Wednesday, June 27, 2012

अपने से ही अजनबी "फुलगेंदवा ..."

अस्पताल का यह संवाद रूपी दृश्य एक स्त्री जीवन की अनावधानता में उस पर
गुजरी कहानी उसी की जबानी कहता है ....



नाम बताओ ?

"फुलगेंदवा "

फुलगेंदवा ?

किसने रक्खा यह नाम ?

"हम्मै पता नाय,

पर कौन रखिये , अम्मै रक्खिन हुईये"

शादी को कितने साल हो गये ?

"हुई गई दुई-चार बरसे"

रजिस्टर पर कैटवॉक करती कलम की चाल कुछ परेशान हुई ,"दुई कि चार ?

"तीन लिखि लेव"

उम्र बताओ ?

"हुईये बीस-बाईस बरस "

इस बार लिखती कलम ने आँखे उठाई और वाक्य ने घुड़का- "ठीक से बताओ
बीस-इक्कीस या बाईस ...?"

फुलगेंदवा का जवाब रिरियाया ,"हम कैसे बतावें, अम्मा कबहूँ बताईनय नाई,
अउर हम्मैं उमर से कछु कामऔ नाय परौ"

खीझी हुई कलम ने घसीट मार उम्र दर्ज की

बीच की इक्कीस बरस .

महीना कब आया था ?

उसने साथ वाली स्त्री का मुँह ताका,"काय जिज्जी तुम्हे कछु याद है "

साथ वाली जिज्जी मुँह दबा के हँसी ," हमें कईसे याद हुईये, तुमाई तारीख तुमई बतावो"

कलम की घिसी और खूब मंझी हुई जबान से सवाल कूदता है,"होली से पहले कि बाद में ?"

एक-दो मिनट सोचा जाता है

और गहरे सूखे कुएँ की तली से खँगाल कर निकाला जवाब गिरता है," होली जली थी ताकै दुई रोज बाद "

तारीख दर्ज हो जाती है .

पति का नाम बताओ ?

अबकी फुलगेंदवा मुँह दबा कर हँसती है अपना सर ढँक लेती है

कलम डपटती है,"जल्दी बताओ ..."

"अरे वोई मोरपंख वाले मुरलीबजैया..."

कलम अटकल लगाती है ,"कृष्ण ..."

"नहीं ...
जाई को कछु बदिल देवो और जाई मे चंद्रमऔ जोड़ दिऔ"   

कैटवॉक के परास्त हाथों ने अपना पसीना पोंछा ,कलम ने रजिस्टर पर अपना सर धुना ठंडी साँसे छोड़ी और अटकलपच्चू नाम उचारा ,"किशनचंद" 

तेज घाम में झुरा गई फुलगेंदवा खिल उठी चटक-चमक , जामुनी रंगत में जैसे सफ़ेद बेले फूल उठे ," हाँ बस जेई तो है हमारे वो"

कलम ने परचा तैयार करा मार खाने की अभ्यस्त घंटी को थपड़ियाया और सधे हाथों ने परचा डॉक्टर की मेज पर ले जा कर एक अजनबी वजन के नीचे दबा दिया ...



                              ~हेमा~

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Tuesday, June 12, 2012

परिंदे भी लगाते है आवाज़ ...

कभी-कभी
अचानक ही
चुप के शिकंजो में फंसे
शांत बैठे
खामोश परिंदे
बेचैन हो उठते है
फडफडाने लगते है
उनके प्राण
पंखो की तड़प से
फूट पड़ते है अक्षर
और ,
नीले आसमान की हथेली
अचकचा कर
खोल बैठती है
अपनी आँख
जर्द सफेदी का समेकन भी
मसल डालता है
सम्मोहित आँखों का
मीलों लंबा
उनींदापन
और सब कुछ
जाग उठता है
ख्वाहिशो की
मरी कोख
फिर जी उठती है
दीवारों पर बिछा
धूप का अक्स
लपेट देता है
अपनी बाहों का
पुकारा हुआ गुनगुनापन
सिफ और सिर्फ
मेरे चारों ओर ,
पर सुनो सखी ,
ऐसा कभी-कभी ही होता है कि
खामोश परिंदे भी
बेचैन हो उठते है .....



                ~ हेमा ~

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Thursday, June 7, 2012

बिटिया का जाना ...

