Saturday, February 9, 2013

बेशीर्षक - ४ ...



यह तथ्यों की धरती है
इस पर सबूतों के
पुख्ता और घने
आसमान तने हैं
हर जीवन
एक कचहरी हुआ जाता है
जहाँ उजली राहों की बुशर्टों पर
काले कोटों की भरती है
इस कचहरी के
निरे दरवाजे हैं
जिधर घूम जाओ
उधर ही
एक प्रवेशक दिशा
दिख जाती है ,
इस पार-उस पार
बड़े-चौराहों-छोटे चौराहों
तिराहों पर
कुल जमापूंजियों के
अपने-अपने बस्ते
बाँधे खड़े है लोग

दौडाये जा रहे है
अपने-अपने
अर्जनों की
स्वायत्त दिखती
गुलाम गाडियाँ
किसी की ठण्डी
किसी की गर्म
किसी की आरामदेह
किसी की खच्चर हुई नब्ज़नाड़ियाँ

लगाए जा रहे सब
कहीं निचली-कहीं ऊँचीं
अदालतों की
पेशकारियों में
सफेदी पर रंगी गई
अपनी काली-नीली अर्जियाँ ...

सहती हैं जो
आपतियाँ-अनापत्तियाँ
या फिर
उड़ती निगाहों से
देखे भर जाने की सहियाँ ...

फर्जीवाड़ों के घूरों पर
ढेर है
'
' कोष्ठकों में कैद
स्थाई तौर पर
मुल्तवी इरादों की
बेईमान अर्जियाँ ...

अपने ही हाथों में
अपनी ही
फोटो कापियाँ उठाये
पल-पल रंग बदलती
गिरगिटिया नज़ीरों सी
अपनी ही पेशकश लिए
चलते है लोग ...
 
अक्सर ही ...
सिर्फ चलने भर को
चलते हैं लोग
कहीं नहीं पहुँचते लोग ...


~~~हेमा ~~~



( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )

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1 comment:

  1. अक्सर ही ...
    सिर्फ चलने भर को
    चलते हैं लोग
    कहीं नहीं पहुँचते लोग .......

    बढ़िया कविता है.......पढ़ते हुए साहिर की नज़्मों का टोन याद आ रहा था.

    लेखिका को बधाई.

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