Saturday, June 1, 2013

न्याय ... ???

न्याय ... न्याय ... न्याय ...
आधी रात ...
आधी नींद उठ कर ...
रक्त-रंजित ,क्षत-विक्षत
स्वप्नों के मध्य
गले की सारी
तनी हुई नसों के साथ
बदहवास चीखती हूँ मैं ...
आखिर तुम
हो क्या ???
...
मौत की सज़ा झेलते
किसी आदमी की अंतिम ख्वाहिश ...

बाज़ारों के खानाबदोश शोर के बीच
हाथ मलती गूंगी आवश्यकता ...

बग़ावत की भेड़ें चराता
हज़ार-हज़ार आँखों वाला कोई लोमड़ी गड़रिया,

या ...
हिफ़ाज़त की स्याही से
भरोसे की रद्दी पर
किया जाता
ताकत का एक फर्जी दस्तखत ...

उम्मीद के गुलदस्ते में
खिलाये जाते है
शोषण के कैक्टस ...

इस अंधे वक़्त की
हथेलियों में
न्याय है
सिर्फ एक अदद
भ्रामक और धूर्त अवधारणा ...

क्या नहीं है ऐसा कि
न्याय रह गया
सिर्फ एक ऐसे
कारतूस का नाम
जिसे सत्ता की
नाजायज पिस्तौल में डालकर
दाग दिया जाना है ...
कभी भी ...
कहीं भी ...
सत्य, धर्म और तंत्र के नाम पर
या उनके ऊपर
जो है -
सत्ताविहीन-रज्जुहीन
तुम्हारे लिए
बस केंचुए भर ...

न्याय ... न्याय ... न्याय ...
क्या यह भी है
बस शब्द भर ... ???




~~~हेमा~~~


(समकालीन सरोकार सितंबर-अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित )



Post Comment

1 comment: