अपनी सत्ता के मद में चूर
घर में रहती स्त्री
जैसे नींद के किसी
अलसाये बिस्तर से उठा कर
एक दिन अचानक ही
पहुँचा दी जाती है
बड़े साहबों की
बड़ी दुनियाँ के
बड़े से दफ्तर में ...
अनगढ़-अनपढ़
पर व्यवस्थापन की
तमाम भाषाओं के
अभ्यस्त हाथ
संभाल लेते है
बड़े साहबों की
बड़ी गृहस्थी की
बड़ी झाड़-पोंछ
बड़ी साज-संभाल
कर्मचारियों की
राजनीतिक-गैरराजनीतिक उठा-पटक
व्यवसायिक संबंधों की देखभाल
टूट-फूट, मरम्मत और नई आवक ...
उड़ती हुई तितलियाँ
और उनके पँख
गिनता हुआ
ठीक एक स्त्री की तरह
एक चमकीला इतराता हुआ दिन ...
अपनी पलक की झपक में
कहीं से बीन कर, उठा लाया था प्रलय ...
इतराते हुए दिन के
इठलाते पल्लू के किसी छोर पर
एक अलमारी का
छिप कर बैठा हुआ
चोर कोना,
खोल देता है अपना मुँह
और उलट देता है
'कुछ मीठा हो जाए' की
ढेरों बखटी चमकीली पन्नियाँ ,
सूखे गुलाबों के कंकाल ,
उड़ चुकी खुशबुओं की
ढनकती शीशियाँ ,
रुमाल की आठ परतों में
ढँका-संभला
एक अनजान स्पर्श ,
ढाई आखरों से टंकित सन्देश ...
काँपते हाथ और धुआंई आँखे
दबा डालती है
मुँह और स्वेद कणों में
उतर आये कलेजे का गला ...
अब तक जलसाघरों में ही बैठे रहे
समय की दृष्टि में
उभर आती है
एक अंतहीन
बेजवाब महाभियोगों के
सवालिया सिलसिलों की
खूब गड़ा कर
उकेरी हुई लिखाई ...
गठबंधन की राजनीति की
सारी धुरियाँ पलट जाती है
सत्ताएं त्रिशंकु हो जाती है ...
जिंदगी के अंत:स्थल पर
उभर आती है
एक संसद और
दोयम ईंट की नींव पर
उधार के विश्वास का
सूदखोर संविधान ...
जिसके पटल पर
विश्वास मत
शरणार्थी हो कर
किन्ही जर्जर सरायों में
छिपा लेते है
अपना घात लगाया हुआ मुँह ...
आस्थाओं के बीज खो बैठते है
अपनी सारी उर्वरता ,
अंधे रास्तों पर
सिर्फ चला जाता है ...
प्रकाश स्तंभों से आते
अनदेखे प्रकाश स्रोतों की
आभासी बैसाखियाँ
सूखी जमीन की
साफ़ आँखों में
अचानक बेवजह ही उग आये
मोतियाबिंदों के सफ़ेद माड़े और धुंधलके
कभी साफ़ नही कर पाती ...
उतरी हुई रंगतों वाली
सर घुटी मुस्कुराहटों की
झुकी कमर , फिर कभी
सीधी नही होती ...
अब कुछ भी हो जाए
या फिर कर लिया जाए
ज़िन्दगी की पीठ पर
औंधे मुँह गिर पड़ी
आस्थाओं की देह पर गड़े
विश्वासघाती बखटेपन के
नुकीले पँजे
फिर कभी भी नहीं हटते ...
~~~हेमा~~~
(समकालीन सरोकार सितंबर-अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित )
घर में रहती स्त्री
जैसे नींद के किसी
अलसाये बिस्तर से उठा कर
एक दिन अचानक ही
पहुँचा दी जाती है
बड़े साहबों की
बड़ी दुनियाँ के
बड़े से दफ्तर में ...
अनगढ़-अनपढ़
पर व्यवस्थापन की
तमाम भाषाओं के
अभ्यस्त हाथ
संभाल लेते है
बड़े साहबों की
बड़ी गृहस्थी की
बड़ी झाड़-पोंछ
बड़ी साज-संभाल
कर्मचारियों की
राजनीतिक-गैरराजनीतिक उठा-पटक
व्यवसायिक संबंधों की देखभाल
टूट-फूट, मरम्मत और नई आवक ...
उड़ती हुई तितलियाँ
और उनके पँख
गिनता हुआ
ठीक एक स्त्री की तरह
एक चमकीला इतराता हुआ दिन ...
अपनी पलक की झपक में
कहीं से बीन कर, उठा लाया था प्रलय ...
इतराते हुए दिन के
इठलाते पल्लू के किसी छोर पर
एक अलमारी का
छिप कर बैठा हुआ
चोर कोना,
खोल देता है अपना मुँह
और उलट देता है
'कुछ मीठा हो जाए' की
ढेरों बखटी चमकीली पन्नियाँ ,
सूखे गुलाबों के कंकाल ,
उड़ चुकी खुशबुओं की
ढनकती शीशियाँ ,
रुमाल की आठ परतों में
ढँका-संभला
एक अनजान स्पर्श ,
ढाई आखरों से टंकित सन्देश ...
काँपते हाथ और धुआंई आँखे
दबा डालती है
मुँह और स्वेद कणों में
उतर आये कलेजे का गला ...
अब तक जलसाघरों में ही बैठे रहे
समय की दृष्टि में
उभर आती है
एक अंतहीन
बेजवाब महाभियोगों के
सवालिया सिलसिलों की
खूब गड़ा कर
उकेरी हुई लिखाई ...
गठबंधन की राजनीति की
सारी धुरियाँ पलट जाती है
सत्ताएं त्रिशंकु हो जाती है ...
जिंदगी के अंत:स्थल पर
उभर आती है
एक संसद और
दोयम ईंट की नींव पर
उधार के विश्वास का
सूदखोर संविधान ...
जिसके पटल पर
विश्वास मत
शरणार्थी हो कर
किन्ही जर्जर सरायों में
छिपा लेते है
अपना घात लगाया हुआ मुँह ...
आस्थाओं के बीज खो बैठते है
अपनी सारी उर्वरता ,
अंधे रास्तों पर
सिर्फ चला जाता है ...
प्रकाश स्तंभों से आते
अनदेखे प्रकाश स्रोतों की
आभासी बैसाखियाँ
सूखी जमीन की
साफ़ आँखों में
अचानक बेवजह ही उग आये
मोतियाबिंदों के सफ़ेद माड़े और धुंधलके
कभी साफ़ नही कर पाती ...
उतरी हुई रंगतों वाली
सर घुटी मुस्कुराहटों की
झुकी कमर , फिर कभी
सीधी नही होती ...
अब कुछ भी हो जाए
या फिर कर लिया जाए
ज़िन्दगी की पीठ पर
औंधे मुँह गिर पड़ी
आस्थाओं की देह पर गड़े
विश्वासघाती बखटेपन के
नुकीले पँजे
फिर कभी भी नहीं हटते ...
~~~हेमा~~~
(समकालीन सरोकार सितंबर-अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित )
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