पुराण-मन्त्र लादे
गाँठ जोड़े
बैठी रहती हो , अलंकृत,
लिए ठोस जड़ कीमियागिरी
पाँव के नाख़ून से
सिर के बाल तक ,
अनुष्ठानकर्ताओं के
निवेश यज्ञों में दुष्चक्रित,
और अनजाने ही लेती रहती हो
अपने ही निजत्व के
विगलन का सेवामूल्य
सेवाधर्मिता और सतीत्व के
रुग्ण खंभ से कसी बंधी
कसमसाती 'सेविका '
तुमको करनी होगी
हाड़ तोड़ मशक्कत
खोलने होंगे स्वयं ही,
अपने कीलित हाथ पाँव
त्यागना होगा
मेनकाओं की
छद्म काया में
जबरन मोहाविष्ट कराया गया
अपना ही प्राण ...
हे सखी -
अपनी अभिमंत्रित आँखे खोलो
और करो -
अपनी ही
काया में प्रवेश ,
पीछे पड़े
फांसी के फंदों पर लटके
सिर कलम हुए
नाख़ून उखड़ी उँगलियों वाले
अँधेरी स्मृतियों में दफ़न
अनाम क्रांतिकारियों की बीजात्मा
बड़ा तड़फड़ाती है
छाती कूटती है
और पुकारती है तुम्हे -
उठाओ अंत्येष्टि घट
काटना ही होगा तुमको
उपनिवेशी चिताओं का फेरा
मुखाग्नि का हक
सिर्फ तुम्हारा है ....
....हेमा....
( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )
गाँठ जोड़े
बैठी रहती हो , अलंकृत,
लिए ठोस जड़ कीमियागिरी
पाँव के नाख़ून से
सिर के बाल तक ,
अनुष्ठानकर्ताओं के
निवेश यज्ञों में दुष्चक्रित,
और अनजाने ही लेती रहती हो
अपने ही निजत्व के
विगलन का सेवामूल्य
सेवाधर्मिता और सतीत्व के
रुग्ण खंभ से कसी बंधी
कसमसाती 'सेविका '
तुमको करनी होगी
हाड़ तोड़ मशक्कत
खोलने होंगे स्वयं ही,
अपने कीलित हाथ पाँव
त्यागना होगा
मेनकाओं की
छद्म काया में
जबरन मोहाविष्ट कराया गया
अपना ही प्राण ...
हे सखी -
अपनी अभिमंत्रित आँखे खोलो
और करो -
अपनी ही
काया में प्रवेश ,
पीछे पड़े
फांसी के फंदों पर लटके
सिर कलम हुए
नाख़ून उखड़ी उँगलियों वाले
अँधेरी स्मृतियों में दफ़न
अनाम क्रांतिकारियों की बीजात्मा
बड़ा तड़फड़ाती है
छाती कूटती है
और पुकारती है तुम्हे -
उठाओ अंत्येष्टि घट
काटना ही होगा तुमको
उपनिवेशी चिताओं का फेरा
मुखाग्नि का हक
सिर्फ तुम्हारा है ....
....हेमा....
( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )
"अँधेरी स्मृतियों में दफ़न
ReplyDeleteअनाम क्रांतिकारियों की बीजात्मा
बड़ा तड़फड़ाती है
छाती कूटती है
और पुकारती है तुम्हे -
उठाओ अंत्येष्टि घट
काटना ही होगा तुमको
उपनिवेशी चिताओं का फेरा
मुखाग्नि का हक
सिर्फ तुम्हारा है ...." शाबास, हेमा !
काटना ही होगा तुमको
ReplyDeleteउपनिवेशी चिताओं का फेरा
मुखाग्नि का हक
सिर्फ तुम्हारा है ....sashakt abhivykti...badhai hema di
परम्पराओं के दोमुंहे सरोकारों से दो-दो हाथ करती कविता. गुस्सा समूची कविता में जीवन-दृष्टि की तरह फैला है. शोर नहीं, विमर्श करती रचना...
ReplyDeleteहेमा जी -अनुभूति को अभिव्यक्त करती शाश्क्त कविता .एक तरफ अनुष्ठान कर्ताओं के निवेश यज्ञों में दुश्चक्रित सेवा धर्मिता एवं सतीत्व,मेनकाओं की छद्दम काया से मोह भंग होना, और पुन: अनुष्ठान से अभिमंत्रित आँखों का खोलना एक देह के त्याग से दुसरे देह की यात्रा में अन्त्योष्टि की सीमा तक पहुचना ...आत्म अंतर्विरोध को प्रखर ध्वनी देती कविता ...अनुभूति को शब्द स्वर -शुभकामना,बधाई !!
ReplyDeletethought provoking...
ReplyDeleteसेवाधर्मिता और सतीत्व के
ReplyDeleteरुग्ण खंभ से कसी बंधी
कसमसाती 'सेविका '
तुमको करनी होगी
हाड़ तोड़ मशक्कत
खोलने होंगे स्वयं ही,
अपने कीलित हाथ पाँव
त्यागना होगा
मेनकाओं की
छद्म काया में
जबरन मोहाविष्ट कराया गया
अपना ही प्राण ...
नारी मुक्ति की यह रचना स्त्री की अपनी ही काराओं को तोड़ने की सशक्त पैरवी करती है। बहुत से बिम्बों को लेकर यह कविता भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से बेहद प्रभावकारी बन पड़ी है। बधाई।