ड्राइंगरूम के सोफे के नीचे से झांकती 
एक चटक बैगनी स्लीपर 
फ्रिज के डोर मे ढनकती चौथाई बची स्प्राइट ...
मुड़ी-तुड़ी पन्नी से अपने दांत झलकाती अधखाई चाकलेट ...
जिस-तिस कोने से झांकती 
उसकी बनाई हुई सपनीली,
 पनीले रंगों वाली कचबतिया सी चित्र लेखाएँ ...
डिब्बे में बचा थोडा सा अनमना कोर्नफ्लेक्स ...
दूध वाले के नपने के नीचे
घटा हुआ दूध का अनुपात ...
सुबह से अनछुआ
अपने गैर कसे टेढ़े मुँहवाला जैम ...
लटके हुए फीके चेहरे वाला टोस्टर ...
फ्रीजर में खाली पड़ी आइस ट्रे ...
पीछे छूटी एक अदद स्कर्ट ...
एक बिना पेन का ढक्कन ...
सब के सब मिल कर
मेरी  उदासियों को बेतरह मुँह चिढ़ा रहे है ...
बहुत  कोशिशों के बाद भी रहती हूँ नाकाम ...
कोई भी चीज़ उसकी खिलखिलाहट की
अनुपस्थिति को भर नहीं पाती  है ...
सोनचिरैया फिर से उड़ गई है ना ...
बस ऐसे ही मेरी
सोनचिरैया आती है जाती है और
अपने दो-चार पँख छोड़ कर
फिर से उड़ जाती है ...


~~~हेमा~~~
 
                                                                                                                                                                                                                                                             

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Tuesday, June 5, 2012

एक हस्ताक्षर ... गूँगी दुनियाँ के उस छोर पर ...



सत्ताईस नवम्बर उन्नीस सौ तिहत्तर की एक बेहद अँधेरी रात में मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में कार्यरत नर्स 'अरुणा रामचन्द्र शानबॉग' पर उसी अस्पताल के एक अस्थाई सफाई कर्मचारी 'सोहन लाल भरथिया वाल्मीकि' द्वारा हमला किया गया ....उसके मुँह में अस्पताल की प्रयोगशाला के कुत्तों को बाँधने वाली चेन ठूँस दी . अरुणा शानबॉग के साथ अप्राकृतिक दुराचार  किया गया . पिछले सैतीस वर्षों से अरुणा रामचंद्र शानबॉग उसी अस्पताल के एक बिस्तर की स्थाई निवासी है ...अस्पताल के ही स्टाफ की पारिवारिक देखभाल में, लगभग मृतप्राय 'Permanent Vegitative State' में है ...
उसका अक्षम्य अपराध एक बेईमान एवं चोर पुरुष पर आवाज और उंगली उठाना भर था ....

यह दो लिंक हैं जो उनके बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध कराते  ... कृपया इन्हें देखने के बाद ही कवितायें पढ़े ... ये अनुरोध उस एक जीवन के पूरे त्रास में  उगी हुई जिजीविषा को देख पाने के लिए भी  है...


 



-१ -

चोरियों और बेईमान
नीयतों पर उठती तुम्हारी
प्रतिबद्ध, धर्मनिष्ठ, कर्मनिष्ठ
अबोध पागल तर्जनी की
आँख और अंधी किस्मत की
लकीरों को , पता ही नहीं था
किसी के काले अँधेरे सीने में
उगते फुफकारते विषदन्तों का ....
-२ -

एक स्त्री का
अपनी संवेगों से भरी
सधी रज्जु पर
सीधे तन कर खड़े होना
दंडनीय है
सधापन जाग्रत कर देता है
‘उनके’ तहखानों में
क्रूर 'गोधराई' अट्टहास ,
नहीं जानती थी ना तुम ...
उनकी प्रचंड इच्छाओं की
तनी हुई नुकीली बर्छियां
तुम्हे मारना कहाँ चाहती हैं  ...
वो करती हैं  छिद्रान्वेषण
कील आसनों पर
तुम्हारी देह और आत्मा का ...
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि देवालयों में बहुत ऊँचे टाँगे गये
छिद्रित मटकों से
बूँद दर बूँद टपकता है
तुम्हारा ही तो रक्तप्राण ...
जो करता है -
