किसी पनवाड़ी को देखा है कभी कोल्ड ड्रिंक बोले तो ठंडा की बरफ भरी वाली टीना की पेटिया का ढक्कन उठा कर 'ठन्डे' की बोतल निकालते और थम्स अप के अँगूठे की अदा में बाएँ हाथ में ठंडा की बोतलिया को थोडा तिरछा कर ऊपर उठाते-थामते और काने से बंधे ओपनर उर्फ़ खुलैया दद्दा से टाक से उसका ढक्कन खोलते ...
देखा है न ... ऐसे ही ... बिलकुल ऐसे ही ... कोक स्टूडियो 'हुस्ना' पर क्लिक का 'टाक'होते ही खुलता है ...पियूष मिश्रा का 'हुस्ना' ... एक मगन गीत की मग्नता के ढेरो-ढेर युग्म खुलते है ... खुलते है ... और खुलते ही जाते है ... अलहदा सी बैठकी में घुले हुए पियूष ... माइक के पास ... बेहद पास ...रेशम गली के दूजे कूचे के चौथे मकान में गुम हुई सी बंद आँखों के साथ ... वो दोनों हाथ की अनबजी चुटकियों का गूँजता नैरन्तर्य ... शब्दों और अपनी धुन के साथ अपनी दृश्यता में बकमाल बजता है ...
गिटार पर बजती सिर्फ उँगलियाँ ...
धुंधले चेहरों के साथ विविध वाद्यों पर उँगलियों की गतियाँ ... और वो पहुँचे ... और हुस्ना की तान ... जहाँ ... यहाँ ... वहाँ ...
वो होठों से घुली-मिली बाँसुरी और उसकी पीछे छूटे वक़्त में अपने कसक भरे पाँव धरती तान ... वो लयमयता ...
सब मगन है ... डूबे है ...
कोरस उठाते अनाम चेहरे ... अपनी-अपनी जगहों पर टिके सगरे के सगरे मगन है ...
खुद डूबे है और आपके , आपको भी डुबा डालते है ...
सुना जाना चाहिए ... सुनने भर के लिए नहीं ... देखा जाना चाहिए ... देखे जाने भर के लिए नहीं ...
शब्दों की ... आवाज़ों की ... वाद्यों की ... वाद्यकों की ... उँगलियों की ... बिना उग्रता की गतियों की बला की गतिमान ध्वन्यता के लिए ... बिना हुस्ना की मौजूदगी चित्रित किए , हुस्न की इतनी सजीव एवं मारक दृश्यता लाने के लिए ...
यकीन मानिए बिना किसी स्त्री-पुरुष की देह के नृत्य किये हुए एक गीत का पूरा का पूरा नृत्यमय होना ... हर शब्द में ... हर धुन में ... सब बजते है ... अपने अन्दर उतर कर ... और आप एक प्रवाह में उतर कर 'उडी-उडी' की ऐश्वर्या की मानिंद एक लहर हो जाना चाहेंगे , नृत्य की एक उमड़ आई लहर में बिना किसी बंदिश के गतिमान ...
ओ हुस्ना मेरी SSS ... कभी की गुज़री दिवाली के बुझे दिये जल उठते है ... सच ...
हज़ार-हज़ार बिजलियाँ गिरती है बुझे हुए पलों की चमक की ...
बंसरी की धुन और उस पर मौजूद वाद्यक का सूफियाना मिज़ाज़ में उठना, गिरना ,बहना और थमना ...
कितने-कितने कलेवर बदल-बदल कर मेरे अन्दर अपनी गत्यात्मकता की मिठास घोल देता है ... ऐसे जैसे कोई नाविक भरी दुपहरी भरी नदिया में भी अपने सधे हाथों से नाव पार उतार देता है ...
पल-पल को गिनते ... पल-पल को चुनते ... हज़ारों लाखों दिलों में वलवले उठाते इन मासूम सवालों के जवाब मैं कहाँ से लाऊं ... कोई ला पाया है अब तक ... जो मुझे मिल जायेंगे ... बैठी हूँ यूँ ही झड़ते हुए पत्तों के नीचे ... यादों के गुम कबूतर अपने पंख फड़फड़ा रहे है ... यहाँ ... वहाँ ... उत्सवों के धुएँ गूँज उठते है ...
इन कसकती बरबादियों के बीच ...
आसमां एक ...जमीं एक ... उस पर रखे सूरज और चंदा एक ... हवा एक ... पर मुल्क दो ...
कल्पना की रेखाओं में ... मजहब की लकीरों में ... तलवारों की धारों पर ... इंसानों की लाशों पर ...
हिन्दुस्तान ... पाकिस्तान ...
दो उठे हुए झण्डों में लिखी तकदीरों में कितनी बातें मिट गई ... मर गई ...
चौदह अगस्त ... पंद्रह अगस्त के बीच कितने कोरस खो गए ...
कितनी आँखें जो उन गलियों में उस रोज मुंदी तो कहीं और खुल जाने पर भी वक़्त के उस लम्हे ... उस गली में अटकी ही रह गई ...
आख़िरी बीट पर मैं रुकती हूँ पल भर के लिए बंद की हुई आँखे खोलती हूँ और पूछती हूँ खुद से कि ... और तुम सोचती हो कि तुमने बहुत कुछ देखा है ...
कोक स्टूडियो वाले जानते है कि ... आँख, उँगलियाँ और आवाज़ें एक साथ मिल कर सिर्फ गाते ही नहीं नाचते और नचाते भी है ... अपनी डूब में पूरा का पूरा डुबाते भी है ... मैं सुनती और देखती हूँ कि गीत नाच रहे है ... मुझे अपनी डूब में डुबा रहे है ....
http://www.youtube.com/watch?v=4zTFzMPWGLs
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