Monday, January 7, 2013

बेशीर्षक -५

चलो ...

बंद आँखों के मध्य
इस लहूलुहान
समय से परे
और तुम्हारी
रीत-नीत की
उठी  तनी तर्जनी
की इंगित राहों की
उम्मीदों के पेट से
बिल्कुल ही धुर विपरीत ...

इसी  काले शून्य से ...

दूर कहीं ...
बहुत दूर ...



अग्नि  के पन्नों पर
उड़ा जाए ...

पीले  आसमान  के
मसले और मरे हुए गालों के
बस थोडा सा
ऊपर  ...

अँधेरे की चौहद्दी  के
माथे के ठीक बीचोबीच ...

भिंची मुट्ठियों के
अपने सूरज में
उगा जाए ...


~~हेमा~~

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