरते हैं जागीरदार  सात समंदर
भींचते  हैं मुट्ठी में आसमां ...

प्रेम का मायावी यायावर
नापता है
वीनस की चौखट तक
ब्रम्हाण्ड की सारी गलियाँ  ...

पीछे छूटे भिड़े दरवाजो की
जागी आँखों के 
सिरहाने से पैताने तक
सुसज्जित वचन मंडपो में
रीते  प्राण प्रतिष्ठित रहते है ...

नापो दुनियाँ के सारे छोर
और चखो समंदरों के किनारे
धूप तापती
नमक की सारी कनियाँ ...

और लौट आओ वापस
जूठी जबानों के साथ ...

खजाने के द्वारों पर
सात पहरों की
सजग पोथियों पर बैठे
हथियारबंद चौकस पंडे
तुम्हारी तिर्यक दुशासनी चाल पर
सर झुकाते है
और खोल डालते है सारे द्वार ...

तुम्हे करना ही क्या है
बस हाथ भर बढ़ाना है
और खजाने के
गूंगे कलेजे में उतार देना है
अपना  सर्पदंश ...

दमकती  है तुम्हारी कलाई
नमकीन स्वेद कणों से ...
चमकती है बुझी अनामिका
बेनाम मृत अँगूठी से ...





                 ~हेमा~


( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )

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Wednesday, August 1, 2012

बेचारा ज्ञान ... और बेचारी जिनगी ...

बड़े 'बी' की लम्बाई ज्ञान की पहुँच और धज से कहीं बहुत-बहुत ही ज्यादा है ...

ज्ञान किसी काम का नहीं है ...

जीवन के किसी भी क्षेत्र में वह आपको कुछ भी हासिल कराने लायक नहीं है ...

ज्ञान की योग्यता का पता तब चलता है जब आप 'गर्म कुर्सी'
पर बैठ कर चार विकल्पों वाला जुआ खेलते है ...

आपको अंग्रेज़ी नहीं ना आती है ...

हत भाग्य !!!

जिनगी बर्बाद है तुम्हारी ...

कुच्छो नहीं ना मिलने वाला है आपको इस जिनगी मे ...

सब कुछ आपकी आँखों के सामने से , आपकी नाक के नीचे से लूट लिया जाता है ...

आप कुछ नहीं ना कर पाते है ...

फिर आपको मिलती है 'गर्म कुर्सी'...

और आप हासिल करते है अपनी जिनगी की सबसे बड़ी जुआ खेल जीत ...

क्या बात है देखिये भाई, हमारे महानायक इस परास्त चारों खाने चित्त ज्ञान और जिनगी को कहाँ से कहाँ और कैसे-कैसे रास्ते पर ले जा कर सँवार रहे है उसका सम्मान बढ़ा रहे है रात दिन प्रायोजित कर रहे है ...

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Sunday, July 29, 2012

दिउता ... चुप्पे मुँह अंधियारों से जगरातो तक ...

छुटपन से पायी सीख ,
संझा बाती में
बिजली के लट्टू को करो प्रणाम ,
बालसुलभ, उचक जिज्ञासा ने
पाया था जवाब,
"धूरी संझा के दिउता है
जेई रातन की आँखी है"
आँखी मीचे करा भरोसा
ज्यों-ज्यों बढ़े दिन और राती
त्यों-त्यों बढ़े दिउता और दिया-बाती
धीमे-धीमे खुली प्रपंच पाती
गुम  होशों ने जगने पर पाया, कि
बिजली के लट्टू को चमकाने का
बिल भरना पड़ता है
दिउता माखन चोर है
दिउता रिश्वतखोर है
उनकी झलक पाने को
लाइन हाज़िर होना पड़ता है
असंख्य दशाननों के अनगिन हाथों
मिलती है अनचाही भिक्षा
कोमल गालो से आर-पार
भालों का टैक्स चुकाना पड़ता है
उपवासी जीभो का चरणामृत
उन्हें चढाना पड़ता है
बेचैन मनौतियों की फूटी थरिया में 
दर्शन की प्यासी बेसुध सुधियों को
रीती आँखों की सहियों से
एक मूक रसीद कटानी पड़ती है... 






                  -२-

दिउता की खातिर रखनी होती है
चुप्पे  मुँह अंधियारों से जगरातों तक
घर-आँगन और अपनी साज सँवार,
माटी के मोल चुके सौदों में
जम कर बैठे 'बनियें' को
अपने मोल चुकाना पड़ता है,
नियमाचारों,पूजा-पाठों,निर्जल उपवासो के
ठौर-ठिकाने घर-घर कहना होता है
अर्द्ध-रंगों के झूठे वेशों
दिशाहीन स्वास्तिकों का
खेल रचाना पड़ता है
दिउता की क्षुधाओं के
अपूरित कलसे भरने को
एक  मुट्ठी बरकत का
आटा,चीनी और गुम पइसा रखना पड़ता है
इन सब से बच कर
खूंटे की चिड़िया को
भण्डार कक्ष के एक जँगहे पीपे मे
अपने गाँठ-गठूरे लटकी
खारी बारिश रखनी पड़ती है
और दिउता ....
उनका तो ऐरावत है
उन्मुक्त विचरता है
सोमरस सिंचित
तैतीस कोटि आकाशों में ...




~हेमा~

( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )

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Wednesday, June 27, 2012

अपने से ही अजनबी "फुलगेंदवा ..."

अस्पताल का यह संवाद रूपी दृश्य एक स्त्री जीवन की अनावधानता में उस पर
गुजरी कहानी उसी की जबानी कहता है ....



नाम बताओ ?

"फुलगेंदवा "

फुलगेंदवा ?

किसने रक्खा यह नाम ?

"हम्मै पता नाय,

पर कौन रखिये , अम्मै रक्खिन हुईये"

शादी को कितने साल हो गये ?

"हुई गई दुई-चार बरसे"

रजिस्टर पर कैटवॉक करती कलम की चाल कुछ परेशान हुई ,"दुई कि चार ?

"तीन लिखि लेव"

उम्र बताओ ?

"हुईये बीस-बाईस बरस "

इस बार लिखती कलम ने आँखे उठाई और वाक्य ने घुड़का- "ठीक से बताओ
बीस-इक्कीस या बाईस ...?"

फुलगेंदवा का जवाब रिरियाया ,"हम कैसे बतावें, अम्मा कबहूँ बताईनय नाई,
अउर हम्मैं उमर से कछु कामऔ नाय परौ"

खीझी हुई कलम ने घसीट मार उम्र दर्ज की

बीच की इक्कीस बरस .

महीना कब आया था ?

उसने साथ वाली स्त्री का मुँह ताका,"काय जिज्जी तुम्हे कछु याद है "

साथ वाली जिज्जी मुँह दबा के हँसी ," हमें कईसे याद हुईये, तुमाई तारीख तुमई बतावो"

कलम की घिसी और खूब मंझी हुई जबान से सवाल कूदता है,"होली से पहले कि बाद में ?"

एक-दो मिनट सोचा जाता है

और गहरे सूखे कुएँ की तली से खँगाल कर निकाला जवाब गिरता है," होली जली थी ताकै दुई रोज बाद "

तारीख दर्ज हो जाती है .

पति का नाम बताओ ?

अबकी फुलगेंदवा मुँह दबा कर हँसती है अपना सर ढँक लेती है

कलम डपटती है,"जल्दी बताओ ..."

"अरे वोई मोरपंख वाले मुरलीबजैया..."

कलम अटकल लगाती है ,"कृष्ण ..."

"नहीं ...
जाई को कछु बदिल देवो और जाई मे चंद्रमऔ जोड़ दिऔ"   

कैटवॉक के परास्त हाथों ने अपना पसीना पोंछा ,कलम ने रजिस्टर पर अपना सर धुना ठंडी साँसे छोड़ी और अटकलपच्चू नाम उचारा ,"किशनचंद" 

तेज घाम में झुरा गई फुलगेंदवा खिल उठी चटक-चमक , जामुनी रंगत में जैसे सफ़ेद बेले फूल उठे ," हाँ बस जेई तो है हमारे वो"

कलम ने परचा तैयार करा मार खाने की अभ्यस्त घंटी को थपड़ियाया और सधे हाथों ने परचा डॉक्टर की मेज पर ले जा कर एक अजनबी वजन के नीचे दबा दिया ...



                              ~हेमा~

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Tuesday, June 12, 2012

परिंदे भी लगाते है आवाज़ ...

कभी-कभी
अचानक ही
चुप के शिकंजो में फंसे
शांत बैठे
खामोश परिंदे
बेचैन हो उठते है
फडफडाने लगते है
उनके प्राण
पंखो की तड़प से
फूट पड़ते है अक्षर
और ,
नीले आसमान की हथेली
अचकचा कर
खोल बैठती है
अपनी आँख
जर्द सफेदी का समेकन भी
मसल डालता है
सम्मोहित आँखों का
मीलों लंबा
उनींदापन
और सब कुछ
जाग उठता है
ख्वाहिशो की
मरी कोख
फिर जी उठती है
दीवारों पर बिछा
धूप का अक्स
लपेट देता है
अपनी बाहों का
पुकारा हुआ गुनगुनापन
सिफ और सिर्फ
मेरे चारों ओर ,
पर सुनो सखी ,
ऐसा कभी-कभी ही होता है कि
खामोश परिंदे भी
बेचैन हो उठते है .....



