Tuesday, February 11, 2014

आमी जाज़ोबर ...


हर शहर में घर सा मेरा एक ठिया होना चाहिए ...
आज, कल ,परसों या बरसों में -
जब कभी भी मैं पहुँच पाऊं मेरे इन्तजार में बैठा हुआ सा ...

मुझे होटल कभी रास नहीं आये ...

बेगाने , ठन्डे , हाथों वालें कमरें , बेजान रंगों झूठ बोलती तस्वीरों वाली दरों-दीवारें ...
मुझ से मुसाफिर को प्लास्टिक के फूल ,पोलीथिन में भरे स्वाद ,रिश्ते और छायाएँ रास आने भी क्यों चाहिए ...

कौन जाने फिर मुझे अजनबी शहर क्यों ऐसे इस तरह और इतना रास आते है ...

उनकी सड़के ,गलियां ,नदी ,तालाब, घर, लोग पीठ पर बस्ता टाँगे स्कूल जाते लौटते ताज़ा-निचुड़े बच्चे , बस स्टॉप, गाड़ियाँ, दुकाने, बाजार, अलग-अलग नामधारी चौराहे,तिराहे ओवेरब्रिज , तीखे मोड़ , काली-सफ़ेद धारों पर भागते पैदल राही, गाय-गोबर और अपना इलाका पार करा कर विदा कहते दुश्मन से दोस्त कुत्ते, बालकनी और छज्जों पर सूखते तमाम रंगों का आईना दिखाते कपड़े , मुंह उठा मुझे ताकते गमले और पौधे , भागते रास्तों पर यूँही पड़ जाते पार्क और सूखे मालों के साथ घाम तापती मूर्तियाँ ... गौर से देखते मुस्कुरा उठते हुए मैं क्या खोज सकती हूँ ...

कैसे बता सकती हूँ शब्दों में मैं कि किसी ऐंठी हुई लकड़ी की बेंच पर बैठ चाय का हलके हरे शीशे वाला ग्लास हाथ में लेते ही उसकी उठती हुई भाप की लकीर कैसे मुझे कभी जंगल में बसे रहे उस बेंच के घर तक ले जाती है ... घर ... उसका घर ... गहन ... घनी हरी ठन्डी छाँव वाला घर ...

... कमरे में आई ... फ्लास्क में बंद चाय ... होटल के प्यालों की चाय कहीं नहीं ले जाती

लोगो ,जगहों और चीजों को सुबह-शाम के श्वेत-श्याम तस्वीर के फ्रेम में ठहरा कर देखने के लिए कुछ दिन और कुछ लम्हों के झोले कितने छोटे पड़ते है मुझे ...

हाथों की दुनैय्या के नीचे से तेज धूप में चमचमाते आसमान और झिलमिलाते पेड़ों की छतों पर पलके उठा कर आँखों के रास्ते दौड़ जाना ...

अपनी एक यात्रा पर निकलना अपने नजरिये से उसकी इमारतों,उसके लोगो, उसकी दौड़ती-भागती हलचलों-धडकनों को एफ.एम. की तरह अपनी सोची हुई तर्जों पर गुनगुना कर देखना और अपने साथ चलते हुए बजते रहने के लिए छोड़ देना ...

कितना अच्छा है न किसी शहर के जूतों में अपने पाँव घुसाना ...

उसके भूत ... भविष्य ... और वर्तमान में ऐसे और इतना उतरना कि सब अपना हो जाए ...
वो बेगानेपन से अपनी किसी इमारत का ऊँचा सर झुका कर मुझे न देखे एक अजनबी आँख से ... और न पूछ सके तुम कौन ... कहाँ से आये हो ... क्या काम है यहाँ तुम्हारा ...
मुझे कैसे तो भी लाख सर पटकने पर भी पराया न घोषित कर सके ...

एक शहर के सपनो की आँख में उतरना ...

ऐसे जैसे पलकों के नीचे बैठे काजल की एक फ़ैली हुई रेखा ...

मुझे पता है शहर और जगहें मेरा इन्तजार करते है ...

अपने कमरे में मौजूद हूँ ... पर कंधे पर अपना नामौजूद बैग हर पल टाँगे बस एक मुसाफिर ही हूँ मैं ...

मुझे हर शहर में अपना एक छोटा सा हिस्सा ही तो चाहिए बस ...

सुनते है कि दिल्ली भी एक शहर है ...

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