Monday, October 28, 2013

... अपने स्वप्नों की मजदूर हूँ ...



जब भी
तुम जाते हो
जाने क्यों
अपने पीछे के
सारे दरवाजे बंद कर जाते हो
उन पर सात समंदरों के
बेनाम-बेबूझ
सात ताले जड़ जाते हो ...
और अपनी मायावी जेब के
पाताल लोक के
किसी कोने में कहीं
डाल लेते हो
सात  तालों की एक
भूली हुई सिम-सिम
तुम्हारी भूली हुई दुनियाँ में
तुम्हारे पीछे
मैं स्वयं को
उठाती हूँ रखती हूँ
झिर्रियों से घुस आई 
खुद पर जम कर बैठी धूल
झाड़ती हूँ पोंछती हूँ
रोशनदानों  की बंद मुट्ठियों
से रिसती धूप से
खुद  को
माँजती हूँ चमकाती हूँ
अकेलेपन की
एकत्रित  भीड़ को धकियाते हुए
अपने अंतहीन सपनों में
फावड़े में
तब्दील हुए हाथों से
खोदती हूँ
मुक्ति की एक अनंत सुरंग ...




~~~हेमा~~~


(समकालीन सरोकार  सितम्बर-अक्टूबर २०१३ अंक में प्रकाशित )

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