Wednesday, June 19, 2013

मेरा हिस्सा ...



स्यापों से
अपनी नफ़रत को
अब कहाँ ले जाऊं ...

हरे-भरे जंगलों की याद के
किसी अनगढ़
कभी हरी मुस्कानों वाले
पर आज मरी-सूखी आँखों वाले
भूरे पड़ गए उसी पत्थर पर
कैसे और किस ठौर बैठाऊं ...

किसके सर-माथे यह दोषों की गिट्टक फोडूं ...
कहाँ यह रुदन के स्यापे खोल
अपने जट्ट हुए जाते
मन की गिरहें खोलूँ ...

मुस्कुराहटों की
मोटी खाल के नीचे
कभी-कभी
इतना कुछ उबलता है कि बस ...
विक्षिप्तता की
थपकियों के
अलाव की तेज आँच में
कुछ भी बाकी नहीं बचता ...

बाकी बचती है तो बस एक इच्छा
काली राख की भुरभुरी जमीन में
एक तहखाना खोद पाने
और उसमें
दफ़न हो जाने की ...

जंगलों के मरने पर ...

और स्यापों के दौरे पड़ने पर ...

सब कुछ हारी हुई
बाजियों में तब्दील हो जाता है ...

हारी हुई बाजियां
अपने ही मुँह पर
अपने ही हाथों मारे गए
तमाचे है ...
चीख उठते है
गाहे-बगाहे
जिनकी छपी हुई उँगलियों के
गहरे निशान
यह ले शह ...
और ले यह संभाल
अपनी ही रची हुई मात ...

..................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................... सूखी हुई आँखे बिना आँसुओं के अपने स्यापों के बेबस हाथ-पाँव पटकती है ... कि हो रही तबाहियों के अपराधियों में एक नाम मेरा है ... कि गुनाहों के उस शहर में एक हिस्सा मेरा है ...
feeling guilty.

Saturday, June 1, 2013

दाँव ...

भागती हुई
रेलगाड़ी में
निचली बर्थ के
खोंचक लगे
उस  कोने में ,
घुटनों में
अपना बाँया कान और
थोडा सा ही माथा दिए
वह औरत
अपनी दसों उँगलियों को ,
हद से बाहर रगड़ी
घिसी हुई
सार्वजनिक खिड़कियों की
काली पड़ गई
सलाखों पर कसे हुए
करती है प्रतीक्षा ...
तेजी से गुजरने वाले
पुलों के नीचे से
बहती नदियों के
अपनी आँखों में
उतरने का ,और
उन आँखों में
उठती  आवाज़ के
अपने ही कानों में
सुने जाने का  ...
बस ऐसे ही
उसकी प्रतीक्षा
सर उठाती है
और खँखार कर फेंकती है
खूब ही ऊँचा उछाल कर
आवाज़  के दरवाजों पर चिपका
तुम्हारा ही बैठाया
एक खोटा काला सिक्का ,
और जैसे ...
खेल डालती है ...
भरी सभा में ..
अपनी मन्नतों का
एक दाँव ...
सिर्फ अपने लिए ...


~~हेमा~~

न्याय ... ???

न्याय ... न्याय ... न्याय ...
आधी रात ...
आधी नींद उठ कर ...
रक्त-रंजित ,क्षत-विक्षत
स्वप्नों के मध्य
गले की सारी
तनी हुई नसों के साथ
बदहवास चीखती हूँ मैं ...
आखिर तुम
हो क्या ???
...
मौत की सज़ा झेलते
किसी आदमी की अंतिम ख्वाहिश ...

बाज़ारों के खानाबदोश शोर के बीच
हाथ मलती गूंगी आवश्यकता ...

बग़ावत की भेड़ें चराता
हज़ार-हज़ार आँखों वाला कोई लोमड़ी गड़रिया,

या ...
हिफ़ाज़त की स्याही से
भरोसे की रद्दी पर
किया जाता
ताकत का एक फर्जी दस्तखत ...

उम्मीद के गुलदस्ते में
खिलाये जाते है
शोषण के कैक्टस ...

इस अंधे वक़्त की
हथेलियों में
न्याय है
सिर्फ एक अदद
भ्रामक और धूर्त अवधारणा ...

क्या नहीं है ऐसा कि
न्याय रह गया
सिर्फ एक ऐसे
कारतूस का नाम
जिसे सत्ता की
नाजायज पिस्तौल में डालकर
दाग दिया जाना है ...
कभी भी ...
कहीं भी ...
सत्य, धर्म और तंत्र के नाम पर
या उनके ऊपर
जो है -
सत्ताविहीन-रज्जुहीन
तुम्हारे लिए
बस केंचुए भर ...

न्याय ... न्याय ... न्याय ...
क्या यह भी है
बस शब्द भर ... ???




~~~हेमा~~~


(समकालीन सरोकार सितंबर-अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित )