Monday, October 3, 2011

यूँ तो सब कुछ पूर्ववत है ..

आजकल
मेरे ख्यालो में
रोज ही रोज चली आती है
जो दौड़ती रहती थी
यहाँ सड़को पर
किसी पागल मोटर साइकिल की तरह,
कोई भी उसे छेड़ कर
मरोड़ देता था उसका
गिड़-बिड़ भाषाई होर्न
बरसो से बिना धुले जट्ट
गर्द सने बालों
और चीकट कपड़ो के साथ
कोंची जाती थी दिन भर
देह और बावरे मन के
हर कोने पर,
राह गुजरते ऐरे-गैरे इंसान
दाग देते थे उस पर
अपनी निर्दयता के नीले चिमोटे
उसकी बिलबिलाहट में थी
तमाम मर्दानी गालियाँ,
चाय की दुकानों पर बैठे लोग
चाय के कपो और
धुओं के छल्लो के संग
उसकी चुस्की लेते थे और
पी जाते थे
खुलेआम
सार्वजनिक स्थल पर
एक सार्वजनिक स्त्री,
पटिया बाजी के शौक़ीन
रोज छीनते थे
उसके कंधो पर लदी
उसकी जिंदगी की गठरी
बिखेर डालते थे वे
उसके गिने चुने रिश्तों की जमा पूंजी
एक रोज मैंने सुना था
उसे कहते कि
गठरी में है उसके
माँ-बाप,पति और बच्चे
खुल कर बिखरने पर देखा था मैंने
कि वहाँ तो है
कूड़े के ढेर से बीने हुए लत्ते,
चीथड़े,एक टुकड़ा आईना,
गिनेचुने दांतों का आधा कंघा
अपना संसार दरकने पर वह
रोती ,अजीब सी आवाजे निकालती
लोगो को दौड़ाती
पत्थर फेंकती,
सरकारी पार्क की तरह
कोई भी कर सकता था
उस पर अवैध कब्ज़ा
बिलएवज एक रुपया ,
दो जलेबी ,एक समोसा
या फिर दिखा-दिखा कर
ललचाते दो कचौड़ी,
छोटे से शहर के
भद्र इलाके का
चलता -फिरता
सार्वजनिक शौचालय
बिना किसी पूर्व सूचना के
एक दिन अचानक
विलुप्त हो गया
यूँ तो सब कुछ
पूर्ववत है
पर उस 'स्त्री'
(पगली नहीं )
के बिना
अजीब सा खालीपन है ...........




***हेमा ***

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13 comments:

  1. मार्मिक ..उदास करती कविता ..सस्नेह शुभकामनाएँ हेमा !

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  2. "Yuun to sab kuch puurvvat hai" kavita Bheettar tak hila gayee.Saghan anubhuutiyon se paripuuran aapkee yah marmik kavita aik arse tak mere smriti-lok men khadbadatee rahegee. Badhai.

    Meethesh Nirmohi,Ummaid Chowk, Jodhpur[Rajasthan].

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  3. atyant hi marmik aur hridaysparshi kawita......

    aapki is kawita mein "nirala ji " ki " bhikshuk" aur " todti patthar " jaisi kawitaon ki jhalak milti hai....

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  4. आपकी कतिपय रचनाओं में नारी प्रताड़ना के विरुद्ध गहन आक्रोश के तेवर प्रयोग-धर्मी भाषा के प्रवाह में देख कर आपकी सृजनात्मक प्रतिभा का अनुमान सहज ही हुआ। कुछ भाषा लिपि के विन्यास सुधारने की ज़रूरत है। शैली आपकी है - समर्थ है - आप गद्यात्मक पद्य लिखती हैं। आप पर छायावादी और उग्र कवियों का प्रभाव स्पष्ट ही दीखता है। किन्तु मेरा मानना है कि जब शब्द बहुत मुखर हो जाते हैं तब चिंतन शिथिल हो जाता है। कविताओं का क्रन्तिकारी प्रभाव तभी होता है जब वे जन मन की वाणी बनें - केवल अपना उद्वेलन नहीं।

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  5. आखिरी तीन पंक्तियां, वाह ! पहले का सब तो जैसे इन तीन पंक्तियों के लिए वातावरण निर्मित करने का निमित्त भर था. अच्छी कविता है, हेमा. बधाई.

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  6. behtareen rachna !kathya aur bimb ke star par itne marmik bhav ko sambhal pana sachmuch prasanshniya hai .badhai aapko!

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  7. ये खालीपन समाज को क्यों है ? संवेदन हीन और निर्मम समाज की अठखेलियों का समान जो छिन गया ? शायद पगली से ज्यादा समाज को इलाज़ और सहानुभूति की जरुरत है ! बधाई हेमा जी ! प्रासंगिक रचना !

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  8. ........................
    ........................
    ठीक ...ठीकरा... ठोकर

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  9. sorry... kavita ki jgah maine kavitayen kar diya tha... mohan ji aur brjesh ji se me bhi sahmt rakhta hoon...

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  10. संवेदनशील मन की बात!

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