सामान्य रोजमर्रा की जिंदगी जीते-जीते अचानक एक क्षण में कोई व्यक्ति ,कोई घटना ,
कोई शब्द ,कोई घुमाव आवेशित कर देता है । गढे हुए बासे चरित्रों से अलहदा एक व्यक्ति
के किरदार में डाल देता है ।यह किरदार कमर कसता है । तैयार हो जाता है । मैं रोज ही रसोई
करती हूँ ।
चूल्हे में लगाये तैयार चैलो में करना ही क्या होता है । ढिबरी से दो बूँद मिट्टीतेल की टपकन ।
माचिस की तिल्ली की रगड़-घिस्स बस । देखो फिर लपट और चिंगारियों की फ़ैल ।
मैं यह फ़ैल संभालती हूँ ।उठती लपक को धीमा तेज कर संभालती हूँ ।
चैलो से चटकते अंगारा हुए कोयलों की बाराखडी सुनती हूँ ।
धुआँते चैलो,पटैलों में अपनी सारी शक्ति का संकुचन कर फुँकनी से भरपूर फूंक मारती हूँ ।
उनके अंतिम छोर पर उठते कुलबुलाते पानी की पीली बुदबुदाहट सुनती हूँ ।
चटकते अंगारों को जंगहे चिमटे से खींच कर बाहर धर देती हूँ राख और कोयला अलग कर
देती हूँ । अंगारे चूल्हे की चौपाल पर पंचो की मानिंद लहकते है । पानी की छींटे अंगारों की
अराजक खौल ठंडा देती है।सबकी अपनी-अपनी नियति है ।
बर्तन को है आंच पर चढ़ना, जलना और मंजना । कोयले को है फिर जलना । अदहन को है
पकना और रोटीको सिंकना । राख के हिस्से घूरा । धुएँ के हिस्से आसमान की उठान ।
बटलोई के हिल्ले है तपना, मंजना, घिसना और फिर चढ़ना ।
अदहन को धुलना है । पकना है । पेट भरना है ।लिखना जैसे जीवन के भूखे पेट को खानाखिलाना है ।
जले बासन-जूठे बासन मांजती है राख । करखा और जूठन धोती है । बासनो का मुँह चमकाती है।
चकमक,चमाचम । कविता राख की जाई चकमक है ।
घर में धुँआरा जरुरी होता है नहीं तो रसुइया धुँआ जाती है । धुँआ घर में भर जाए तो कुछ दिखता
नहीं सिवाय कसैलेपन के कोई स्वाद नहीं मिलता । धुँआरे मुक्ति है आसमान की ओर ।
पर धुँआरे की लंबी अँधेरी सुरंग धुएँ की पीठ रगड़ डालती है । छिली पीठ पर कालिख मल देती है ।फिर कहती है उडो अब । दिखाओ दुनियां को मुँह । उजालो और आसमान की तलाश में धुँआ
तड़पता है । ऐंठता है । अंधी सुरंगों से सर मारता है ।गुलमे और गूमड़ लिए जब सुरंग के छोरसे निकलता है तो फिर नहीं रुकता ।बस उठता और उड़ता है ।खूब फैलता है । सबको दिखता है । बंद करो दरवाजे-खिड़कियाँ या फिर अपनी आँखें ही क्यों ना !
उसने तो घुस ही आना है । सड़ी व्यवस्थाओ को रुलाना है । उसका लक्ष्य बंद जगहों से उठ जाना है ।उड़ना औरचुभना है ।लिखना धुँआ हैं मुक्ति है ।
मैं स्वयं से सवाल उठाती हूँ , क्यों, ऐसा क्यों है ?
मेरे अंदर घटितों का ग्रहण किस रूप में है , जो उन्हें ऐसे निरखता है परखता है ?
ऐसे अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होना क्या है ?
मैं क्या होना चाहती हूँ ?
मैं स्वयं को क्या मानती हूँ ?