और-और संपुष्ट और संवर्द्धित
उनके अनंत पुरा स्थापित
लिंग बोध के दावानल को
जाने कितनी ही योनियों तक ...
होता है रुद्राभिषेकित
हर कोने की सड़ांध पर
कुकुरमुत्तों से उग आने को
अपनी बजबजाती गलीज
रक्तबीजी पीकों से
तुम्हे सान ही डालने को ...
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि कीचको की आधारशिलाओं पर
सर उठा इतराते है
मृत पथराये
स्वर्णिम कँवल शिखर
नहीं ही जानती थी तुम ...
कि ब्रह्न्नलाएं तो कभी की
मर चुकी है ...
-३-

काल के
उस खण्ड में
तुम्हारी आवाज की बुलंदी
एक अदद जिंदा फाँस थी
गड़ती-चुभती करक ...
उस पुरुष का अहम था 
जिसे लोहे की
जंगही नुकीली सुई से
कुरेद कर निकालना ...
बेहद जरूरी था उसके लिए कि
जीवन पृष्ठ की लहर पर
तनी हुई ग्रीवा
और उठे हुए शीर्ष की
सारी मुखरताओं में ठूंस दिया जाए
कुछ बेहद जड़ ...
बेहद जरूरी था उसके लिए
मुखरताओं के खमों का
दम निकालना ...
और उनकी दुमो का
पालतू कुत्तों की तरह
उसके आगे -पीछे रिरियाना
निहायतन जरूरी था
एक पुरुषत्व के नपुंसक
सिकंदरी घाव का
भरपूर सहलाया जाना ....
-४ -

चार दशकों  में बस
तीन ही बरस तो हैं  कम ...
सैतीस बरसों  में
कितने दिन काटे गये हैं
कोई भी गिन सकता है
वक़्त और अंतरालों  की
दुनियावी घड़ियाँ
पर गणितीय मानकों के गणनांको से परे ...
लंबी बेहद लंबी
रंगहीन खनकहीन
सूनी सफ़ेद वक्तों की हैं  ये
विधवा बिछावनें,
उस पर सैतीस वर्षों से पड़े
(
हाँ पड़े ही तो )
उस एक निष्चेट अचल चेहरे का
अखंड पाठ
बेहद गहरा है ...
मेरा सारा पढ़ा लिखा पन
दहशतों के निवाले निगलता है
शून्यताओं के बीहड़ अनंत में
खारे समंदर की लहरें भी
सहम कर ,
हाँ सहम कर ही तो
सूखे कोने थाम कर बैठी है
उसकी आँखों के
पूर्वांचल में
सूरज को
उगने की मनाही है
उसकी पलकों की
जाग्रत नग्नता में
जबरन उतारे गये हैं
रातों के स्थाई
उतार और चढ़ाव
सवाल और जवाब भी
कोई मुद्दे है क्या -
गूँगी दुनियाँ के उस छोर पर
जहाँ हलक में
ठूँस दी गई है जंजीरें
निर्ममता की सारी सीमाओं से परे ,तोड़ कर
खींच ली गई हों
शब्दचापों  की देह की
सारी साँसे ...
एक ही वार में
तहस-नहस कर
काट डाली गई हों
संवेगो की सारी जड़ें ...
जमा कर दफना दी गई हों
जैसे दक्षिणी ध्रुव के
किसी बेपनाह ठन्डे
गहरे अँधेरे टुकड़े में ...
-५-

किसी कृष्ण विवर में
सोख ली गई है
एक हरे-भरे खिले जीवन की
प्राण वायु की उदात्त ऊर्जाएँ
अंध चक्र आँधियों के भँवर ने
लील ही तो डाली है
चाँद तोडती
अपनी बाहों में तारे टाँकती
आसमान ताकती
युवा स्वप्नों की
बल खाती अमर बेल ,
एक सपाट सूने भाव शून्य
आयत पर रखी
अलटायी-पलटाई
उठाई-धरी जाती है
शय्या घावों और
देखभाल के नाम पर ...
कहते है कि
वो बस अब 'सब्जी' भर है
"
सब्जी भर है" ...
वक़्त की बही के शमशान में
सत्ताओं के निर्लज्ज
अघोर अभिलेखागार में
पंजीकृत है वो
अपने एक स्त्री भर होने के
अपराध के नाम ...
-६-

क्यों जीवित है वह ...
क्या महसूस करती है वह ...
क्या है ...
जो थाम कर रखता है
सैतीस लंबे वर्षों से
उसकी साँसों की
एक-एक
कड़ी दर कड़ी ........
तो सुनो ....
सूनेपन के हाशिए पर पड़ी
अंधी और भूखी-प्यासी
जिंदगियां भी
दर्ज कराती हैं
एक ना एक दिन
अपने जमे हुए अस्तित्व के समूचे प्राण
हाँ एक दिन किसी रोज
चुपचाप उठ कर हाशिओं से
चली आती है
वक्तव्य पृष्ठों के
बिल्कुल बीचोंबीच में
