Monday, August 26, 2013

वो फाँसे तो कभी निकाली ही नहीं गई ...


बचपन की माटी में संग-साथ इक्कड-दुक्कड़ खेलती ...

बेर का चूरन चाटती ... माँ की नजरों से छिप भरी दुपहरी टंकी के पानी में मेरी संगाती ...

गुड़िया-गुड्डा, नकली के ब्याह और घर-दुआर रचाती ...

दुपट्टे की साड़ी बाँध मेरी माँ सी हो जाती ...

खंडित हों गये व्रतों में तुलसी पत्ता खिला उन्हें अखंड कराती ...

मेरी बेहद-बेहद अपनी ... जैसे मेरा मैं ही हो कर बीजित ...

मेरी अनन्य सखी ...


उसके ब्याह और उसके बाद की व्यथा मेरे अंतर में
उसकी घनी काली घुँघर वाली केशराशि की तरह अपना सर्पिल विस्तार बनाए बैठी ही रही है ...


अपना फन काढे जब-तब नश्तर चुभाती ...


सच्ची-मुच्ची के ब्याहों का झूठापन ...


उड़ते प्राणों का सजी-धजी गुड़िया ही हो जाना ...

वो काली अँधेरी स्मृतियाँ ...


सब कुछ ठीक हो जाने और गृहस्थी सुचारू हो जाने से मर नही सकती ...

वो फाँसे तो कभी निकाली ही नहीं गई ...


उनके डेरे तो कभी उखाड़े ही नही गये ...


इस लिखत के शब्द तो बस उस पीड़ा की गुजरन की


उन अनंत आहों में से मात्र एक ही साँस भर है ....

2 comments:

  1. सुंदर प्रस्तुति।।।

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  2. आपने जिस को सच अभिव्यक्ति दी वह इतना करुण था कि मन भीग उठा.

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