मैं एक इकाई के रूप में स्वयं को व्यक्ति मानती हूँ । मैं व्यक्ति हूँ ।
तत्पश्चात यह व्यक्ति स्त्री है , बेटी है , बहन है , पत्नी है , माँ है , मित्र है , और भी बहुत कुछ है ।
जन्मना विशुद्ध रूप में मैं एक व्यक्ति हूँ । इस स्वरुप के चारों ओर कसी हुई सारी बुनावट
सामाजिक है । परिवेशिक है। गढ़ी हुई है । मेरे अंदर चीजों का ग्रहण व्यक्ति रूप में होता है ।वही निरखता है परखता है घटितों को ।
मैं व्यक्ति होने की अदम्य इच्छा और उसके विरोधी सतत दबावों के जीवन में हूँ ।
व्यक्ति होना , अस्तित्वमय होना , मेरा निजत्व है । यह मेरे अपने होने का स्तर है ।
मैं इस स्तर से कमतर किसी भी चीज को अस्वीकार करती हूँ ।
किसी भी रूप में निजत्व की क़तर-ब्यौंत सुलगाती है । यह सुलगन असंतोष उपजाती है और भूखा रखती है ।
लिखने का अर्थ मेरे लिए सवाल उठाना है और सवाल उत्तरयात्राओं के मार्ग खोजते है ।
व्यक्ति रूप में जीवन जीने की अदम्य इच्छा अपना मार्ग खोजती है ।
यह इच्छा स्वयं को लिखती है अनथक .....
***हेमा ***
कोई शब्द ,कोई घुमाव आवेशित कर देता है । गढे हुए बासे चरित्रों से अलहदा एक व्यक्ति
के किरदार में डाल देता है ।यह किरदार कमर कसता है । तैयार हो जाता है । मैं रोज ही रसोई
करती हूँ ।
चूल्हे में लगाये तैयार चैलो में करना ही क्या होता है । ढिबरी से दो बूँद मिट्टीतेल की टपकन ।
माचिस की तिल्ली की रगड़-घिस्स बस । देखो फिर लपट और चिंगारियों की फ़ैल ।
मैं यह फ़ैल संभालती हूँ ।उठती लपक को धीमा तेज कर संभालती हूँ ।
चैलो से चटकते अंगारा हुए कोयलों की बाराखडी सुनती हूँ ।
धुआँते चैलो,पटैलों में अपनी सारी शक्ति का संकुचन कर फुँकनी से भरपूर फूंक मारती हूँ ।
उनके अंतिम छोर पर उठते कुलबुलाते पानी की पीली बुदबुदाहट सुनती हूँ ।
चटकते अंगारों को जंगहे चिमटे से खींच कर बाहर धर देती हूँ राख और कोयला अलग कर
देती हूँ । अंगारे चूल्हे की चौपाल पर पंचो की मानिंद लहकते है । पानी की छींटे अंगारों की
अराजक खौल ठंडा देती है।सबकी अपनी-अपनी नियति है ।
बर्तन को है आंच पर चढ़ना, जलना और मंजना । कोयले को है फिर जलना । अदहन को है
पकना और रोटीको सिंकना । राख के हिस्से घूरा । धुएँ के हिस्से आसमान की उठान ।
बटलोई के हिल्ले है तपना, मंजना, घिसना और फिर चढ़ना ।
अदहन को धुलना है । पकना है । पेट भरना है ।लिखना जैसे जीवन के भूखे पेट को खानाखिलाना है ।
जले बासन-जूठे बासन मांजती है राख । करखा और जूठन धोती है । बासनो का मुँह चमकाती है।
चकमक,चमाचम । कविता राख की जाई चकमक है ।
घर में धुँआरा जरुरी होता है नहीं तो रसुइया धुँआ जाती है । धुँआ घर में भर जाए तो कुछ दिखता
नहीं सिवाय कसैलेपन के कोई स्वाद नहीं मिलता । धुँआरे मुक्ति है आसमान की ओर ।
पर धुँआरे की लंबी अँधेरी सुरंग धुएँ की पीठ रगड़ डालती है । छिली पीठ पर कालिख मल देती है ।फिर कहती है उडो अब । दिखाओ दुनियां को मुँह । उजालो और आसमान की तलाश में धुँआ
तड़पता है । ऐंठता है । अंधी सुरंगों से सर मारता है ।गुलमे और गूमड़ लिए जब सुरंग के छोरसे निकलता है तो फिर नहीं रुकता ।बस उठता और उड़ता है ।खूब फैलता है । सबको दिखता है । बंद करो दरवाजे-खिड़कियाँ या फिर अपनी आँखें ही क्यों ना !
उसने तो घुस ही आना है । सड़ी व्यवस्थाओ को रुलाना है । उसका लक्ष्य बंद जगहों से उठ जाना है ।उड़ना औरचुभना है ।लिखना धुँआ हैं मुक्ति है ।
मैं स्वयं से सवाल उठाती हूँ , क्यों, ऐसा क्यों है ?
मेरे अंदर घटितों का ग्रहण किस रूप में है , जो उन्हें ऐसे निरखता है परखता है ?
ऐसे अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होना क्या है ?
मैं क्या होना चाहती हूँ ?
मैं स्वयं को क्या मानती हूँ ?
मैं एक इकाई के रूप में स्वयं को व्यक्ति मानती हूँ । मैं व्यक्ति हूँ ।
तत्पश्चात यह व्यक्ति स्त्री है , बेटी है , बहन है , पत्नी है , माँ है , मित्र है , और भी बहुत कुछ है ।
जन्मना विशुद्ध रूप में मैं एक व्यक्ति हूँ । इस स्वरुप के चारों ओर कसी हुई सारी बुनावट
सामाजिक है । परिवेशिक है। गढ़ी हुई है । मेरे अंदर चीजों का ग्रहण व्यक्ति रूप में होता है ।वही निरखता है परखता है घटितों को ।
मैं व्यक्ति होने की अदम्य इच्छा और उसके विरोधी सतत दबावों के जीवन में हूँ ।
व्यक्ति होना , अस्तित्वमय होना , मेरा निजत्व है । यह मेरे अपने होने का स्तर है ।
मैं इस स्तर से कमतर किसी भी चीज को अस्वीकार करती हूँ ।
किसी भी रूप में निजत्व की क़तर-ब्यौंत सुलगाती है । यह सुलगन असंतोष उपजाती है और भूखा रखती है ।
लिखने का अर्थ मेरे लिए सवाल उठाना है और सवाल उत्तरयात्राओं के मार्ग खोजते है ।
व्यक्ति रूप में जीवन जीने की अदम्य इच्छा अपना मार्ग खोजती है ।
यह इच्छा स्वयं को लिखती है अनथक .....
***हेमा ***
लिखने के कारण वाजिब हैं और होने भी चाहिए। हममें से हरेक अपने को पहले व्यक्ति के रूप में ही पहचाने तो न जाने कितनी समस्याएं हल हो जाएं।
ReplyDeleteसवाल उठाते रहना बेहद महत्वपूर्ण है. जवाब आज नहीं तो कल मिलेंगे. अगली पीढ़ी देगी. सवाल न उठाने से एक पूरी की पूरी पीढ़ी गूंगी हो जाती है. दिशाहारा. लिखने का इससे अधिक वाजिब कारण दूसरा कोई हो भी नहीं सकता.
ReplyDeleteकविता के साथ ऐसे ही अच्छा गद्य भी लिखते रहना चाहिए।
ReplyDeletebahut sundar..badhaaii..
ReplyDeleteशब्दों,उनके अर्थ और चीज़ों के साथ आपके बर्ताव का जो देसीपन है, वह एक बेहद आत्मीय साहित्यिक चौगान की रचना करता है.यही आपकी भाषाई निजता है तो आपकी पहचान बनेगी.आपके अंदाज़ में कहें तो, अपनी लिखत बनाये रखियेगा.
ReplyDeleteबहुत अच्छा.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिख रही हैं आप
ReplyDeleteआत्मिक शुभकामनाएं ..