और तुम्हारे बर्बर नपुंसक साम्राज्य में
जबरन अपनी उपस्थिति की जिद्द का
शाश्वत पट्टा लिखा डालती है .......




~हेमा~

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अम्मा ... मैं तुम हो जाती हूँ ...


मेरी प्यारी अम्मा -
तुम्हारा क्या-क्या याद करूँ ...
तुम्हारा प्यार-दुलार ...
डांट-फटकार और कभी मार ...
प्यार-दुलार और लाड़ पर
फूलों सी खिल जाती थी ...
डांट, फटकार और मार पर
घर के कोनों में और
पर्दों के पीछे छिप जाती थी ...
मुझे बनाने वाली ...
मुझे सजाने और
थपक कर गढ़ने वाली ...
मेरी प्यारी अम्मा ...
मेरे अस्तित्व में बसा है ...
तुम्हारे स्पर्शो का मीठा स्वाद ...
मेरी अम्मा ...
मेरी प्यारी अम्मा ...
तुम्हारी बिटिया हर आँसू में
हर मुस्कान में ...
सिर्फ और सिर्फ
तुम्हे ही याद करती है ...
तुम्हे याद करती है ...
और तुम्हारी याद में माँ
मैं माँ ही हो जाती हूँ ...
और फिर बस माँ ही रह जाती हूँ ...
सच बस इतना ही सच है कि -
अम्मा मैं तुम हो जाती हूँ ...

~हेमा~

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Monday, June 4, 2012

........ साँस

जाने कब से
सुनते आए थे ...
कि बिजलियाँ गिरा करती है
आसमानों से ...
कुछ रोज गुजरे है बस ...
आसमानों में हमेशा उड़ने की
आदते ही तो सुधारी है जरा ...
चार सीढियाँ ही तो
उचकते पंजो ने उतारी है जरा ...
उनके सिरों में आँखों ने
उनीदी पलकें खोली ही तो है जरा ...
देखो भी जाने कब यह बात हुई
कि बिजलियों ने
किसी बरस ...
किसी रोज ...
जमीन में बो दिये थे अपने बीजे ...
और अब बिजलियाँ
जमीन में कहीं बहुत गहरे से
मेरे तलुवों के नीचे से उगती है ...
तो ठीक-
तय रहा ...
मेरे कहने को ...
बिजलियाँ अब गिरा नहीं करती ...
मेरे तलुवों की
कोख तले उगा करती है ...

~हेमा~

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सपना ...

क्या तुम्हे पता है ,कि
तुम्हारे घर की
रसोई में ,
एक सपना
रोज चढ़ाता है
गैस पर अपना ही बर्तन
फिर खिडकी से
उचक कर तोड़ लाता है
थोडा सा नीला आसमान
एक टुकड़ा सूरज
एक चुटकी धूप
कुन्ने के पीपल की
हरी-पीली भरी पत्तियाँ
मुटठी भर उडती चिड़ियाँ
चौराहे की आमद-रफ्त
फिर सब के सब खौलते है
बर्तन के पानी में
और बस
बन कर उड़ जाते है 'भाप' ....
तुम्हारी  दुनियाँ के
अपने आसमान में ... !!



                                  ~ हेमा ~

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कसूर - हरी हो ... मनभरी हो ...

पीतल की मजबूत - खूब मजबूत 
खल्लर में डाल कर
कुटनी से कूटी जायेगी ...
खूबसूरत गठीली ...
छोटी इलायची...
नुकीले संवरे नाखूनों से
छील ही डाला जाएगा ...
उसका नन्हा चोला ...
कचरे का डिब्बा 
या खौलता पानी 
या सिलबट्टे की खुथरी बटन है 
उसके हरैले ताजे चोले का ठिकाना ...
हाथ में हाथ फँसाये...
गलबहियाँ डाले 
सारे बचुआ दाने ...
छिटका दिये जायेंगे ...
बरसायी जायेंगी 
बेमौसम की मारें ...
क्या फर्क है ...
अश्रु गैस के हों हठीले गोले ...
या हों बेशर्म उतरे हुए 
पानियों की मोटी पैनी धारें ...
कूट-कूट कर पीसी जायेगी ...
बारीक ,चिकनी खूब ही चिकनी ,
और जबर खुशबूदार ...
अरी ...!!! पग्गल ...!!!
काहे का रोना ...
काहे का कलपना ... 
सारा कसूर 
तेरे चोले में छिपी 
तेरी ही महक का है ...

~हेमा~

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