Wednesday, August 24, 2011

24.08.2011

तीन सौ पैसठ अंको के
हर कोण पर
उठता है
वर्चस्व और सर्वशक्तिमानता का
निर्मम सैलाब,
सर तक रोज डूबता है
एक अस्तित्व का
दूसरे की सत्ता में
कैसे तो भी
बचे रहने का
छटपटाता दृंद,
उस में समंदर है भयावह बदरंग
दाँतो की किटकिटाहट
अकल्पनीय दृश्य, वीभत्सता,विद्रूपता
और लात- घूंसों की
आसुरी मुद्रा के मध्य
लपकती है अष्टभुजी
मादरी गालियों की दबंगई
दैनिक सुनामी गर्जना में
रोज ही याद आता है
बचपन में देखा
सुरसा का मुख
उसी की बनायीं सत्ता
निगल जाती है
उसी की इयत्ता
रोज मरती और जन्मती
पांच गजी धोती में
बिना एक अंगुली से भी छुए
रोज होती है बलात्कृत
चाहरदीवारी के मध्य संरक्षित
सर से पाँव तक लदी-फंदी
घूमती है निर्वस्त्र
मुंह टेढ़ी बालियाँ ,
टूटी चूडियो की बुहारन ,
दो -चार बूँद टपका सूखा रक्त
साक्षी हो भी तो
किसके विरुद्ध
और किस बात का
मरे हुए चेहरे से
टपके जिन्दा आंसुओं से
कोई ख़ाक हुआ है क्या कभी !!
***हेमा***

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3 comments:

  1. " लेखनी चुप है हृदय की
    बीन पर है मातमी धुन "... गीता पंडित

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  2. "टूटी चूडियो की बुहारन ,
    दो -चार बूँद टपका सूखा रक्त
    साक्षी हो भी तो
    किसके विरुद्ध
    और किस बात का
    मरे हुए चेहरे से
    टपके जिन्दा आंसुओं से
    कोई ख़ाक हुआ है क्या कभी !!" बेबसी का अच्छा चित्रण है.

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  3. चाहरदीवारी के मध्य संरक्षित
    सर से पाँव तक लदी-फंदी
    घूमती है निर्वस्त्र -----देखने का अदभुत नजरिया शुक्रिया

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