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कि क्यों पीछे छूटे हुए
उस कमरे में ही
खो गए है
हर करवट पर
उसके घूमते हुए मौसम के
अनुकूल रखे हुए तुम्हारे हाथ ...
हर बार उसी कमरे की कसी हुई
नियति में मिलना ...
ऐसे और इस तरह मिलना
कि खिली हुई धूप सा खिलना ...
बादलों की ओट में वहीं से
किसी और छोर के लिए
ऐसे और इतना बिछड़ना ...
कि मिलना हो जाए
स्मृति की डिबिया के ऊपर बैठी एक छोटी बुंदकी भर ...
और बिछड़ना
जीवन के आसमान पर तना घना चौमास ...
कि क्यों ... आखिर क्यों ...
कुछ कमरों के ललाट पर मिलने से कहीं अधिक
विरह के मौसम लिखे होते है ...
~~~हेमा~~~
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