Monday, July 18, 2011

........क्या कर सकती हूँ मैं



चारो ओर
बहता हुआ
लाल-लाल रक्त
इधर-उधर तडपती
दर्द से छटपटाती
हथेलियों को भीचती-खोलती
फैली उंगलियों को देख
जाने कहाँ
आधार को खोजती
लाक्षागृह में तपती
आस-पास फैले मरघट को
साँसों में लिए
मौन चीत्कार की
मुमुक्षा समेटती
अपनी जाग्रत-सुषुप्त
सामर्थ्य को टटोलती
विनाश के जयघोष में
सृजन की मृत्यु को देखती
विध्वंश के मध्य
अग्नि फूल चुनती
सृष्टि की एक माँ
अपनी कोख में
सूर्य के अंकुरों को पालती !!


***हेमा***

Sunday, July 10, 2011

आँगन के पार


दिन भर के 
सन्नाटो से,
कमरे के ठन्डे
कोनो में पड़ी 
पीली, ऊबी हुई
लड़की ने 
खोल लिए
'आँगन के  पार द्वार'
चौखट का टेका लिए
देहरी पर  बैठी लड़की
तुमको पुकारती
परन्तु जीवन में 
तुम हो कहाँ
' अज्ञेय '
बस तुम्हारी तलाश
स्थिर आँखों से
आसमां के उस पार  !!



                        *** हेमा ***



नि:शेष

कितना बेमोल  है इन्तजार
कितनी बेनाम है  प्रतीक्षा 
कितने दिन-कितने आगत,
कितने विगत बना गया
कितने धूप भरे क्षण 
ले गया चुरा कर 
यही इन्तजार
घट जल सा ठहरा........ इन्तजार 
सुबह की तरह 
हाथो से सरकती..........प्रतीक्षा
 कितनी व्यग्रता 
कितना रोष और आक्रोश
धूल सा उदास मन
इतना सन्नाटा
इतना कुछ लिखता हुआ 
फिर भी नि:शेष गहराता
कितना कुछ ख़त्म हो जाता 
फिर भी घटता नहीं कुछ विशेष
ख़त्म नहीं होती.........प्रतीक्षा
ख़त्म नहीं होता .........इन्तजार!!




                                       ***हेमा***