अन्याय के विरोध में
आवाज उठाने से पहले
देख लेना -
कि तुम्हारी जाति क्या है ...
देख लेना -
कि जो अन्याय का शिकार हुआ
उसकी जाति क्या है ...
देख लेना -
कि वो जो मर-खप गये कभी के
तुम्हारे-हमारे पूर्वज
उनके कर्मों के
क्या है इतिहास ...
देख लेना -
उनके धर्म-कर्म
और देश-जाति की पहचान ...
समझना इस बात को -
कि अन्याय का
विरोध करने के अधिकार के लिए भी
पहले निपटाने होंगे आपको
मरे हुए लोगों के
और कभी की मिट्टी में मिल गई
मरी हुई बातों के हिसाब-किताब ...
कि इतनी बंटी हुई दुनियाँ से ...
इतने कटे हुए सिरों से ...
इतनी उघाड़ी और काटी गई छातियों से ...
इतने फाड़ कर और नोच कर फेंके गये
गर्भाशयों से ...
भालों की नोक पर टंगी अजन्मी
धर्महीन संततियों से ...
इतनी गुमनाम
सामूहिक कब्रों से ...
इतने खून से भरी
नदियों और रास्तों से ...
इतनी कलपती छाती कूटती
माँ,बहनों और पत्नियों से ...
इतनी ख़ाक और ज़मीनदोज़ हुई
पीढ़ियों और सभ्यताओं से ...
कि अभी जी नहीं भरा है
इन तकसीमपसंदो का ...
इंसान और इंसानियत पर
भारी पड़ गई इतनी सारी ...
पूरी धरती को
अपने ठन्डे मरेपन से
दाबे और दबोचे बैठी ...
इन नामुराद काल्पनिक
सीमा-रेखाओं से ...
जिन्होंने धर्म-जाति ,वर्ण, देश-प्रदेश,
ऊँच-नीच के खाके खींचे
शतरंजे बिछाई...
निरीह प्यादे बैठाए ...
निजी स्वार्थों की
शातिर चाले चली ...
भाँति-भाँति की
औकातों के बंटवारों किये ...
कोई और नही
वह भी तुम ही थे ...
और आज भी
उसी शतरंज को खेलते ...
निरीह प्यादों की
गरदने उमेठते
वो तुम ही हो ...
मक्कार और स्वार्थी
निजी सत्ताओं और वर्चस्व के लोभी ...
'महत्वाकांक्षी तुम' ...
जाओं ...
और चिंदी-चिंदी कर डालो
इस बची-खुची दुनियाँ के
बचे रह जाने की
थोड़ी बहुत गुंजाइशों को भी ...
~~~हेमा~~~
superb.
ReplyDeleteकैसी सोच अपनी है किधर हम जा रहें यारों
गर कोई देखना चाहें बतन मेरे बो आ जाये
तिजोरी में भरा धन है मुरझाया सा बचपन है
ग़रीबी भुखमरी में क्यों जीबन बीतता जाये
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