Tuesday, May 6, 2014

आखिर क्यों ...

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आखिर क्या और कितना
चाह सकती है
बंद हथेली से कब का छूट चुकी उँगली सी देह वाली
किसी पुरानी किताब की गंध में
दबी पड़ी रह गई एक सिल्वर-फिश ...

कि बस बहुत थोड़ी सी ही तो
जरूरतें हुआ करती हैं ...

देखो वह और उतनी भी नहीं देखी और सुनी जाती है ...
क्यों किसलिए दौड़े चले चले जा रहे हो ...
कहाँ के लिए ...
किसके लिए ...

अपने-अपने हिस्से के
सच्चे झूठों की भुरभुरी पीठ पर लदे
अपने से अजनबी और बेहद अनजान ...

ठहरते हैं हम ...

ठीक उस क्षण -
जब अपने-अपने शवासनों के भीतर
मरे हुए आदमी के स्वांग से उकता कर
कोई ...
सचमुच ही उठ कर
शव में तब्दील हो जाता है ...


... कि अंततः छूट ही जाना होता है ...
........ क्यों जाना आखिर ऐसे ही जाना होता है ...


............. हेमा

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