अब तक सिर्फ सुनते आए थे कि मुसीबत जब भी आती है अपनी पूरी सज-धज में पूरे सिंगार-पिटार के साथ लंहगा-चुनरी पहन-ओढ़ कर अपना डेरा-डम्बर ले कर पूरे ठाठ से आती है ...
मिलो तो पता लगता है कि सिर्फ आती कहाँ है पसर कर बैठती है और बाकायदा अपनी ठसकेदार बेमुरव्वत,बेशर्म राजशाही चलाती है ...
यह तो उसके आने पर ही पता लग पाता है कि उसके लंहगे-चुनरी में हज़ार-हज़ार चोर जेबें होती है जिनमें उसके भाई-बहन , बाल-बच्चे , नाते-पनाते भी छिपे बैठे होते है ...
और मुसीबत की मुस्कान की तीखी धार तो बस अच्छी-भली जिंदगियों की देह पर जख्म ही जख्म करना भर जानती है ...
पर इस पर चलने वाले भी कमाल की जान रखते है ...
अपनी जिद के जूते पहन कर नंगे पाँव ही चल पड़ते है ...
सदियों लंबी मालूम पड़ती दूरियाँ सिर्फ एक थामी हुई बात के भरोसे पर नापी जाती है कि इतिहास गवाह है अपने पैरों पर चक्की के पाट बाँध कर चलने वाला यह भारी वक़्त भी आखिर गुजर ही जाऐगा ...
अपनी जिजीविषाओं की डूब के मारे, मुस्कुराहट की उंगली थाम कर चल पड़ते है ...
परेशान वक़्त के आईने में अपनी जरा बिगड़ गई तस्वीर आप ही संवारते है और खुद के कन्धों पर हाथ रख कर कहते है ...जीवन की गति न्यारी है ... चलो कि चलना ही होगा ...
चलो मेरे प्यारे ... कि चलना ही होगा ...