Sunday, March 25, 2012

यूँही कुछ बस ऐसे ही ...

ये लच्छमी की तो आदत पड़ गई है
उल्लू पे बैठे रहने की ...
दिन में अंधे निशाचरी
पंजो के भरोसे ... हवा में
उलटे टंगे रहने की ...
बेढब रहनी ... उलटसिर बेआधार ...
किसी भी कोने पे टिकती .... झूलती ...
झूलेलाल की पक्की मुरीद ....
खुली आँखों से ... दिन-दिन भर ...
मुटठी भर-भर उजाले खाती है ...
पर पेट की जरा कच्ची ही है .... भुक्खड़ कहीं की ....
अँधेरे में ... इसका जिन्दा पेट मचलता है ....
आँतों की साँसे कराहती है ... गहरी आहें भरती है ...
तब जा कर ... कहीं निकलती है इसकी ...
फ़िसलपट्ट , उलूकउड़ान ...
और घुप्प गहरे जले अंधेरो में ... फिर-फिर खाने को मांगती है ...
उजाले ... और बस उजाले ...
अरी नामुराद ... अब बंद भी कर माँगना ...
और उलटे तवे पर ... रोटियाँ पकाना ...
अपने लेखे का भारी गठ्ठर बाँधे घिसटती है ...
करमजली ... सुन ... तू अँधेरे ही क्यों नहीं खा जाती ...
यह निगाहें तेरी ही है ... जो पसारती है अपने ... खोजी हाथ-पाँव ...
फैलाती है ... बहेलिये सा ... बारीक बुना अपना जाल ...
निगाहें ही है ... जो फेंकती है उनके नीचे ... दानो के अपने ही दाँव ...
लक्षित के याचित ...
सोंधे गंध पंछी ...
माटी से आसमान तक ...
हिलोर मारते है ...
यह निगाहें तेरी ही है ...
जो सोये प्रहरियो को धकियाती है ...
उनींदी आँखों में ...
जागते रहो-जागते रहो की ...
फुसफुसाहटो के ...
छींटे मार आती है ...
यूँही बस कुछ ऐसे ही ...
जिंदगी की हथेली में ...
अपनी मर्जी की ...
एक लकीर खींच आती है ...
सुनो लच्छमी ...
बस ऐसे ही ...
आदते भी ... बदल ही जाती है ...




~ हेमा ~

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7 comments:

  1. लाजवाब.....शानदार कविता... विरल शब्दों में भाव गहन और मारकता... उफ्फ।

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  2. बेहद मिलनसार रचना. विषय से लाड़ करती और चुमकारती भाषा. अभिव्यक्ति की ऐसी लोक-धर्मी ऋजुता कम देखने को मिलती है जहां कुछ पाखंडी मुट्ठियों में नज़रबंद मिथक भी, हमारे पास-पड़ोस,चौराहे-फुटपाथों पर टहलते-गपियाते दिख जाएँ... आबाद रहिये हेमा जी.

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  3. "उजाले ... और बस उजाले ...
    अरी नामुराद ... अब बंद भी कर माँगना ...
    और उलटे तवे पर ... रोटियाँ पकाना ...
    अपने लेखे का भारी गठ्ठर बाँधे घिसटती है ...
    करमजली ... सुन ... तू अँधेरे ही क्यों नहीं खा जाती ...
    यह निगाहें तेरी ही है ... जो पसारती है अपने ... खोजी हाथ-पाँव ...
    फैलाती है ... बहेलिये सा ... बारीक बुना अपना जाल ...
    निगाहें ही है ... जो फेंकती है उनके नीचे ... दानो के अपने ही दाँव ." एक नए तरह के विचार से प्रेरित कविता. विषय के अनुरूप मुहावरा.

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  4. अच्‍छी कविता है हेमा जी... व्‍यंग्‍य की धार बहुत तीक्ष्‍ण है... बधाई..शुभकामनाएं।

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  5. हे मा जी ये उल्टे तवे की निगोडी रोटियों का उल्लु की तरह देखते सहते जीने की बस यु हि बहुत बहुत अच्छी प्रस्तुति है आभार आपका ।

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  6. क्या बात है! अभिव्यक्ति की अपनी ही शैली है आपकी, अपने देखे सच को बखूबी बयान करती लगती है आपकी लेखनी।

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  7. वाह...................
    लाजवाब शैली...

    अनु

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