Tuesday, January 8, 2013

... फिर भी ...




अनगिनत आँखों के मध्य
चौराहे की ठिलिया पर
उस बड़े कढ़ाव में
रेत के गर्म चढाव में ...

भुनती हो 
छीली जाती हो
मसली जाती हो   
खाई जाती हो
मसालों  के साथ
गरमागरम ...

हैरत है ...
फिर भी ...
जीवित रहती हो ...
बड़ी बेशर्म हो ...

इजाजतों की मोहताज़
इस दुनियाँ में
अब भी अपनी ही
गहरी साँसे भरती हो ...

स्त्री आखिर तुम
अपनी दिखाई गई
औकात के मर्सिये 'घर' से
कैसे बाहर निकलती हो ...

ज़हरीले मानपत्रों को
अपनी जिद्द के
पैरों में बाँधे
कैसे ज़िंदा रहती हो ...


~~~हेमा~~~

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5 comments:

  1. बहुत अच्छा लिखा है आपने !
    यही सवाल है, यही जवाब है...
    ~सादर!!!

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  2. गहरा आक्रोश लिए है रचना ...

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  3. स्त्री आखिर तुम
    अपनी दिखाई गई
    औकात के मर्सिये 'घर' से
    कैसे बाहर निकलती हो ...!

    सारे प्रश्न यहीं स शुरू होते हैं.....!
    बहुत सुन्दर...

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  4. आक्रोश लिए है रचना .बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी .बेह्तरीन अभिव्यक्ति ,भकामनायें.
    आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
    http://madan-saxena.blogspot.in/
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