Sunday, March 31, 2013

चंद लम्हे बिना किसी किरदार के ...




अपनी यायावरी की अटैची खींचते हुए अकेली यात्रा पर निकली एक विवाहित स्त्री इतना बड़ा अजूबा क्यों होती है ...

विवाहित स्त्रियों को घूमने के लिए बाहर निकलने के लिए एक साथी और कारण जरूरी क्यों है ...

यायावरी का फल भी निषिद्ध फल है चखना मना है ...
पूरा फल खा जाना तो महाअक्षम्य अपराध है ...

चखने वाली स्त्रियों के साथ और सर पर ऐसे जबरन खोज कर थोपी जाती तमाम समस्याओं के चंद नमूने ...

- लगता है पति से बनती नही है ...

- पति का कोई चक्कर होगा ...

- अकेली है बच्चे हुए नहीं लगता है ... बेचारी ...

- पति की चलती नहीं होगी ... बड़ी तेज-तर्रार दिखती है ...

- विवाहिता की तरह तो रहती नही है ... एक भी ढंग-लक्षण वैसे नहीं दिखते ...

-कहीं तलाक का झमेला तो नहीं है ...

आदि-आदि-आदि ...
 

जैसे हरि अनंत वैसे कारण खोज कथा-गाथा अनंत ...

क्यों भई ... !!! विवाहित स्त्रियाँ स्वतंत्र इच्छाएँ नहीं रख सकती है ...

क्यों अकेले देश-दुनियाँ नहीं देख सकती है ...

क्यों परिवार, पति, बच्चों, रिश्तों-नातों से पृथक भी उनकी कुछ स्वतंत्र इच्छाएँ नहीं हो सकती है ...

हो सकती है ... है ... और होनी भी चाहिए ...

माँ, बहन,बेटी, पत्नी या अन्य किरदारों की जिम्मेदारियों और ममत्व से परे ...

स्वयं 'अपना' किरदार जीने की जिम्मेदारी सर्वप्रथम और सर्वोपरि है ना ...

चंद लम्हे बिना किसी किरदार के ...

अपने साथ अपनी यायावरी में ...




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Friday, March 29, 2013

नैनीताल में कनपुरिये होरियारों की याद ...




उत्तराखंड की अपनी इस खात्मे पर आ चुकी यात्रा के अंतिम चरण में आज मैं पुन:  नैनीताल में हूँ ...
यहाँ आज अट्ठाईस मार्च दो हज़ार तेरह गुरूवार का दिन होली खेलने के नाम था ...

मौसम का सुहावनापन उतरती हुई ठंड की धूप के चटक-चमकते गालों में हल्का सा महावर घोल, अपनी ही एक गुलाबी सिहरन दे रहा है  ...

मेरी ठेठ कनपुरिया आँखों के लिए आज बड़े अज़ब-गज़ब कमाल का दृश्य था सुबह-सवेरे मॉल रोड पर नियमित टहलने वालों को बिल्कुल साफ़-सुथरे बिना किसी हिचक के टहलते देखना ...

बाज़ार  दोपहर दो बजे तक के लिए घोषित पूर्ण बंदी पर था ...

प्रातः नौ-दस बजे के लगभग हलके-फुल्के गुलाल-अबीर और रँगों के साथ लोग दिखना शुरू हुए लेकिन हुड़दंग और शोर-शराबा कही भी नहीं था ...

घुमंतू भी थोड़ी-बहुत हिचकिचाहट के बाद मुख्य सड़क का जायजा लेने अपने अस्थायी घरों (कमरों ) से निकल आए थे ... इन घुमन्तुओं में भाँति-भाँति की पोशाकों में लड़कियाँ और महिलायें भी मौजूद थी ... आस-पास से गुजरते होरियारों की मस्ती ने इन की ओर ना तो रँग, गुलाल-अबीर उडाये/ फेंके  ना इन पर किसी भी तरह की छींटाकशी की ना कोई अन्य इशारोंजन्य चलनहारी अभद्रता ही की ...वजह  चाहे जो भी रही हो ...

मेरी कनपुरिया आँखे तो बिल्कुल अलग ही दृश्यों को देखने की अभ्यस्त है ...

वहाँ तो वो होरियार ही क्या हुए जी , जो ढोलक ,ढोल की थाप पर नाच-गा ना रहे हो ... जिनके कदम किसी पिनक में बहके हुए ना हो जो अपने आपे और भद्रता की सारी सीमाओं से बाहर ना हो ...देसी ठर्रे में ऊपर से नीचे तक महमहाते होरियार तो जो गज़ब ना ढा दे सो कम ... होरियार वो थोड़े ही है जी, जो  गुलाल-अबीर और रँग, गुझियाँ भर की हुलास से अपना त्यौहार मना लेवे ...

ना भई ना ...

होली का खेला पूरा नहीं होता जब तक रँग, गुलाल-अबीर की संगत में कीचड़-कादा,गोबर ,टट्टी-पेशाब की भी पूरी महफ़िल ना सजा ली जाए ...  किसी के पहने हुए कपड़ों को फाड़ कर नाली और कीचड़ में डुबा-डुबा कर बनाए गये पीठ तोड़ पछीटे लिए गली-गली चोई की तरह उतराते होरियार ...

सफेदे में पोत कर नग्न दौडाये जाते चितकबरे लोग ... रूमालों की बीन बनाये सम्पूर्ण नाग अवतार में ज़मीन पर लोट-लोट कर सामूहिक नागिन नृत्य करते लोग ... माँ-बहनात्मक गलचौर के रस में सम्पूर्ण माहौल को भिगाते लोग ...

शीला की जवानी में मदमस्त , मुन्नी बदनाम बनी तमाम कारों पर सवार लोग ...  जलेबीबाई  की तर्ज पर जैसे किसी पगलैट होड़ में कमाल के कमरतोड़ नाच मे अंधाधुंध डूबे और दौड़े चले जाते है ...

चार-पाँच की सवारी ढोती,कर्फ्यूग्रस्त सी सहमी सड़को को अपने ट्रक छाप होर्न और बेतहाशा गति से थर्राती  मोटरसाइकिलें ...

स्त्रियाँ और लड़कियाँ इन होरियारों को सिर्फ देख सकती है अपने-अपने सुरक्षित ठिये-ठिकानों से ...
स्त्रियाँ और लड़कियाँ अपनी हदबंदी में ही होरियार होती है ना बस ...

अरे  हाँ .. लड़कियों एवं स्त्रियों को तो होलिका दहन देखने की मनाही होती है ... वो घर के अंदर रहती है दहीबड़े,काँजी,गुझियाँ ,पापड,चिप्स इत्यादि तलती हुई ... पुरुष जाते है बाहर होलिका दहन में गन्ना और गेंहूँ की बालियाँ भूंजने और बल्ले की माला चढ़ाने ... 

और तिस पर कानपुर की होली तो अनुराधा नक्षत्र की आठ दिवसीय होली ठहरी ... तिथि की हानि-वानि गिन-गिना कर जिस रोज भी गँगा मेला पड़ जाए उसी रोज गँगा जी पर लगे मेलें में रँगे-पुते चेहरों के साथ सफ़ेद कुर्तों-पैजामों को पहन कर गलभेंटी के बाद ही समाप्त होगी ...
हाँ यहाँ  भी महिलायें नामौजूद होती है ... :(

कनपुरिये गँगा-मेला के दिन परेवा से भी ज्यादा रँग खेलते है ऊपर वर्णित समस्त प्रकार के साजो-सामान से लैस हो कर ...

घनी आबादी और मोहल्लों में लड़कियाँ और स्त्रियाँ आज भी इन दिनों घरों से निकलने में घबराती है ...
कोई भी कहीं भी कभी भी आप पर रँग या और कुछ भी फेंक सकता है ... इन होरियारे दिनों में किसी के भी घर जाने पर आपका रँग,गुलाल अबीर मय होने से बचना तकरीबन नामुमकिन ही जानिये ...

गँगा-मेला के रोज सिर्फ कानपुर क्षेत्र में स्थानीय अवकाश घोषित होता है ...

