एक बेहद उदास करने और त्रास में डुबाने वाली फिल्म से गुजरने के बाद ...
पाकिस्तानी फिल्म 'बोल' का प्रारंभ एक सामान्य फिल्म की भाँति होने पर यह आभास कतई नहीं होता है जेल में बंद इस लड़की से मिलने आने वाली ६ स्त्रियों का सामूहिक रुदन इसे एक झटके में फिल्म से एक सामाजिक परिवेश में बदल देगा वो भी एक ऐसा सामाजिक परिवेश जो मात्र मुस्लिम समाज या पाकिस्तान का परिवेश ना हो कर एक सार्वभौमिक सा खाका खींच दे ......
"मैं तो सोच-सोच कर मरी जा रही हूँ कि मेरी जान अभी भी नहीं छूटी है, आपका बेटे का शौक अभी भी जिन्दा रहेगा " फिल्म में सैफी के जन्म के समय उसकी अम्मी का अपने शौहर से अभिव्यक्त यह मार्मिक संवाद ही जैसे सारा का सारा केन्द्र बिंदु है पूरी फिल्म और अधिकाँश स्त्रियों के जीवन की मूल मुसीबतों का ...
काबिले गौर बात यह है कि यह स्त्रियां ना केवल मुस्लिम समाज वरन आस-पास नजर उठा कर देखने पर कहीं भी बहुत ही आसानी से मिल जायेंगी.
(पुरुष संतान ) पुत्र के जन्म से जुड़ी हुई , पुरुष सत्तात्मक वर्चस्व को शाश्वत रूप में मूर्तमान रखने की इस चाहना के इर्द-गिर्द ऐसा जबरदस्त मकडजाल धर्म और समाज ने मिल कर बुना है कि जीवन की छोटी से छोटी खुशी भी जैसे मरी हुई पड़ी है ...
कुछ भी सरल सहज और जीने लायक नहीं बचता है ...
अपने
कार्य के दौरान अक्सर ही मैं ऐसी स्त्रियों से मिलती हूँ जो इस फिल्म में
चित्रित मात्र १४ नहीं १७-१८ बार तक गर्भवती हो चुकी है! शारीरिक ,मानसिक
,सामजिक और आर्थिक सभी स्थितियों से बुरी तरह थकी और टूटी हुई .पर मजाल है
कि आप उन्हें परिवार नियोजन के किसी
भी उपाय के लिए रजामंद कर सके! ऊपरवाले के कहर के बरपने का खौफ उनकी जिंदगी
में इस कदर भरा हुआ है कि वो मरने को तैयार है ... भूखे पेट बच्चे पालने को
तैयार है ... ५-७ की उम्र से बच्चो को आर्थिक सहयोग सम्पति के रूप में इस्तेमाल
को तैयार है पर हमें सुनने से उनकी तौबा है !
यह फिल्म बहुत सारे ऐसे सवाल खड़े करती है जो इसी वर्चस्व की लड़ाई से जुड़े है ...
मेरी कामना है कि ऐसे बहुत सारे विरोध के बोल मेरे आसपास मुझे सुनाइ दें और इस फिल्म के पात्रों जैसी बहुत सारी सशक्त स्त्रियाँ बाजी,आयशा और मीना सरीखी मुझे मिले जो अपनी अम्मियो को उनकी जिंदगी के मायने कुछ यूँही उनके अपने लिए दिखा और दे सके ................ "
सार्थक पोस्ट
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