कभी कभी हम भी लिख रहे है
कुछ रचनाएं शब्दों की लकीर जैसी
कुछ अलमस्त फ़कीर जैसी शून्य
कुछ में गुंजन अनाद का
कुछ में आनंद नाद का
कही मुझमे मौन से शब्द बनरहे
तो कही मुखर अंतरचेष्ठाएं जन्म दे रही है अनश्वर मौन को
आदर सहित हमारे लिखे को साझा कर रहे है
स्वीकारिये
***********************************
और देखता हूँ
कभी-कभी
दो शब्दों के बीच के मौन में
उनके अंतराल में व्याप्त
अविनाशी परमात्म के
रोमांचित करते रूप
अकथन में सर्वदा से विद्यमान कथन को
और
सहज समाधि को
ठीक दो शब्दों के बीच के अनंत आकश में
मोक्ष के जैसे प्यारे मौन में छुपे शब्दों के अर्थ
जिनसे हम अक्सर वंचित रह जाते हैं
बोलतेजाने या केवल लिखते ही जाने के दौरान
देखता हूँ
अपने शब्दों को हाड़-मांस,चाम और क्षणिक प्राण दे
नश्वर को अमर बनाने की हडबडाहट
बचकानेपन
और जल्दबाजी में डूबते-उतराते शरीरों को
जो चूक जाते हैं
रचते जाते है शब्दों को
उघाड़ते जाते हैं अपने अवचेतन को
पन्नों पर
या अन्यों के अवचेतन पर
निःसार
एक दम
अर्थहीन
सत्य-विहीन
देखता हूँ
विराट शून्य की गोद में खिलखिलाते
एक नन्हे अबोध शून्य को
और एक विचार शून्य को
देखता हूँ
कभी-कभी
दो शब्दों के बीच में
मौन की गोद में
सोते
परम सारवान को
और देखता हूँ
मुखर को
दंभ रहित होते
शरणागत होते
मौन के समक्ष
वही-कही
कभी-कभी
संजीव गौतम
मुझे तो यह एक मुसलसल कविता जैसी लगी....हिन्दी के परिक्षेत्र में इन चिंताओं का इस तरह से प्रवेश शुभ है. इसे अनसुना नही किया जा सकता...
ReplyDeleteकिसी भी रूप में निजत्व की क़तर-ब्यौंत सुलगाती है । यह सुलगन असंतोष उपजाती है और भूखा रखती है ।
ReplyDeleteलिखने का अर्थ मेरे लिए सवाल उठाना है और सवाल उत्तरयात्राओं के मार्ग खोजते है ।............एक एक शब्द जैसे अंतस में उतर जाता है, और उद्वेलित कर देता है.....बहुत ही सार्थक और अर्थपूर्ण लेख है हेमा....किसी भी कविता से बढ़कर.........
aapke gadya main bhi kavita jaisi sarasata or gaharai hai. padate huye kavita sa aaswad prapt hota hai.लिखने का अर्थ मेरे लिए सवाल उठाना है yahi wah bindu hai jo aapake lekhan ko sarthakata pradan karega. jis vyawastha main sawal uthane ki unumati sharton ke sath hai wahna sawan uthana jaroori jimmedari ka hissa hai. isi tarah jari rahe aapaka lekhan.....
ReplyDeleteचूल्हे में लगाये तैयार चैलो में करना ही क्या होता है । ढिबरी से दो बूँद मिट्टीतेल की टपकन । माचिस की तिल्ली की रगड़-घिस्स बस । देखो फिर लपट और चिंगारियों की फ़ैल । बहुत खूब.. समाजिक आइना है यह लेख...! अपने आत्म-सम्मान में आवाज़ उठाता! एक चिंगारी..!
ReplyDeleteलेखन विचार और जीवन को नये आयाम देता है !
ReplyDeleteसाझा करने के लिए धन्यवाद !
गूंज उठी है रोज की दैनंदनी !! बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है , बधाई हो आपको !!!
ReplyDeleteवादा किया था न कि पढूंगी सो आज जरा सही से फुर्सत हुई तो तुम्हे पढ़ गई ..घर बार संभालती चूल्हा झौंकती स्त्री रचनाकारों पर उठे सवालों को जिस तरह का जबाब तुमने दिया है वह उसकी दशा दिशा और रचना कर्म की अनिवार्यता भी बता गया है ..बहुत उम्दा, हेमा स्नेह तुम्हे !
ReplyDeleteआप सभी लोगो का बहुत-बहुत आभार ...
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