Saturday, April 19, 2014

एक अधिकार अपने साथ दस दायित्व भी लाता है ...



ब्लॉग के मोडरेटर लोग काहे बात के लिए होते है ...
खाली लेखकों से तमाम विषयों पर लेखन सामग्री जुटाने और अपने ब्लॉग पर चेंपने भर के लिए ...
जो मिला जैसा मिला चेंप दिया और परोस दिया ... पाठक तो पढने को तरसा-टपका और भूखा बैठा है न ... और आप उस पर उसकी थाली में खाना फेंकने का अहसान करते है न ...
अक्सर ही वहां प्रस्तुत आलेखों, कविताओं,कहानियों, अनुवादों में वर्तनी और व्याकरण की बेहद गंभीर त्रुटियाँ विद्यमान होती है ... जो उन्हें पढने के प्रवाह और अर्थान्वयन दोनों में व्यवधान उत्पन्न करती है ...

क्या किसी के मन में यह सवाल नहीं उठता कि नेट के द्वारा उच्च तकनीक से संचालित इन ब्लोग्स और ई-पत्रिकाओं में ऐसा नही होना चाहिए ... यह कोई एक बार प्रिंट सो प्रिंट वाला मुद्दा नही है ... यह किसी भी समय अपने को संपादित कर सकते है ... पर नही करते है क्यों ...
यह एक बहुत बड़ा सवाल है कि इन्हें पाठकों की और अशुद्ध पाठ के अपने ही ब्लॉग पर मौजूद होने की जरा भी चिन्तना क्यों नही होती ...

भाषा और मात्राऔं की त्रुटियां तो कोई मायने ही न रखती हों जैसे.. और पुनरावलोकन तो कभी कोई करता ही नहीं...  एक बड़ा सवाल यह है कि लेखक के चूकने पर सुधार के सारे अधिकार और दायित्व किसके होंगे ...
उस सामग्री को अपने उस स्थापित किये ब्लॉग पर चिपकाने से पूर्व क्या उनका इतना भी दायित्व नही बनता कि वह लेखकों द्वारा की गई वर्तनी और व्याकरण की बेहद मामूली, प्रत्यक्ष और प्रथम दृष्टया ही दिखाई पड़ती त्रुटियों को भी दूर करने का साधारण सा प्रयास कर ले ...

बस मोडरेटर हो जाना और ब्लॉग में सामग्री लगाना भर उनकी अधिकार सीमा है ...

ब्लॉग एक बड़ी और स्थापित पत्रिका से कहीं अधिक बड़ी भूमिका अदा कर सकते है ... 
जो ब्लॉग साहित्यिक पत्रिकाओं की तरह चलाए जा रहे है उनके दायित्व साहित्यिक सरोकारों से परे नहीं हो सकते ...

एक बार सोच और समझ कर देखे कि उनकी यह लापरवाही पाठक और साहित्य के साथ क्या कहलाएगी ...

रानी की कहानी ...




यह भव्य मंदिर बुंदेलों की राजधानी ओरछा स्थित चतुर्भुज मंदिर है भक्तों से सूना ...

घंटनाद एवं आरती-पूजन ध्वनियों से बिलकुल अछूता सा निर्जन ...

यहाँ जाने पर मुझे सुबह-सुबह पुजारी भी नहीं मिले इसमें स्थापित विष्णु प्रतिमा तकरीबन उपेक्षित सी ही है ...

इस मंदिर के ठीक बगल में रनिवास है ... रानी गनेशी बाई / रानी गनेश गौरी का रनिवास ...

यह रनिवास ही वर्तमान में राम राजा मंदिर ओरछा के नाम से विख्यात है ...

चतुर्भुज मंदिर अपने बनने के पश्चात लम्बे अरसे तक बिना किसी देव-प्रतिमा एवं पूजा-अर्चना के यूँही पड़ा रहा उपेक्षित ... राजाओं की हठधर्मिताओं की एक कथा है जो मैंने वहाँ सुनी और उसकी परिणति भी देखी ...

कहते है कि रानी गनेशी बाई भगवान् राम की बहुत बड़ी भक्त थी वो उनके अराध्य थे ... और वह प्रत्येक वर्ष अयोध्या उनके दर्शनों के लिए जाया करती थी ...

परन्तु ओरछा नरेश मधुकर शाह कृष्ण भगवान् के परम भक्त थे वो उनके अराध्य थे और वह प्रत्येक वर्ष उनके दर्शनों हेतु मथुरा-वृन्दावन जाया करते थे ...

तो एक वर्ष ओरछा नरेश हठ पर उतरे कि रानी उनके साथ वृदावन चले उनके अराध्य कृष्ण की अराधना और दर्शनों हेतु ...

रानी ने कहा कि वह अपना अयोध्या जाने का क्रम भंग नही करना चाहती है और वे अपने इष्ट के दर्शनों हेतु अयोध्या अवश्य जायेंगी ... रानी के ऐसे स्वतंत्र और स्वायत्त वचन राजा को क्रोधित करने हेतु पर्याप्त थे ... उन्होंने रानी से कहा ठीक है जाओ और अब तुम अयोध्या ही जाओगी ... परन्तु वहां से ओरछा तब ही वापस आ सकोगी जब अपने इष्ट राम को अपनी गोद में बाल रूप में ले कर आओगी ...

ओरछा नरेश का मधुकर शाह का यह फरमान रानी के लिए एक प्रकार से उनसे सम्बन्ध-विच्छेद एवं ओरछा से निकाला ही था ...

कहते है दुखी एवं बेहद निराश रानी अयोध्या चली गई और वहां उन्होंने सरयू के किनारे कठोर तप किया परन्तु उनके इष्ट न आज प्रगट हुए न कल ...

जीवन, जगत और ओरछा तीनों से ही लगभग निष्काषित हताश रानी अपने प्राण त्यागने हेतु सरयू में कूद गई ...

कहा जाता है कि उन्हें नदी के प्रवाह में से निकालने के लिए जो लोग कूदें उन्होंने रानी को भगवान् राम के बालक रूप के साथ पाया और दोनों को बाहर निकाला ...

कहते है कि बाल राम ने रानी के साथ ओरछा आने की कुछ शर्ते रखी थी जिनमें से एक यह थी कि वह ओरछा में रहेंगे तो वही ओरछा में 'राम-राजा' कहलायेंगे अर्थात ओरछा के नरेश राम-राजा ...

दूसरी यह कि रानी एक बार उन्हें जहाँ रख देंगी वह वही आसीन हो जायेंगे ...

रानी उन्हें अपने साथ लेकर पूरी शान से ओरछा वापस आई और ओरछा नरेश से मिली ... ओरछा नरेश उनके अराध्य के बाल रूप पर और उनकी निष्ठा के समक्ष नत हुए ...

उन्होंने रानी से कहा कि मैं एक भव्य मंदिर प्रभु राम की स्थापना हेतु बनवाता हूँ तब तक तुम इन्हें रनिवास में रहने दो ...

रानी प्रसन्नता पूर्वक राजी हो गई ... प्रभु की पूजा-अर्चना और भोग रानी के शयनकक्ष में होने लगे ...
भव्य चतुर्भुज मंदिर बनकर तैयार होने पर प्रभु अपने वचनानुसार अपने प्रथम आसीन गृह से टस से मस नही हुए ...

ओरछा नरेश की सत्ता भव्यता के प्रतीक चतुर्भुज मंदिर को कभी भी आबाद कराने में समर्थ न हो सकी ...

ओरछा नरेश की प्रभुता सम्पन्नता उनके शयनकक्ष को ही उसी देव का होने से न रोक सकी जिनकी आराध्या होने के लिए उन्होंने अपनी राजमहिषी को अपने शासित राज्य से लगभग निष्काषित कर दिया था ...

जिस रनिवास एवं शयनकक्ष में सिर्फ ओरछा नरेश ही प्रवेश पा सकते थे ... उस समय के चलन को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि परिंदे को भी रनिवास में पर मारने से पहले राजाज्ञा लेनी पड़ती होगी ... वहाँ ओरछा के राम-राजा बैठ गए थे ... और उनके जरिये अति साधारण प्रजाजन भी प्रवेश पा गए थे ... वहां अब ओरछाधीश राम-राजा सरकार अपनी सम्पूर्ण सत्ता में विराजे थे/है ...


मुद्दा-ए-विमर्श : कौन जाने शर्ते प्रभु की थी या फिर प्रभु की ओट में ओरछा नरेश की राजाज्ञा से
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पीड़ित रानी की ...
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डुबकियों के बहाने से ...




.... तो देखिये हुआ यूँ कि पानी तो था बहुत ठंडा ... इस मौसम में भी कुल्फी जमाने के लिए पर्याप्त ... लेकिन बयाना तो हम ले ही गए थे डुबकने का ...
सो हमने सब दोस्तों के नाम की तीन सामूहिक डुबकियाँ लगाई ...

तीन इसलिए कि एक तो हम थोड़े नालायक प्रकार के है ... बचपन से मनाही रही कोई भी शुभ काम तीन बार नहीं करना है ... तो हम बहुत सारे काम तीन ही बार करते चले आ रहे है ... जैसे हम सब्जी में नमक,हल्दी,मिर्च,अदि सभी कुछ तीन बार डालते है ...

दाल-चावल तीन-तीन मुट्ठी निकालेंगे ... चाय में पत्ती,चीनी दूध, पानी सब ही ऐसे पड़ती है कि तीन बार हो ही जाए ... एक वक़्त में घर में बनाई जाने वाली १२ रोटी की जगह तेरह रोटी बनाई जाती है ...

अधिकाँश कामों को जिनमें शुभ-अशुभ के विचार से सँख्या योग के हिसाब से कार्य करने होते थे सब मैंने बिगाड़ कर रखे ... सब्जी दाल चावल हर चीज दोहरा कर परोसने की हिदायत हुआ करती थी ... पर आदत और हठ ऐसी ठहर गई थी कि सब तीन ही बार परोसे जाते थे ...
डांट ,धौल-धप्पे गाहे-बगाहे चलते रहे पर हम यह शुभ-अशुभ के हर विचार का तियाँ-पाँचा कर ही डालते थे और आज तक हर चीज़ में तीन-तेरह कर ही देते है ...

अरे हाँ संदेशिया बक्से में दो मित्रों के अनुरोध थे उनके नाम पर प्रसाद लाने के और चढाने के ...
सो आज मौका पड़ा है तो बता देते है कि मंदिरों में हमारा आना-जाना हमने अपनी किशोरावस्था में ही प्रसाद और फूल-पत्ती की डलिया-दुन्नैया के साथ स्वत: प्रेरणा से बंद कर दिया था ... मंदिरों की भीड़-भाड़ में होने वाली अनुचित छेड़-छाड़ और नोच-खसोट की दुर्दशा से बचने के लिए उठाया गया यह कदम मेरी आज की गढ़न में एक बेहद अहम् एवं आधारभूत कदम सिद्ध हुआ ...

भव्य-खूबसूरत मोहिनी मूर्तियों, उनके स्थापत्य आदि के दर्शनों के लिए जरूर जाते है ...
हाँ उनसे जुड़ी कहानियाँ इत्यादि भी हमें खूब भाती है ...

अत: आप अपनी श्रृद्धा से मुझे पापी दोस्त की श्रेणी में रख सकते है ... इसका मैं कभी बुरा नहीं मानने वाली ... पर हम किसी भी मंदिर में पूजा या मनोकामना की दृष्टि से कभी भी नहीं जाते ... और प्रसाद आदि नही चढाते है तो लाने का सवाल भी नहीं उठता ...

वैसे ज्यादा बड़ी पोस्ट दो-चार दिन रुक कर लिखेंगे ...
आज तो बस इतना बताए देते है कि हरि-द्वार में इस बार पहुँचने पर हमने देखा कि धर्म और मोक्ष के नाम पर किसी शहर को किस कदर रौंदा जा सकता है ... और तकरीबन मौत के घाट कैसे उतारा जा सकता है ...

यह तस्वीर रात लगभग साढ़े दस बजे की है दिन भर और शाम में भी पूरनमासी (पूर्णिमा) स्नान के कारण बेहद भीड़ थी और मैं ऐसे विशिष्ट अवसरों या त्योहारों आदि पर धामिक स्थलों या घाटों पर कतई नही जाती हूँ ... अनुभवों ने सिखाया कि बचाव ,तकलीफ मोल ले लेने पर निदान से बेहतर है ...

आज हमारे शब्दों पर भाषा पर खूब जाएँ ... जो लिखा है उसके एक-एक शब्द का अर्थ वो ही है जो आपने समझा है ...




एक लेखक और लेखिका साथ खड़े हो कर दो चार बाते कर लिए ...

एक प्रकाशक और लेखिका साथ खड़े हो कर बतिया और दो चार बार मुस्कुरा लिए ...

एक लेखिका अपने मित्रों और पाठकों से हाथ मिला ली एकाध लोगो से गले मिल ली ...

एक नवोदित लेखिका अपने दूर दराज के शहर से आये लेखक मित्र के लिए खाना ले आई ...

पहली बार मिले फेसबुक लेखक-लेखिकाएं साथ बैठ कर चाय-शाय पी लिए ...

प्रकाशक-लेखक-फेसबुक मित्रों के साथ लेखिकाओं ने मुस्कुरा कर अगल-बगल खड़े हो कर कंधे पर हाथ रख कर तस्वीरें खिंचवा ली ...

बरसों से सोशल मीडिया पर रोज दिन में पिच्चासी बार एक दूसरे से मिलने और जीवन की हर छोटी बड़ी बात में साझीदार होने के बाद मिलने पर हुलस कर हाथ थाम लेना ... या उमड़ कर गले लग जाना ...

यह सब आपसे देखा नहीं न जा रहा है तो अपनी आँखे बंद कर लीजिये ...

आप बड़े साहित्यकार होंगे अपने घर के ...

अपनी इतर संबंधों और दोनों के बीच कुछ तो चल रहा है वाली गलीज सोच की नाक दो इंसानों के खूबसूरत संबंधों में स्त्री-पुरुष के खाके के नाम पर न ही घुसाए तो बेहतर होगा ...

दो लोगो को दो बेहतरीन इंसानों की तरह खुल कर खिल कर मिलने दें ...

और हाँ यदि आप अपनी सोच बदलेंगे नहीं और यह इतर संबंधों की खिचड़ी पकाने वाली और अपनी गपडचौथ का रायता फैलाने की ठेकेदारी उठाने वाली नाक की लम्बाई कम नहीं करेंगे और ऐसे ही घुसाते रहेंगे ...

तो बताए देते है जिस रोज मेरे हत्थे चढ़ गए ... आपकी यह ठेकेदारी वाली नाक तोड़ देंगे और पटक कर मारेंगे सो अलग ... वो भी फेसबुक की पोस्ट पर आभासी तौर पर नहीं ... दुनियां के 'मेले' में बीचों-बीच ...
दुनियां में अपने दम पर कायम है ... आपके पिताजी का दिया नहीं खाते है ... महसूस कर रही है...

कच्चा-पक्का ...

 
 
विवाहित स्त्रियों को जन्म-जन्मान्तर के संबंध की अवधारणा पकड़ा दी गई है ... सात जन्मों के पक्के से पक्के वाले संबंध की ... और उसी की कामना के लपेटे में चीज़ों को देखने की आँख ...
अगले पल का इस जीवन में आपको पता और उस पर नियंत्रण नहीं होता ... अगला जनम तो बहुत दूर की कौड़ी है ...
इस जन्म के जिए जा रहे पलों को तमीज़ से इंसानों की तरह जीते हुए ये कहने की हिम्मत ले आओ कि "यही तुम्हारा सातवाँ जनम है ... तुम सारे जन्मों से भर पाई अब तरने की इच्छा है ..."
निन्यानवे का फेर ... महसूस कर रही है.

चिंता ...




भविष्य के इतिहास की कोई एक पंक्ति ऐसे लिखी जायेगी ,"कभी पृथ्वी पर बेहद कोमल हृदय वाली एक प्रजाति हुआ करती थी जिसको स्त्री के नाम से जाना जाता था ... अत्यधिक दोहन, सतत उपेक्षा, अनाचार एवं पितृसत्ताओं की 'गलतियों' के भुगतमान के चलते वह विलुप्त हो गई ." ... 

खतरें में पडी विलुप्तप्राय प्रजाति ... महसूस कर रही है ...