स्यापों से
अपनी नफ़रत को
अब कहाँ ले जाऊं ...
हरे-भरे जंगलों की याद के
किसी अनगढ़
कभी हरी मुस्कानों वाले
पर आज मरी-सूखी आँखों वाले
भूरे पड़ गए उसी पत्थर पर
कैसे और किस ठौर बैठाऊं ...
किसके सर-माथे यह दोषों की गिट्टक फोडूं ...
कहाँ यह रुदन के स्यापे खोल
अपने जट्ट हुए जाते
मन की गिरहें खोलूँ ...
मुस्कुराहटों की
मोटी खाल के नीचे
कभी-कभी
इतना कुछ उबलता है कि बस ...
विक्षिप्तता की
थपकियों के
अलाव की तेज आँच में
कुछ भी बाकी नहीं बचता ...
बाकी बचती है तो बस एक इच्छा
काली राख की भुरभुरी जमीन में
एक तहखाना खोद पाने
और उसमें
दफ़न हो जाने की ...
जंगलों के मरने पर ...
और स्यापों के दौरे पड़ने पर ...
सब कुछ हारी हुई
बाजियों में तब्दील हो जाता है ...
हारी हुई बाजियां
अपने ही मुँह पर
अपने ही हाथों मारे गए
तमाचे है ...
चीख उठते है
गाहे-बगाहे
जिनकी छपी हुई उँगलियों के
गहरे निशान
यह ले शह ...
और ले यह संभाल
अपनी ही रची हुई मात ...
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