Friday, March 30, 2012

लेखा-जोखा

अंदर
दृश्य में है बहुत दिनों से
घुमावदार खेतों की पहाड़ी सीढियां
खिला हुआ है वहाँ
बोझ सा
नाजुक फूल चेहरा
माथे पर अटकी है
तड़प बूंदें

दूर बहुत दूर
खारिज हो गये है
किसी के नन्हे-नन्हे जीवन ख़्वाब
जिनकी श्वासहीन
छाया का मटमैलापन
देता है मुझको
जहाँ-तहाँ , हर कहीं
नीले-नीले त्रास

क्यों आश्वस्त थी मैं
सुखो के प्रति
मुस्कुराते संबंधो के प्रति
सिर्फ कल्पना का लेखा-जोखा
क्यों सखी क्यों

प्रारंभ में ही सुनने के पश्चात
युद्ध की पदचाप
लेन-देन, क्यों नहीं दिखी
तेरी कुटिल अल्पना

पता था मुझे
कि ऐसा ही होना है
और दूर देश से
उड़ आए बादलों को
रोना ही रोना है

सिर्फ ऐसा ही होना है
कि बिना रोये
बगैर मसले अपनी अँधेरी आँख भी
आएगी - धारदार जल की
तेज्-तेज आवाज

और खड़ा रहेगा
चुपचाप-चुपचाप
अपनी ही बाहों में
अपने को भींचता
चुकाई गई कीमत का दर्द

चुपचाप ,
खामोश बेहद खामोश
उसके लिए नहीं है ना
कथ्यों के सधे हुए
तने हुए तुर्रे
क्योंकि उसके आसमान में
भाषाओ का ताप
कतरा कर
हां - कन्नी ही तो काट कर
उतर गया है
शून्य से अगणित नीचे के मान

अजीब कही-सुनी
पढ़ी-लिखी स्वरहीनता

मोह नहीं सखी मोह नहीं
रटाये गये
लहू में घोले गये
कुसंस्कारो का दबाव

इतना भारी भार
सब कुछ सूनसान
बिना नेह कैसे सुलझेंगे ,
उलझे - घुँघर वाले बाल

तुम्हारी सखी , अपनी सखी
खाली हूँ अंतर से और बाहर से
प्रारंभ है यहाँ से
विचरण यात्रा सवालों में
जिनकी गूंज और अनगूंज
पलटती रहती है
अनकहे दर्द के - स्याह पृष्ठ
                                                     
किसी दिन तो मिलेगा
उत्तरयात्रा का कोई मार्ग .....


***हेमा ***
                                                   




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1 comment:

  1. वाह!!!!!!!!!!!!!

    अद्भुत लेखन हेमा जी............

    बधाई!
    अनु

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