Wednesday, January 9, 2013

... देख लेना ...



अन्याय के विरोध में
आवाज उठाने से पहले
देख लेना -
कि तुम्हारी जाति क्या है ...

देख लेना -
कि जो अन्याय का शिकार हुआ
उसकी जाति क्या  है  ...

देख लेना -
कि वो जो मर-खप गये कभी के
तुम्हारे-हमारे पूर्वज
उनके कर्मों के
क्या है इतिहास ...

देख लेना -
उनके धर्म-कर्म
और देश-जाति की पहचान ...

समझना इस बात को -
कि अन्याय का
विरोध करने के अधिकार के लिए भी
पहले निपटाने होंगे आपको
मरे हुए लोगों के
और कभी की मिट्टी में मिल गई
मरी हुई बातों के हिसाब-किताब ...

कि इतनी बंटी हुई दुनियाँ से ...

इतने कटे हुए सिरों से ...

इतनी उघाड़ी और काटी गई छातियों से ...

इतने फाड़ कर और नोच कर फेंके गये
गर्भाशयों से ...

भालों की नोक पर टंगी अजन्मी 
धर्महीन संततियों से ...

इतनी गुमनाम
सामूहिक कब्रों से ...

इतने खून से भरी
नदियों और रास्तों से ...

इतनी कलपती छाती कूटती
माँ,बहनों और पत्नियों से ...

इतनी ख़ाक और ज़मीनदोज़ हुई
पीढ़ियों और सभ्यताओं से ...

कि अभी जी नहीं भरा है
इन तकसीमपसंदो का ...

इंसान और इंसानियत पर
भारी पड़ गई इतनी सारी ...

पूरी धरती को
अपने ठन्डे मरेपन से
दाबे और दबोचे बैठी ...

इन नामुराद काल्पनिक
सीमा-रेखाओं से ...

जिन्होंने धर्म-जाति ,वर्ण, देश-प्रदेश,
ऊँच-नीच के खाके खींचे
शतरंजे बिछाई...

निरीह प्यादे बैठाए ...

निजी स्वार्थों की
शातिर चाले चली ...

भाँति-भाँति की
औकातों के बंटवारों किये ...

कोई और नही
वह भी तुम ही थे ...

और आज भी
उसी शतरंज को खेलते ...

निरीह प्यादों की
गरदने उमेठते
वो तुम ही हो ...

मक्कार और स्वार्थी
निजी सत्ताओं और वर्चस्व के लोभी ...

'महत्वाकांक्षी तुम' ...

जाओं ...
और चिंदी-चिंदी कर डालो
इस बची-खुची दुनियाँ के
बचे रह जाने की
थोड़ी बहुत गुंजाइशों को भी ...

   ~~~हेमा~~~
    

Post Comment

Tuesday, January 8, 2013

... फिर भी ...




अनगिनत आँखों के मध्य
चौराहे की ठिलिया पर
उस बड़े कढ़ाव में
रेत के गर्म चढाव में ...

भुनती हो 
छीली जाती हो
मसली जाती हो   
खाई जाती हो
मसालों  के साथ
गरमागरम ...

हैरत है ...
फिर भी ...
जीवित रहती हो ...
बड़ी बेशर्म हो ...

इजाजतों की मोहताज़
इस दुनियाँ में
अब भी अपनी ही
गहरी साँसे भरती हो ...

स्त्री आखिर तुम
अपनी दिखाई गई
औकात के मर्सिये 'घर' से
कैसे बाहर निकलती हो ...

ज़हरीले मानपत्रों को
अपनी जिद्द के
पैरों में बाँधे
कैसे ज़िंदा रहती हो ...


~~~हेमा~~~

Post Comment

Monday, January 7, 2013

बेशीर्षक -५

चलो ...

बंद आँखों के मध्य
इस लहूलुहान
समय से परे
और तुम्हारी
रीत-नीत की
उठी  तनी तर्जनी
की इंगित राहों की
उम्मीदों के पेट से
बिल्कुल ही धुर विपरीत ...

इसी  काले शून्य से ...

दूर कहीं ...
बहुत दूर ...



अग्नि  के पन्नों पर
उड़ा जाए ...

पीले  आसमान  के
मसले और मरे हुए गालों के
बस थोडा सा
ऊपर  ...

अँधेरे की चौहद्दी  के
माथे के ठीक बीचोबीच ...

भिंची मुट्ठियों के
अपने सूरज में
उगा जाए ...


~~हेमा~~

Post Comment