Monday, February 18, 2013

बहिष्कृत ...




उस पल की मिट्टी
आज भी
मेरे जेहन में
उतनी ही और वैसी ही
ताज़ा और नम है
जैसे कि उस रोज
मेरी उँगलियों के
पोरों पर लिपट कर
उन्हें बेमतलब ही चूमते हुए थी
जब ...
मैंने तुम्हे बताया था कि
'मैं तुम्हारे प्रेम हूँ'
थामी हुई हथेलियों के
नीम बेहोश दबावों के मध्य
जाने कौन से और कैसे
हर्फ़ों में लिखा था तुमने
एक ऐसे
साथ का वचन पत्र
जिसकी दुनियाँ में
प्रेम की खारिज़ किस्मत
ताउम्र रोज़े पर थी ...

~~हेमा~~

Wednesday, February 13, 2013

क्या प्रेम अपनी ही कब्र में लेटा हुआ है ... ???

प्रेम की इतनी माँग ...
क्या प्रेम खो गया है ...
क्या प्रेम सो गया है ...
या फिर कही ऐसा तो नहीं कि वो मर ही गया है ...
वेलेंटाइन दिवस के मननीकरण के नाम पर लहरती पगलैट सी उठा-पटक निश्चित रूप से ऐसे ही प्रश्नों के तीव्र संवेग उठा रही है ..
ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे प्रेम अपनी कब्र में लेटा हुआ है. लुकाछिपी की नींद सो रहा है .हाथो से रूठा हुआ खो सा गया है .
लोग उसकी कब्र के आयत पर अपने खाली हाथो में मुट्ठी भर-भर मिटटी ले कर संतप्त है और उसकी मटियामेट मिट्टी को और खराब करने की होड़ में एक दूसरे को धकिया से रहे है.
एक अजीब सी बौखलाहट है. हर कही आपा-धापी मची है.
उसकी कब्र पर एक जबरदस्त मानीखेज बेहतरीन 'EPITAPH' लिखने की.
इतना बेहतरीन कि मरे हुए इस प्रेम को इसी बहाने अजर-अमर किया जा सके ...
इस कब्र के आर-पार स्मृतिचिन्हो के आदान प्रदान हेतु मेले से लगे दिख रहे है.
किसके चिन्ह कितने सुन्दर और अद्भुत है ऐसे जिनका कोई सानी ना हो की अनवरत खोज चल रही है.
क्या लोगो को ज्वरों में जीने और तप्त रहने की आदते पड़ गई है ...
प्रेम को एक खास मौसमी बुखार के हवाले कर उसका व्यवसायिक राग अलापने वाले सुरों का आलाप चल रहा है ...
स्मृति दिवसों और स्मृति चिन्हों के मध्य प्रेम आखिर तुम हो कहाँ और कुछ बोलते क्यों नहीं ...
गुलाबो,प्रतीक दिलों,केक,गुब्बारों और प्रेममयी ह्रदयचम्पित चीजों से दुकाने बाजार और मॉल पटे पड़े है.
सजे-धजे बाजारों और मॉलों से उठाई गई दिखावटी प्रेम की प्रदर्शनीय यादगारो की बटोरन टाँगे लोग जाने किन टैक्सियों से प्रेम के उतरने का इंतजार कर रहे है ...
तितलियों से भी ज्यादा रंगीन कौंधती लक-दक पन्नियों में लिपटे महंगे-महंगे
ब्राण्डेड उपहारों के बिना तो उसके अस्तित्व के प्रमाण ही ना जुटेंगे .
अब तो प्रेम का व्यापार करने और कराने वाले ही आपको बताएँगे कि आपके प्रेम को कैसे आकार लेना है. क्या गढ़ना है. किस राह जाना है . उसे कहाँ और कैसे जड़ा जाएगा ...
यह आयोजन और इनके चारों ओर बेकली में थिरकते झूठे उत्सव रचाते मोमबतिया रात्रिभोज करते लोग ...
क्या देख नहीं सकते अपनी लिपीपुती आँखों को खूब खोल कर एक बार ही सही ....
ऊपर विराट असीम नीले आसमान में वो जो अपनी छोटी बड़ी असंख्य, कभी मोम के आँसू ना रोने वाली शाश्वत रोशनियाँ बाले बैठा प्रेम ही तो है ...
अनवरत प्रतीक्षारत ...
सतत प्रवाही जीवन जिसमे सब कुछ गुजरता है चिरस्थायी प्रेम के सिवाय ...
वहाँ उसके नाम पर स्मृतिदिवस का मनाया जाना दीमको के महल के मानिंद खोखलेपन को दिखाने के सिवाय कुछ कर सकता है क्या ...

किसी मोड़ पर ...



घटनाएँ...
दीवानों की तरह
हर रोज़
एक नए पैरहन में
नई प्रेतात्माओं में
तब्दील हो जाती है ...
यूँ तो
ओझाओं,गुनियों और भगतों के
छाती पर
पाँव रख कर खड़े होने
और सोंटे मारने में
भरोसा था तो नहीं कभी ...
पर अब
इसके सिवाय
कोई उपाय भी तो नहीं ...

~~हेमा~~

उम्मीद ...



कम से कम
तुम को तो
मेरा यकीन करना ही चाहिए
बिना किसी
दुनियावी अहद के ...
तब
जब कि स्वयं
मैंने बताया था कि
आज धूप के हाथ
बेहद ठन्डे है ...

~~हेमा~~

 


Saturday, February 9, 2013

बेशीर्षक - ४ ...



यह तथ्यों की धरती है
इस पर सबूतों के
पुख्ता और घने
आसमान तने हैं
हर जीवन
एक कचहरी हुआ जाता है
जहाँ उजली राहों की बुशर्टों पर
काले कोटों की भरती है
इस कचहरी के
निरे दरवाजे हैं
जिधर घूम जाओ
उधर ही
एक प्रवेशक दिशा
दिख जाती है ,
इस पार-उस पार
बड़े-चौराहों-छोटे चौराहों
तिराहों पर
कुल जमापूंजियों के
अपने-अपने बस्ते
बाँधे खड़े है लोग

दौडाये जा रहे है
अपने-अपने
अर्जनों की
स्वायत्त दिखती
गुलाम गाडियाँ
किसी की ठण्डी
किसी की गर्म
किसी की आरामदेह
किसी की खच्चर हुई नब्ज़नाड़ियाँ

लगाए जा रहे सब
कहीं निचली-कहीं ऊँचीं
अदालतों की
पेशकारियों में
सफेदी पर रंगी गई
अपनी काली-नीली अर्जियाँ ...

सहती हैं जो
आपतियाँ-अनापत्तियाँ
या फिर
उड़ती निगाहों से
देखे भर जाने की सहियाँ ...

फर्जीवाड़ों के घूरों पर
ढेर है
'
' कोष्ठकों में कैद
स्थाई तौर पर
मुल्तवी इरादों की
बेईमान अर्जियाँ ...

अपने ही हाथों में
अपनी ही
फोटो कापियाँ उठाये
पल-पल रंग बदलती
गिरगिटिया नज़ीरों सी
अपनी ही पेशकश लिए
चलते है लोग ...
 
अक्सर ही ...
सिर्फ चलने भर को
चलते हैं लोग
कहीं नहीं पहुँचते लोग ...


~~~हेमा ~~~



( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )