Thursday, June 23, 2011

.....आधार ...


एक साल में
एक माह है कम
चुप बैठे सोचते रहे हम
यूँही देखते रहे हम
बीते दिनों की सिकुड़ी झुर्रियाँ
फिर अचानक
झपट कर
ले अंजुरी दर अंजुरी
देह को पिलाई
तेज,सख्त धूप
आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
और पी लिया,
रौशनी का
चढ़ता हर भाव
फिर दौड़ कर
हाँफते हुए ले ली -
ढेरो कपास के नीचे पनाह
हर प्राप्य - आधार है
गर्म या सर्द
भीगा या नम
कोमल या कठोर
कुछ भी नहीं खोना चाहती मै!!




***हेमा***

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7 comments:

  1. देह को पिलाई
    तेज,सख्त धूप
    आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
    और पी लिया,
    रौशनी का
    चढ़ता हर भाव ....यहाँ आकर कविता जम के जमी ..बढ़िया, हेमा बधाई

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  2. "हर प्राप्य-आधार है
    गर्म या सर्द
    भीगा या नम
    कोमल या कठोर
    कुछ भी नहीं खोना चाहती मैं."
    खोना भी क्यों चाहिए, कुछ भी !
    अच्छा भाव-संयोजन है.

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  3. आभार मोहन सर ,आभार वंदना दी ..

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  4. "खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
    केवल जिल्द बदलती पोथी
    जैसे रात उतार चाँदनी
    पहने सुबह धूप की धोती"
    - (गोपालदास नीरज जी)

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  5. Bahut khuub,Hemaji.
    बीते दिनों की सिकुड़ी झुर्रियाँ
    aur
    गर्म या सर्द/भीगा या नम
    कोमल या कठोर/कुछ भी नहीं खोना चाहती मै!!
    ka koi javab naheen.
    Aik behtreen kavita ke liye badhai.
    -Meethesh Nirmohi,Jodhpur.

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  6. फिर अचानक
    झपट कर
    ले अंजुरी दर अंजुरी
    देह को पिलाई
    तेज,सख्त धूप
    आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
    और पी लिया,
    रौशनी का
    चढ़ता हर भाव....वाह! हेमा जी क्या खूब लिखती है आप... बधाई स्वीकारे ....आप के ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा ....

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  7. हर अनुभव का कुछ न कुछ मूल्य है और वह कुछ दी जाता है ! अच्छा भाव है कविता का ! बधाई हेमा जी !

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