मुझे याद है गँगा मेला वाले रोज मेरी हाईस्कूल की अंग्रेजी की परीक्षा पड़ गई थी ... पर्चा खत्म कर अपने सेंटर से हम चार लड़कियाँ लवकुश रिक्शेवाले के जिम्मेदारी के पँख लगाए फरर-फरर उड़ते रिक्शे पर सड़क पर उड़ी चली जा रही थी ... लड़कों के एक स्कूल के बगल से गुजरने पर हम पर रँग, अबीर गुलाल के साथ-साथ कीचड़ और गोबर की वो जबरदस्त बमबारी हुई ... लव-कुश के पैरों में जैसे उस रोज रॉकेट इंजन लग गये थे,उसका रिक्शा जैसे किसी उड़नखटोले में तब्दील हो गया था ...गरियाते होरियारों को पछाड़ने को ...

रँगी-पुती स्कूल ड्रेस और गोबर कीचड़ में लस्तम-पस्तम होने पर बिना किसी गलती के भी फटकारों के चलनहारे माले तो हमें ही पहनने थे सो घर पर वो भी पहने ही गये ...

एक  बार अपने छुटपन में मैं अपनी नानी के घर बेहद घनी आबादी वाले मोहल्ले धनकुट्टी में थी ...
अपने बालपन में भी स्त्री जन्य निषिद्ध स्थिति के अंतर्गत, दुखंडे के छज्जे पर लटक-लटक कर होरियारों की ग़दर काटू हुड़दंग को ही अपने लिए निषिद्ध होली मानते हुए ललचाते हुए देख रही थी ...
तभी नानी, माँ का घर का नाम लगभग चिल्लातेहुए , भागते हुए आई ,"बिट्टन, बिटेवन का अंदर करि लेव , मुनुवा केर सबै कपरा फारि डारे गये "... ये लो माँ तो जब आती तब आती मुनुवा मामा (मामा के सभी दोस्त हमारे मामा कहलाते थे ) साक्षात अपने दिगम्बरी स्वरुप में चमचमाते सफेदे मे लिपटे सड़क पर दौड़ लगाते अवतरित हो चुके थे ...

ठीक दो बजे यहाँ नैनीताल में होली समाप्ति की घोषणा करती एक गाड़ी गुजरी और बस होली खत्म ...
जैसे इसी घोषणा के इंतज़ार में मुँह डाले बैठे सड़क-बाज़ार एवं  दुकाने चटा-पट खुल गये ...

नैनीताली घुमन्तुओं की फैशनपरस्ती रास्तों पर लहलहा कर खिल उठी ...

मंद बोटिंग और घुमाई की गति ने जैसे स्केट बोर्डों की सवारी पकड ली ...

सबेरे से चुप्पे पड़े खाने-पीने के अड्डे और रेस्तरां अपने दरवाजों की आवाज़ों के ताले खोल जैसे स्वागत-स्वागत कह उठे  ...

मैंने ठंडी सड़क पर पाषाण देवी मंदिर के पास वाली सीढ़ियों पर अभी भी दबे पाँव मौजूद हो गये एकांत का भरपूर आनंद उठाया ...

कनपुरिये  होरियार घोषणाओं वाली ऐसी-वैसी फ़ालतू की बात पर अपने कान भी नहीं धरते है ...
शाम पाँच बजे तक भी होली का हुड़दंग और शोर-शराबा चल सकता है ...

एक कनपुरिया स्त्री के रूप में मैं कानपुर में होली की भरी दुपहरी में ऐसे आनंद और सुबह-सवेरे की शांति की ऐसी कोई कल्पना भी नहीं कर सकती ...

वक्त आज भी इस मामले में बस शायद नाखून बराबर ही बदला हो  ...

भाई हम तो बेहिचक कहेंगे कि हम कनपुरिये होरियारों से बहुत ही भय खाते है ...





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Saturday, March 16, 2013

इतराते-इठलाते जंगल ही जंगल ...


 अपनी छोटी चक्का चलन्तु अटैची मे एक काली,एक नीली जींस,दो शर्ट ,तीन टी शर्ट, समय-कुसमय पहने जाने के लिए एक-दो सलवार कुर्ता,एक अदद डायरी, मेरा लैपटॉप ,कुछ एक अन्य जरुरी सामान डाल कर अपने बेहद प्रिय गुलाबी सफ़ेद स्पोर्ट्स शूज पैरों में कसे ...
मैं आजकल कुमायूँ खण्ड के छिपे सुदूर अनछुए बेहद खूबसूरत कोनों की यायावरी में हूँ ...


दूर-दूर तक दृष्टि जहाँ तक अपने पाँख-पाते फैला सके ...
स्वयं को ले जा सके सर्पिल रास्तो से चलते हुए या पहाड़ से घाटियों तक उतरते हुए ...
जंगल ही जंगल अपनी हरीतिमा के लहँगे पसारे ...
अपनी दोनों बाँहें खोले बेतरह मुझे पुकारते और अपनी ओर खींचते ...
आजकल जैसे अपनी चाहतों की माँग में बुराँस ही बुराँस सजाये बैठे है ...
मन इनके साथ ठहर गया है कहीं जाने को राज़ी नहीं है ... :(
हम जितना पा जाते है उससे कहीं और ज्यादा चाहने लग जाते है ...
  
प्लम के और आडू के पेड़ बिना एक भी पत्ती वाली ढेरो शाखाओं में सफ़ेद और गुलाबी फूल ही फूल सजाये पूरे अंचल में छितराए हुए है ...
सेब के बागों में अभी सूनेपन का वास है पर बस कुछ ही दिनों में वहाँ भी बसंत ही बसंत अपने फूलों के पँख खोले बिछा होगा ...
आबादियों और बाज़ारों की भाग-दौड़ से दूर सन्नाटें अपनी ही भाषा बोलते है ...
एक मोटर-गाड़ी या एक हांक की या चिड़ियों और हवाओं की आवाज़ भी देर तक और दूर तक सुनाई देती है ...
सीढ़ीदार खेतों के घुमावों पर गेंहूँ की पौध अभी बालेपन में है ...
कहीं-कहीं तैयार माटी में आलू के बीज बोने की तैयारी है ...


इन सीढ़ीदार खेतों में बैलों को मुड़ते-घूमते ,ठिठकते और जुताई होते देखना मैदानों से बिल्कुल अलहदा और रोमांच देने वाला अनुभव है ...
यहाँ भी खेतों में निराई-गुड़ाई करती मिलती है स्त्रियाँ ...
बिल्कुल मुँह-अँधेरे सुबह-सवेरे चीड़ ,बुराँस,बाँज की लकडियाँ काट कर ले जाती स्त्रियाँ ...
नीचे कहीं मौजूद हैंडपंप या पानी के किसी स्रोत से पानी के भारी पीपे ढोती या घरों से लाये ढेरों कपड़े धोती स्त्रियाँ ...
५-६ कि. मी. पहाड़ी उतार-चढ़ाव भरे रास्ते तय करते स्कूली बच्चे ...
जगह-जगह मिलने वाले गोलू देवता ...
बिसलेरी की ,सॉफ्ट ड्रिंक, और महँगी-सस्ती दारु की खाली बोतलों और पैकेज्ड फ़ूड के खाली पैकेटों,पॉलीथिनों की उडती-फिरती तमाम हुई रंगीनी से पटे गाहे-बगाहे मिल जाने वाले बेहद उदास संतप्त मुर्दाघर मे तब्दील हुए ढलानों के मोड़ ...
मैं यात्रा के सुख-दुःख समेटते, मेरे संग भागते-दौड़ते खेतों, चीजों और लोगों के दृश्यों उनकी बानी-बोली, काम-काज, पहनावे-ओढ़ावे में कहीं भीतर तक अपनी ही एकांतिक यायावरी में गुम हूँ प्रकृति के बीच जाने जैसे किसी खोये सोंधेपन में अपनी बड़ी पुरानी साध घोलते ... लमपुसरिया की और बादलों के शेर,घोड़े,हाथियों और आग उगलते ड्रैगनों की उड़ानों को ताकते ... खुश हूँ ...



(लमपुसरिया -लंबी पूछ वाली एक चिड़िया )

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Saturday, March 2, 2013

छुटंकी हथेलियों में स्वादों की पुड़िया ...

 

आज तो मुझे छुट्टी के बाद स्कूल के गेट के बाहर खडे रँग-बिरँगे चूरनवाले, उसकी ठिलिया और अपनी छुटंकी  सी हथेली में दबी पसीजी चवन्नी की याद बेतरह सता रही है ! 
लाल इमली,सादी इमली ,अंदर से लाल बाहर से हरी इमली ,कैथा ,कमरख , बड़हैर ,छोटे-छोटे लाल बेर, गीले चूरन का  गोवर्धन ,पता नहीं किसी ने तेज़ाब से छौंका गीला लाल चूरन खाया है या नहीं उन स्वादों की याद से मेरा मुँह अनगिनत रसो से भीग गया है और मन यादों से! 

मेरी सारी चवन्नियाँ उसी बचई चूरनवाले की ठिलिया ने गपकी है ! अखबारी कागज़ की पुडियो और नन्हे-मुन्ने लिफाफों में बंधी कभी किसी तो कभी किसी चीज के लिए ! आँखे आज भी चूरनवाली ठिलिया पर बचई का धूप तपा चेहरा और खट्टी मुस्कान ढूढती है | 

कभी-कभी जब मेरी चवन्नी बतौर सजा कुपित अम्मा जब्त कर लिया करती थी तो बचई अपनी रोज की ग्राहक की आँखों की ललचाई भाषा पढ़ लिया करता था और उस दिन मेरे हाथ मुफ्त की पुडिया लगती थी ! और पता है रोज की पुडियों की बनिस्बत इस पुड़िया में स्वाद कही ज्यादा हुआ करता था ! :)

घर पर किसी को भी कभी हमारी इस मुफ्त की कमाई की हलकी सी भी भनक हमने नहीं लगने दी. मुफ्त की थाली के ढेरो बँटाईदार जो होते है ... और अगर अपनी दबंगई में हिस्सा ना दो तो जाने कौन अपनी लगावा-जुझाई की पूँछ से अम्मा के कानों में आग लगाता और हमारी पीठ कुटवाता ...
बचई की ठिलिया आज भी आबाद है ... बचई की जगह अब उसके कुछ ज्यादा धूप तपी रंगत वाले लड़के भुल्लन ने ले ली है और मेरी जगह स्कूल के दूसरे बच्चों ने ...
भुल्लन मुझे नहीं पहचानता है ... यूँ तो बचई होता तो वो ही कहाँ पहचानता मुझे मेरी छुटंकी हथेलियाँ बड़ी जो हो गई है ... और चवन्नियाँ भी तो समय की परतों में खो गई है ... :( 
इमली खाने की तो ऐसी शौक़ीन थी हमारी जबान कि एक बार किसी ने खबर दे दी कि फूलबाग में बिजलीघर के पास एक बहुत बड़ा और पुराना इमली का पेड़ है और इमली से लदा भी है ...
एक दुपहरी हमने अपनी दुपटिया सटकाई और काली छतरी ले कर पहुँच गये बिजलीघर के अहाते में ...  अपनी काली छतरी के साथ फ्रॉक पहने और चूंकि धनियाँ-मिर्ची, आलू लेने निकले थे तो एक झोला भी थामे थे ....
 उस दुपहरी पता नहीं हम शायद कोई कूड़ा बीनने वाले बच्चे की छवि प्रस्तुत कर गये वहाँ घूमते एक आवारा कुत्ते की आँखों में ... उन कुत्ते महाशय ने बिजलीघर के अहाते के चारों ओर जिंदगीभर याद रहे ऐसे दौड़ाया ..  उन कुत्ते महाशय से कहीं ज्यादा जोरों से हम बचाओ-बचाओ भौंके होंगे ...चीखा-चिल्ली से बिजलीघर से दो-चार आदमी निकले उन्होने दो-चार ढेले फेंक कर कुत्ते को भगा दिया और इस तरह हमें बचाया गया ...
उस दिन के बाद हम  फिर कभी किसी के अहाते में इमली चुराने नहीं गये ऐसा तो नहीं ही था अलबत्ता हम पहले से ही खूब ठोंक-बजा लेते थे कि आस-पास किसी कुत्ते महाशय का वास तो नहीं बस   ... :)  
इनके साथ एक और भी स्वाद है इतना खट्टा खाने के लिए गाहे-बगाहे अम्मा से पड़ने वाले जोरदार धमक्के और उनके शब्द ,"अरे लड़की ! खून पानी बन जाएगा हड्डियाँ गल जाएँगी मरेगी तू !" आँखों से बहता नमकीन पानी और मुँह में घुलती इमली का पानी ... अद्भुत मेल था ... वैसा मेल और स्वाद मेरी जबान फिर कभी नहीं पा पायी !!!

बचपन के स्वाद क्या बचपने की वजह से इतने अमिट होते है कि हम आजीवन उनसे गले मिलते रहते है!

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