Sunday, June 26, 2011

कितना कुछ


मन इतने बरस बीते 
देखते तेरा बहाव
बाढ़-उफान 
घटाव-चढ़ाव
यहाँ  जमे पत्थरो ने
सहे जाने कितने घाव
उनकी भस्म रेत पर
स्वच्छता में     
जाने कितने ही 
धो कर चले गए
अपने मैले-कुचैले पाँव 
बाँध, अपनी-अपनी गठरी
कुछ फेंक गए
पूजा के फूल 
और कुछ अपने पापों के 
जोड़े गए
तमामो शूल ,
जेठ की तपती दुपहरी
दे गयी धूल के अंगार ,
कई बार कतरे गए
सफ़ेद पंख मर गए
बगैर छोड़े अपने
कोई भी निशाँ
लालची हारी निगाहें 
छोड़ गयी अपने 
लोभ-क्षोभ के भाव,
कितना कुछ - कितना कुछ मन 
असीम सीमाहीन
देखा नहीं कहीं कभी तुझमे
एक बिंदुमात्र भी ठहराव !!
 

                           *** हेमा ***






   









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सुंनो ये उठती ध्वनियाँ


यह प्रारंभ के दिवस है
धूप फेंकी है सूरज ने 
मेरी जड़ी खिड़की पर छपाक,
चौड़ी मुसी सफेदी
किनारी पतली लाल
अंध केशो पर टिकी
तुमको कैसे मालुम
अन्दर बेचैन अंधेरो में
रौशनी की भूख 
जाग आई है
सुनो, देखो
उतार फेंको 
कमल के फूलो का  खूबसूरत
यह आबनूसी चोला 
सुनो-
इस हलकी चमक से 
उठती ध्वनियाँ
स्थगित मत कर निरखना 
धूप की मुस्कान
साध तू व्याप्त  आज्ञापकों का अराध्य 
यह प्रारंभ के दिवस है
तुमको नहीं मालुम
यह मेरे - तुम्हारे 
वशीकरण के दिन है !!      




                       *** हेमा ***

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कोई तो बताए


 क्या बाँध कर रक्खूं
अपनी चोटी  के फीतों में
कमरों से झाड़ी धूल
तोड़े हुए
मकड़ी के घर या
कुचली हुई उनकी लाशें
रसोई में पकते
खाने की महक
या बेकार में पढ़ी
कानून की किताबो की धाराए
बताओगे नहीं कभी क्या
बाँध कर रक्खू क्या
अपनी चोटी के
फीतों में !!


                            ***हेमा***


     

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Saturday, June 25, 2011

'गंतव्य'


  
चीखने को तैयार 
जड़ो में कसी माटी तुम 
शब्द कोमलतम ,
चुभन इतनी
पूछो मत ऐसे 
कहाँ-कहाँ 
चिनगारियो की भीड़,
तमाम फफोले,
दाग नहीं पड़ते कहीं यहाँ
कब तक रहेगा 
यही तुम्हारे श्रृंगार का सामान
घनी काली पलकें,अँधेरी
कब तक समेट पाएंगी,धुआं
गंतव्य एक ही बिंदु
शीर्ष है जहाँ  अग्निशिखा
यह मौन का गर्भाशय
और पनपता धुँआ
 ऊँचे और ऊँचे
फैलो और फैलो
हो तुम आकाश से विराट
चुभो और इतना चुभो
आँखों में यहाँ
की महसूस हो तीखापन
जले हुए मेरे सम्मान की
रुलाई का कसैलापन
ले कर फफोले और
तुम्हारा कराया श्रृंगार 
जीना है मुझे बिना किसी दाग!!
                                                *** हेमा ***

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Friday, June 24, 2011

भ्रम

सुरमा,पान की लाली
एक महकता छोटा सूरज 
अंगुली का उपरी सिरा
था जिसे मध्य में टीपता
दो हाथ
कुछ खनखनाता संगीत,
एक में 
गृहस्थी का सुर्ख गुलाब
एक में पानदान
स्वयं तुम्हारी नजरे कहती
'तुम तो शाह हो बानू'
और तुम्हारा दिल
हामी भरता
छियालिस बेदर्दी और बेरहमी से
तराशे,रत्नों जड़े 
सधे हाथो से ढले 
नून ,तेल , लकड़ी
और कुछ
शामिलाती जीवित अक्सो के
तख़्त-ओ-ताज  की
नाजुक मलिका
तुम ही शाह थी बानू?
वही ना जिसने चढ़ी
राजधानी में
सर्वोच्च न्याय स्थल की
समस्त सीढ़िया
और पाया अपना
जबरन छीना हुआ हक
पर तुम 
जंगलो में जीने वालो को
नहीं जान पाई
नए नियम बानू,
हाँ , नए नियम
तुम्हारी जैसी 
सीढ़िया चढ़ती बानुओ के
पंख कतरने को
रच डाले,
बानुओ की गृहस्थी के विधाताओ ने
निगल लिया तुम्हारा
पाया हुआ हक,
सुरमा लगाए 
सदियों से कलपती  
छाती कूटती
किस,सुर्ख भ्रम की
खुशबु में
तुम आज भी 
शाह हो बानू!!


                ***हेमा***
     
  
  

  
         

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Thursday, June 23, 2011

बदलता कौन है बुद्धू !

बदलता कौन है बुद्धू!
हर आँख
वहीं की वहीं
वैसी की वैसी ही
पड़ी रहती है,बस 
अनुभवग्रस्त
विचारों की पीढ़िया
चढ़ती रहती है,निरंतर ,अपनी
कभी पूर्वनियत-कभी अनियत
सीढ़िया दर सीढ़िया
और,पनपती जाती है
ज़िन्दगी के माथे पर
उनकी जिद्द के
शुद्ध,लाल तिलको की
अशुद्ध रीतियाँ
और वक़्त दर वक़्त
जीत की समझ की कथाएं
बदल डालती है
जय-विजय की
भाषा का हर पता
पराजयों की
संतुलित भाषा में!!  



                      ***हेमा***


























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.....आधार ...


एक साल में
एक माह है कम
चुप बैठे सोचते रहे हम
यूँही देखते रहे हम
बीते दिनों की सिकुड़ी झुर्रियाँ
फिर अचानक
झपट कर
ले अंजुरी दर अंजुरी
देह को पिलाई
तेज,सख्त धूप
आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
और पी लिया,
रौशनी का
चढ़ता हर भाव
फिर दौड़ कर
हाँफते हुए ले ली -
ढेरो कपास के नीचे पनाह
हर प्राप्य - आधार है
गर्म या सर्द
भीगा या नम
कोमल या कठोर
कुछ भी नहीं खोना चाहती मै!!




***हेमा***

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