                ~ हेमा ~

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Thursday, June 7, 2012

बिटिया का जाना ...

ड्राइंगरूम के सोफे के नीचे से झांकती 
एक चटक बैगनी स्लीपर 
फ्रिज के डोर मे ढनकती चौथाई बची स्प्राइट ...
मुड़ी-तुड़ी पन्नी से अपने दांत झलकाती अधखाई चाकलेट ...
जिस-तिस कोने से झांकती 
उसकी बनाई हुई सपनीली,
 पनीले रंगों वाली कचबतिया सी चित्र लेखाएँ ...
डिब्बे में बचा थोडा सा अनमना कोर्नफ्लेक्स ...
दूध वाले के नपने के नीचे
घटा हुआ दूध का अनुपात ...
सुबह से अनछुआ
अपने गैर कसे टेढ़े मुँहवाला जैम ...
लटके हुए फीके चेहरे वाला टोस्टर ...
फ्रीजर में खाली पड़ी आइस ट्रे ...
पीछे छूटी एक अदद स्कर्ट ...
एक बिना पेन का ढक्कन ...
सब के सब मिल कर
मेरी  उदासियों को बेतरह मुँह चिढ़ा रहे है ...
बहुत  कोशिशों के बाद भी रहती हूँ नाकाम ...
कोई भी चीज़ उसकी खिलखिलाहट की
अनुपस्थिति को भर नहीं पाती  है ...
सोनचिरैया फिर से उड़ गई है ना ...
बस ऐसे ही मेरी
सोनचिरैया आती है जाती है और
अपने दो-चार पँख छोड़ कर
फिर से उड़ जाती है ...


~~~हेमा~~~
 
                                                                                                                                                                                                                                                             

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Tuesday, June 5, 2012

एक हस्ताक्षर ... गूँगी दुनियाँ के उस छोर पर ...



सत्ताईस नवम्बर उन्नीस सौ तिहत्तर की एक बेहद अँधेरी रात में मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में कार्यरत नर्स 'अरुणा रामचन्द्र शानबॉग' पर उसी अस्पताल के एक अस्थाई सफाई कर्मचारी 'सोहन लाल भरथिया वाल्मीकि' द्वारा हमला किया गया ....उसके मुँह में अस्पताल की प्रयोगशाला के कुत्तों को बाँधने वाली चेन ठूँस दी . अरुणा शानबॉग के साथ अप्राकृतिक दुराचार  किया गया . पिछले सैतीस वर्षों से अरुणा रामचंद्र शानबॉग उसी अस्पताल के एक बिस्तर की स्थाई निवासी है ...अस्पताल के ही स्टाफ की पारिवारिक देखभाल में, लगभग मृतप्राय 'Permanent Vegitative State' में है ...
उसका अक्षम्य अपराध एक बेईमान एवं चोर पुरुष पर आवाज और उंगली उठाना भर था ....

यह दो लिंक हैं जो उनके बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराते  ... कृपया इन्हें देखने के बाद ही कवितायें पढ़े ... ये अनुरोध उस एक जीवन के पूरे त्रास में  उगी हुई जिजीविषा को देख पाने के लिए भी  है...


 



-१ -

चोरियों और बेईमान
नीयतों पर उठती तुम्हारी
प्रतिबद्ध, धर्मनिष्ठ, कर्मनिष्ठ
अबोध पागल तर्जनी की
आँख और अंधी किस्मत की
लकीरों को , पता ही नहीं था
किसी के काले अँधेरे सीने में
उगते फुफकारते विषदन्तों का ....
-२ -

एक स्त्री का
अपनी संवेगों से भरी
सधी रज्जु पर
सीधे तन कर खड़े होना
दंडनीय है
सधापन जाग्रत कर देता है
‘उनके’ तहखानों में
क्रूर 'गोधराई' अट्टहास ,
नहीं जानती थी ना तुम ...
उनकी प्रचंड इच्छाओं की
तनी हुई नुकीली बर्छियां
तुम्हे मारना कहाँ चाहती हैं  ...
वो करती हैं  छिद्रान्वेषण
कील आसनों पर
तुम्हारी देह और आत्मा का ...
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि देवालयों में बहुत ऊँचे टाँगे गये
छिद्रित मटकों से
बूँद दर बूँद टपकता है
तुम्हारा ही तो रक्तप्राण ...
जो करता है -
और-और संपुष्ट और संवर्द्धित
उनके अनंत पुरा स्थापित
लिंग बोध के दावानल को
जाने कितनी ही योनियों तक ...
होता है रुद्राभिषेकित
हर कोने की सड़ांध पर
कुकुरमुत्तों से उग आने को
अपनी बजबजाती गलीज
रक्तबीजी पीकों से
तुम्हे सान ही डालने को ...
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि कीचको की आधारशिलाओं पर
सर उठा इतराते है
मृत पथराये
स्वर्णिम कँवल शिखर
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि ब्रह्न्नलाएं तो कभी की
मर चुकी है ...
-३-

काल के
उस खण्ड में
तुम्हारी आवाज की बुलंदी
एक अदद जिंदा फाँस थी
गड़ती-चुभती करक ...
उस पुरुष का अहम था 
जिसे लोहे की
जंगही नुकीली सुई से
कुरेद कर निकालना ...
बेहद जरूरी था उसके लिए कि
जीवन पृष्ठ की लहर पर
तनी हुई ग्रीवा
और उठे हुए शीर्ष की
सारी मुखरताओं में ठूंस दिया जाए
कुछ बेहद जड़ ...
बेहद जरूरी था उसके लिए
मुखरताओं के खमों का
दम निकालना ...
और उनकी दुमो का
पालतू कुत्तों की तरह
उसके आगे -पीछे रिरियाना
निहायतन जरूरी था
एक पुरुषत्व के नपुंसक
सिकंदरी घाव का
भरपूर सहलाया जाना ....
-४ -

चार दशकों  में बस
तीन ही बरस तो हैं  कम ...
सैतीस बरसों  में
कितने दिन काटे गये हैं
कोई भी गिन सकता है
वक़्त और अंतरालों  की
दुनियावी घड़ियाँ
पर गणितीय मानकों के गणनांको से परे ...
लंबी बेहद लंबी
रंगहीन खनकहीन
सूनी सफ़ेद वक्तों की हैं  ये
विधवा बिछावनें,
उस पर सैतीस वर्षों से पड़े
(
हाँ पड़े ही तो )
उस एक निष्चेट अचल चेहरे का
अखंड पाठ
बेहद गहरा है ...
मेरा सारा पढ़ा लिखा पन
दहशतों के निवाले निगलता है
शून्यताओं के बीहड़ अनंत में
खारे समंदर की लहरें भी
सहम कर ,
हाँ सहम कर ही तो
सूखे कोने थाम कर बैठी है
उसकी आँखों के
पूर्वांचल में
सूरज को
उगने की मनाही है
उसकी पलकों की
जाग्रत नग्नता में
जबरन उतारे गये हैं
रातों के स्थाई
उतार और चढ़ाव
सवाल और जवाब भी
कोई मुद्दे है क्या -
गूँगी दुनियाँ के उस छोर पर
जहाँ हलक में
ठूँस दी गई है जंजीरें
निर्ममता की सारी सीमाओं से परे ,तोड़ कर
खींच ली गई हों
शब्दचापों  की देह की
सारी साँसे ...
एक ही वार में
तहस-नहस कर
काट डाली गई हों
संवेगो की सारी जड़ें ...
जमा कर दफना दी गई हों
जैसे दक्षिणी ध्रुव के
किसी बेपनाह ठन्डे
गहरे अँधेरे टुकड़े में ...
-५-

किसी कृष्ण विवर में
सोख ली गई है
एक हरे-भरे खिले जीवन की
प्राण वायु की उदात्त ऊर्जाएँ
अंध चक्र आँधियों के भँवर ने
लील ही तो डाली है
चाँद तोडती
अपनी बाहों में तारे टाँकती
आसमान ताकती
युवा स्वप्नों की
बल खाती अमर बेल ,
एक सपाट सूने भाव शून्य
आयत पर रखी
अलटायी-पलटाई
उठाई-धरी जाती है
शय्या घावों और
देखभाल के नाम पर ...
कहते है कि
वो बस अब 'सब्जी' भर है
"
सब्जी भर है" ...
वक़्त की बही के शमशान में
सत्ताओं के निर्लज्ज
अघोर अभिलेखागार में
पंजीकृत है वो
अपने एक स्त्री भर होने के
अपराध के नाम ...
-६-

क्यों जीवित है वह ...
क्या महसूस करती है वह ...
क्या है ...
जो थाम कर रखता है
सैतीस लंबे वर्षों से
उसकी साँसों की
एक-एक
कड़ी दर कड़ी ........
तो सुनो ....
सूनेपन के हाशिए पर पड़ी
अंधी और भूखी-प्यासी
जिंदगियां भी
दर्ज कराती हैं
एक ना एक दिन
अपने जमे हुए अस्तित्व के समूचे प्राण
हाँ एक दिन किसी रोज
चुपचाप उठ कर हाशिओं से
चली आती है
वक्तव्य पृष्ठों के
बिल्कुल बीचोंबीच में
और तुम्हारे बर्बर नपुंसक साम्राज्य में
जबरन अपनी उपस्थिति की जिद्द का
शाश्वत पट्टा लिखा डालती है .......




~हेमा~

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