Sunday, October 9, 2011

घर.......

टूटे बिखरे मन के
कच्चे कूलों का
ब्याह रचाया
दो वस्त्रो का गठबंधन
सिन्दूरी रंगत
मांग भरी-
आह,स्याह छाया
माहुर लगे
बिछुआ सजे पाँव
सबके मन भाये
पर,धान को
परे धकेल
आगे बढ़ते
पावो तले
आदर्शो की
सावली पड़ती
रुपहली काया
कोई देख न पाया
औंस की बूंदो सी लड़ी
हवा और भीनी खुशबू
प्रतिबिम्ब छुआ
बाहों में लिया
पर मन को
कोई बंध कही
कहाँ लगाया,
सपनों की मरी काया
कपडे-लत्ते
गहने-गुरिया
ढेरो-ढेर सामान
इतना अर्जन
यहाँ से वहा तक
कमरों में गया सजाया
इस दीवार से उस दीवार तक
-जाते-
-एकटक-
-अपलक-
घूरते
सबकी दुलारी
पगली छोटी
तुझको-
घर क्यों नहीं दिख पाया!
*** हेमा ***

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2 comments:

  1. बहुत मासूम भाव हैं.... लिखते रहें...मेरी शुभकामनाएं...

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  2. अच्छा लिखा है...इसमें दर्द,दुविधा और दास्तान भी है.

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