Saturday, March 16, 2013

इतराते-इठलाते जंगल ही जंगल ...


 अपनी छोटी चक्का चलन्तु अटैची मे एक काली,एक नीली जींस,दो शर्ट ,तीन टी शर्ट, समय-कुसमय पहने जाने के लिए एक-दो सलवार कुर्ता,एक अदद डायरी, मेरा लैपटॉप ,कुछ एक अन्य जरुरी सामान डाल कर अपने बेहद प्रिय गुलाबी सफ़ेद स्पोर्ट्स शूज पैरों में कसे ...
मैं आजकल कुमायूँ खण्ड के छिपे सुदूर अनछुए बेहद खूबसूरत कोनों की यायावरी में हूँ ...


दूर-दूर तक दृष्टि जहाँ तक अपने पाँख-पाते फैला सके ...
स्वयं को ले जा सके सर्पिल रास्तो से चलते हुए या पहाड़ से घाटियों तक उतरते हुए ...
जंगल ही जंगल अपनी हरीतिमा के लहँगे पसारे ...
अपनी दोनों बाँहें खोले बेतरह मुझे पुकारते और अपनी ओर खींचते ...
आजकल जैसे अपनी चाहतों की माँग में बुराँस ही बुराँस सजाये बैठे है ...
मन इनके साथ ठहर गया है कहीं जाने को राज़ी नहीं है ... :(
हम जितना पा जाते है उससे कहीं और ज्यादा चाहने लग जाते है ...
  
प्लम के और आडू के पेड़ बिना एक भी पत्ती वाली ढेरो शाखाओं में सफ़ेद और गुलाबी फूल ही फूल सजाये पूरे अंचल में छितराए हुए है ...
सेब के बागों में अभी सूनेपन का वास है पर बस कुछ ही दिनों में वहाँ भी बसंत ही बसंत अपने फूलों के पँख खोले बिछा होगा ...
आबादियों और बाज़ारों की भाग-दौड़ से दूर सन्नाटें अपनी ही भाषा बोलते है ...
एक मोटर-गाड़ी या एक हांक की या चिड़ियों और हवाओं की आवाज़ भी देर तक और दूर तक सुनाई देती है ...
सीढ़ीदार खेतों के घुमावों पर गेंहूँ की पौध अभी बालेपन में है ...
कहीं-कहीं तैयार माटी में आलू के बीज बोने की तैयारी है ...


इन सीढ़ीदार खेतों में बैलों को मुड़ते-घूमते ,ठिठकते और जुताई होते देखना मैदानों से बिल्कुल अलहदा और रोमांच देने वाला अनुभव है ...
यहाँ भी खेतों में निराई-गुड़ाई करती मिलती है स्त्रियाँ ...
बिल्कुल मुँह-अँधेरे सुबह-सवेरे चीड़ ,बुराँस,बाँज की लकडियाँ काट कर ले जाती स्त्रियाँ ...
नीचे कहीं मौजूद हैंडपंप या पानी के किसी स्रोत से पानी के भारी पीपे ढोती या घरों से लाये ढेरों कपड़े धोती स्त्रियाँ ...
५-६ कि. मी. पहाड़ी उतार-चढ़ाव भरे रास्ते तय करते स्कूली बच्चे ...
जगह-जगह मिलने वाले गोलू देवता ...
बिसलेरी की ,सॉफ्ट ड्रिंक, और महँगी-सस्ती दारु की खाली बोतलों और पैकेज्ड फ़ूड के खाली पैकेटों,पॉलीथिनों की उडती-फिरती तमाम हुई रंगीनी से पटे गाहे-बगाहे मिल जाने वाले बेहद उदास संतप्त मुर्दाघर मे तब्दील हुए ढलानों के मोड़ ...
मैं यात्रा के सुख-दुःख समेटते, मेरे संग भागते-दौड़ते खेतों, चीजों और लोगों के दृश्यों उनकी बानी-बोली, काम-काज, पहनावे-ओढ़ावे में कहीं भीतर तक अपनी ही एकांतिक यायावरी में गुम हूँ प्रकृति के बीच जाने जैसे किसी खोये सोंधेपन में अपनी बड़ी पुरानी साध घोलते ... लमपुसरिया की और बादलों के शेर,घोड़े,हाथियों और आग उगलते ड्रैगनों की उड़ानों को ताकते ... खुश हूँ ...



(लमपुसरिया -लंबी पूछ वाली एक चिड़िया )

Post Comment

2 comments: