Friday, January 24, 2014

स्मृति ...




कहते है कि ...
कल कभी आता ही नहीं
इसलिए कल आने वाले आज के
मुँहअँधेरों से पूछना है
कि तुमने भोर के तारे के पास से
कोई पुकार आते सुनी थी क्या
पूछे गए इस सुने-अनसुनेपन के
ठहरे हुए पलों की पीठिका से
चुपचाप ... कमरे की खिड़की से ...
सलाखों के पार
बीते हुए आज की
हथेली पर उतरता है
एक कौर भर आसमां ...

ऐसे ...
उतर आये
गहरे नीले आसमां के
डूबते हुए किसी छोर पर
कहीं कोई एक आँख है ... और ...
उसी आँख की दाहिनी कोर से
चतुर्भुज हो बैठी धरा पर
टपकती है न ... स्मृति ...
टप ... टप ... टप ...



~~~हेमा~~~

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