"लड़कियों की अक्ल
घुटनों में होती है "
घुटनों में सिर गाड़े
डूबती है
मोटी 'निषिद्ध पोथियों' में
सिर उठाती है
और देखती है
तुम्हारे दिये
बासे ,सदियों पुराने ,
संचित , गाढ़े 'प्रेमचिन्ह'
समझती है
'चिन्हित न्याय दर्शनों ' की
दागी हुई व्याख्याएँ,
पढ़ती है सस्वर
अपनी मूक ऋचाएँ,
मुस्कुराती है
और लेती है संकल्प संन्यास
एक ही झटके में
करती है खड्ग प्रहार
खुरच कर
उखाड फेंकती है
अपनी ही देह पर आरूढ़
तुम्हारी वासनाओं की
दुर्दम्य वसीयते ,
अब पहनने भर को
पहनते रहिये
अपने प्रेम के उन्मादी लबादे
अब लिखने भर को
लिखते रहिये
अपनी अट्टालिकाओं पर उसके नाम
देखिये -
सूखे हुए है
अपने ही घावों पर रखने को
नमियो के फाहे यहाँ ,
प्रेम चिन्हों को
खुरचने से जागी सुर्खिया
बहती है तान कर
अपनी दुर्वासा भृकुटियाँ
घर के दरवाजे से
मुख्य सड़क तक...
तंग सँकरी गलियों से
फर्राटे से गुजर जाती है
वस्त्रों की आवारगी को
वह अब नहीं संभालती
उनके मुसेपन पर नहीं फेरती
अपनी ताज़ी हथेलियाँ
बेपरवाह हँसती है
चटक, नौबजिया सी खिलती है
तुम्हारी आँखों का आईना नहीं देखती
कमअक्ल,
अपने पैरों पर सीधे चलती है
घुसपैठियों सी
तुम्हारी सुरक्षा चौकियों को धता बताती
पिछले दरवाजे की
साँकल उतार
मुँह अँधेरे
घर से निकलते
वह दुपट्टा नहीं
अब आधा चाँद ही ओढ़ती है .....
इसलिए -
वह वापस नहीं लौटती !!!!
***हेमा ***
( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )
घुटनों में होती है "
घुटनों में सिर गाड़े
डूबती है
मोटी 'निषिद्ध पोथियों' में
सिर उठाती है
और देखती है
तुम्हारे दिये
बासे ,सदियों पुराने ,
संचित , गाढ़े 'प्रेमचिन्ह'
समझती है
'चिन्हित न्याय दर्शनों ' की
दागी हुई व्याख्याएँ,
पढ़ती है सस्वर
अपनी मूक ऋचाएँ,
मुस्कुराती है
और लेती है संकल्प संन्यास
एक ही झटके में
करती है खड्ग प्रहार
खुरच कर
उखाड फेंकती है
अपनी ही देह पर आरूढ़
तुम्हारी वासनाओं की
दुर्दम्य वसीयते ,
अब पहनने भर को
पहनते रहिये
अपने प्रेम के उन्मादी लबादे
अब लिखने भर को
लिखते रहिये
अपनी अट्टालिकाओं पर उसके नाम
देखिये -
सूखे हुए है
अपने ही घावों पर रखने को
नमियो के फाहे यहाँ ,
प्रेम चिन्हों को
खुरचने से जागी सुर्खिया
बहती है तान कर
अपनी दुर्वासा भृकुटियाँ
घर के दरवाजे से
मुख्य सड़क तक...
तंग सँकरी गलियों से
फर्राटे से गुजर जाती है
वस्त्रों की आवारगी को
वह अब नहीं संभालती
उनके मुसेपन पर नहीं फेरती
अपनी ताज़ी हथेलियाँ
बेपरवाह हँसती है
चटक, नौबजिया सी खिलती है
तुम्हारी आँखों का आईना नहीं देखती
कमअक्ल,
अपने पैरों पर सीधे चलती है
घुसपैठियों सी
तुम्हारी सुरक्षा चौकियों को धता बताती
पिछले दरवाजे की
साँकल उतार
मुँह अँधेरे
घर से निकलते
वह दुपट्टा नहीं
अब आधा चाँद ही ओढ़ती है .....
इसलिए -
वह वापस नहीं लौटती !!!!
***हेमा ***
( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )
अच्छी कविता है ....बधाई
ReplyDeletehttp://bikharemotee.blogspot.com/
एक ही झटके में
ReplyDeleteकरती है खड्ग प्रहार
खुरच कर
उखाड फेंकती है
अपनी ही देह पर आरूढ़
तुम्हारी वासनाओं की
दुर्दम्य वसीयते ,
क्या बात है। बदलती हुई नारी का अंतर्मन और परिवेश दोनों ही कविता में बखूबी व्यंजित हुए है। अच्छी और सार्थक रचना के लिए बधाई।
पुरातन समय में ...घुटने में जिसके अक्ल पायी जाती थी ,वो स्त्री अब सबको धत्ता बता कर जिस तरह आगे बढ़ रही है ..उसको बड़ी सहजता से आपने अपनी इस रचना में समेट लिया है
ReplyDeleteदेख रही हूँ क्या खूब धुंआरा उठ रहा है तुम्हारे चूल्हे से ...उड़ रहा है...चुभ रहा है....सड़ी व्यवस्थाओं को रुला रहा है ....ठीक उसी तरह जैसे उससे अपेक्षित था !
ReplyDeleteमैं तुम्हारे कविताओं को स्त्री विमर्श की कविता नहीं मानती...ये एक शोषित वर्ग की आवाज़ हैं...प्रतिकार हैं उनका..जिन्हें अब तक अपने को व्यक्ति मानने का अधिकार भी नहीं मिला....
गहनतम पीड़ा की अभिव्यक्ति है !...विद्रोह है..समाज के प्रति..व्यवस्था के प्रति !....क्रोध है !...बगावत की आग है !...ललकार है !...युद्ध की अंतिम दुन्दुभी है !
अद्भुत शिल्प...रूप विधान...कथ्य...भावों की सघनता...और अपूर्व बिम्ब ....
"तुम्हारे दिये
बासे ,सदियों पुराने ,
संचित , गाढ़े 'प्रेमचिन्ह'
समझती है
'चिन्हित न्याय दर्शनों ' की
दागी हुई व्याख्याएँ,
पढ़ती है सस्वर
अपनी मूक ऋचाएँ,
मुस्कुराती है
और लेती है संकल्प संन्यास "
अद्वितीय चित्रण !
हेमा तुमने अपने प्रतिमान इतने ऊँचें कर लिए हैं कि अगर प्रबुद्ध पाठक वर्ग तुमसे कुछ अधिक की अपेक्षा करने लगा है....तो दोष उनका है ही नहीं !
तुम्हारी कवितायें.... तो वो कृतियाँ हैं.....जो झिंझोड़ के रख देतीं हैं.....हिला देतीं हैं....जो आश्वस्त हो कर तो बैठने ही नहीं दे सकती !
ये तो सवाल करतीं हैं...जवाब मांगतीं हैं....और इस पाखंडी समाज के मुंह पे तमाचा मारतीं हैं ! ....
"बेपरवाह हँसती है
चटक, नौबजिया सी खिलती है
तुम्हारी आँखों का आईना नहीं देखती
कमअक्ल,
अपने पैरों पर सीधे चलती है
घुसपैठियों सी
तुम्हारी सुरक्षा चौकियों को धता बताती
पिछले दरवाजे की
साँकल उतार
मुँह अँधेरे
घर से निकलते
वह दुपट्टा नहीं
अब आधा चाँद ही ओढ़ती है .....
इसलिए -
वह वापस नहीं लौटती !!!!"
"साँकल उतार
ReplyDeleteमुँह अँधेरे
घर से निकलते
वह दुपट्टा नहीं
अब आधा चाँद ही ओढ़ती है .....
इसलिए -
वह वापस नहीं लौटती !!!!" बेहद उपयुक्त स्वर है, जिस पर कविता खत्म होती है.'आधा चांद' का रूपक बहुत सुंदर बना है. बहुत दिन बाद जगी हो, बधाई.
कमअक्ल,
ReplyDeleteअपने पैरों पर सीधे चलती है
घुसपैठियों सी
तुम्हारी सुरक्षा चौकियों को धता बताती .. उफ़ ..कितने गुनाह करोगी ? ज़िंदा बचोगी ? भूल गईं सीमाएं ? लांघ गईं वर्जनाएं ? क्यों लिखती हो इतना कटु ..कर्ण प्रिय लिखो न ..हलक में अटकता है
"साँकल उतार
ReplyDeleteमुँह अँधेरे
घर से निकलते
वह दुपट्टा नहीं
अब आधा चाँद ही ओढ़ती है .....
इसलिए -
वह वापस नहीं लौटती ! sundar anoothha bimb racha hai.. badhai hemaa..
पिछले दरवाजे की
Deleteसाँकल उतार
मुँह अँधेरे
घर से निकलते
वह दुपट्टा नहीं
अब आधा चाँद ही ओढ़ती है .....
अप्रतिम !!
बहुत सुंदर रचना ...
ReplyDeleteवाह! सुन्दर! हालांकि ये स्वीकार करता रहा हूँ ..फिर भी संशय रहता है.. अभेद्य है!! :)
ReplyDeleteसादर
मधुरेश
बहुत सुन्दर ...........
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद एक अच्छी कविता पढ़ने को मिली..
ReplyDeleteअनुपम भाव संयोजित किए हैं आपने इस अभिव्यक्ति में ...
ReplyDeleteअर्चना पंत जी ने सब कह दिया …………ये शोषित और उपेक्षित वर्ग के हालात का ही चित्रण है।
ReplyDeleteअद्भुत रचना...
ReplyDeleteएक बिडम्बना ही कहिये इसे ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी सार्थक रचना
SUNDER BHAW LIYE EK KHOOBSOORAT RACHNA.
ReplyDeleteबहुत बहुत अच्छी कविता....
ReplyDeleteशुक्रिया हेमा इस प्यारी रचना के लिए.
अनु