छुटपन से पायी सीख ,
संझा बाती में
बिजली के लट्टू को करो प्रणाम ,
बालसुलभ, उचक जिज्ञासा ने
पाया था जवाब,
"धूरी संझा के दिउता है
जेई रातन की आँखी है"
आँखी मीचे करा भरोसा
ज्यों-ज्यों बढ़े दिन और राती
त्यों-त्यों बढ़े दिउता और दिया-बाती
धीमे-धीमे खुली प्रपंच पाती
गुम होशों ने जगने पर पाया, कि
बिजली के लट्टू को चमकाने का
बिल भरना पड़ता है
दिउता माखन चोर है
दिउता रिश्वतखोर है
उनकी झलक पाने को
लाइन हाज़िर होना पड़ता है
असंख्य दशाननों के अनगिन हाथों
मिलती है अनचाही भिक्षा
कोमल गालो से आर-पार
भालों का टैक्स चुकाना पड़ता है
उपवासी जीभो का चरणामृत
उन्हें चढाना पड़ता है
बेचैन मनौतियों की फूटी थरिया में
दर्शन की प्यासी बेसुध सुधियों को
रीती आँखों की सहियों से
एक मूक रसीद कटानी पड़ती है...
-२-
दिउता की खातिर रखनी होती है
चुप्पे मुँह अंधियारों से जगरातों तक
घर-आँगन और अपनी साज सँवार,
माटी के मोल चुके सौदों में
जम कर बैठे 'बनियें' को
अपने मोल चुकाना पड़ता है,
नियमाचारों,पूजा-पाठों,निर्जल उपवासो के
ठौर-ठिकाने घर-घर कहना होता है
अर्द्ध-रंगों के झूठे वेशों
दिशाहीन स्वास्तिकों का
खेल रचाना पड़ता है
दिउता की क्षुधाओं के
अपूरित कलसे भरने को
एक मुट्ठी बरकत का
आटा,चीनी और गुम पइसा रखना पड़ता है
इन सब से बच कर
खूंटे की चिड़िया को
भण्डार कक्ष के एक जँगहे पीपे मे
अपने गाँठ-गठूरे लटकी
खारी बारिश रखनी पड़ती है
और दिउता ....
उनका तो ऐरावत है
उन्मुक्त विचरता है
सोमरस सिंचित
तैतीस कोटि आकाशों में ...
~हेमा~
( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )
संझा बाती में
बिजली के लट्टू को करो प्रणाम ,
बालसुलभ, उचक जिज्ञासा ने
पाया था जवाब,
"धूरी संझा के दिउता है
जेई रातन की आँखी है"
आँखी मीचे करा भरोसा
ज्यों-ज्यों बढ़े दिन और राती
त्यों-त्यों बढ़े दिउता और दिया-बाती
धीमे-धीमे खुली प्रपंच पाती
गुम होशों ने जगने पर पाया, कि
बिजली के लट्टू को चमकाने का
बिल भरना पड़ता है
दिउता माखन चोर है
दिउता रिश्वतखोर है
उनकी झलक पाने को
लाइन हाज़िर होना पड़ता है
असंख्य दशाननों के अनगिन हाथों
मिलती है अनचाही भिक्षा
कोमल गालो से आर-पार
भालों का टैक्स चुकाना पड़ता है
उपवासी जीभो का चरणामृत
उन्हें चढाना पड़ता है
बेचैन मनौतियों की फूटी थरिया में
दर्शन की प्यासी बेसुध सुधियों को
रीती आँखों की सहियों से
एक मूक रसीद कटानी पड़ती है...
-२-
दिउता की खातिर रखनी होती है
चुप्पे मुँह अंधियारों से जगरातों तक
घर-आँगन और अपनी साज सँवार,
माटी के मोल चुके सौदों में
जम कर बैठे 'बनियें' को
अपने मोल चुकाना पड़ता है,
नियमाचारों,पूजा-पाठों,निर्जल उपवासो के
ठौर-ठिकाने घर-घर कहना होता है
अर्द्ध-रंगों के झूठे वेशों
दिशाहीन स्वास्तिकों का
खेल रचाना पड़ता है
दिउता की क्षुधाओं के
अपूरित कलसे भरने को
एक मुट्ठी बरकत का
आटा,चीनी और गुम पइसा रखना पड़ता है
इन सब से बच कर
खूंटे की चिड़िया को
भण्डार कक्ष के एक जँगहे पीपे मे
अपने गाँठ-गठूरे लटकी
खारी बारिश रखनी पड़ती है
और दिउता ....
उनका तो ऐरावत है
उन्मुक्त विचरता है
सोमरस सिंचित
तैतीस कोटि आकाशों में ...
~हेमा~
( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )
अच्छी रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
अनुपम भावों का संगम .. बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDelete