Saturday, June 1, 2013

दाँव ...

भागती हुई
रेलगाड़ी में
निचली बर्थ के
खोंचक लगे
उस  कोने में ,
घुटनों में
अपना बाँया कान और
थोडा सा ही माथा दिए
वह औरत
अपनी दसों उँगलियों को ,
हद से बाहर रगड़ी
घिसी हुई
सार्वजनिक खिड़कियों की
काली पड़ गई
सलाखों पर कसे हुए
करती है प्रतीक्षा ...
तेजी से गुजरने वाले
पुलों के नीचे से
बहती नदियों के
अपनी आँखों में
उतरने का ,और
उन आँखों में
उठती  आवाज़ के
अपने ही कानों में
सुने जाने का  ...
बस ऐसे ही
उसकी प्रतीक्षा
सर उठाती है
और खँखार कर फेंकती है
खूब ही ऊँचा उछाल कर
आवाज़  के दरवाजों पर चिपका
तुम्हारा ही बैठाया
एक खोटा काला सिक्का ,
और जैसे ...
खेल डालती है ...
भरी सभा में ..
अपनी मन्नतों का
एक दाँव ...
सिर्फ अपने लिए ...


~~हेमा~~

Post Comment

No comments:

Post a Comment