Friday, March 29, 2013

नैनीताल में कनपुरिये होरियारों की याद ...




उत्तराखंड की अपनी इस खात्मे पर आ चुकी यात्रा के अंतिम चरण में आज मैं पुन:  नैनीताल में हूँ ...
यहाँ आज अट्ठाईस मार्च दो हज़ार तेरह गुरूवार का दिन होली खेलने के नाम था ...

मौसम का सुहावनापन उतरती हुई ठंड की धूप के चटक-चमकते गालों में हल्का सा महावर घोल, अपनी ही एक गुलाबी सिहरन दे रहा है  ...

मेरी ठेठ कनपुरिया आँखों के लिए आज बड़े अज़ब-गज़ब कमाल का दृश्य था सुबह-सवेरे मॉल रोड पर नियमित टहलने वालों को बिल्कुल साफ़-सुथरे बिना किसी हिचक के टहलते देखना ...

बाज़ार  दोपहर दो बजे तक के लिए घोषित पूर्ण बंदी पर था ...

प्रातः नौ-दस बजे के लगभग हलके-फुल्के गुलाल-अबीर और रँगों के साथ लोग दिखना शुरू हुए लेकिन हुड़दंग और शोर-शराबा कही भी नहीं था ...

घुमंतू भी थोड़ी-बहुत हिचकिचाहट के बाद मुख्य सड़क का जायजा लेने अपने अस्थायी घरों (कमरों ) से निकल आए थे ... इन घुमन्तुओं में भाँति-भाँति की पोशाकों में लड़कियाँ और महिलायें भी मौजूद थी ... आस-पास से गुजरते होरियारों की मस्ती ने इन की ओर ना तो रँग, गुलाल-अबीर उडाये/ फेंके  ना इन पर किसी भी तरह की छींटाकशी की ना कोई अन्य इशारोंजन्य चलनहारी अभद्रता ही की ...वजह  चाहे जो भी रही हो ...

मेरी कनपुरिया आँखे तो बिल्कुल अलग ही दृश्यों को देखने की अभ्यस्त है ...

वहाँ तो वो होरियार ही क्या हुए जी , जो ढोलक ,ढोल की थाप पर नाच-गा ना रहे हो ... जिनके कदम किसी पिनक में बहके हुए ना हो जो अपने आपे और भद्रता की सारी सीमाओं से बाहर ना हो ...देसी ठर्रे में ऊपर से नीचे तक महमहाते होरियार तो जो गज़ब ना ढा दे सो कम ... होरियार वो थोड़े ही है जी, जो  गुलाल-अबीर और रँग, गुझियाँ भर की हुलास से अपना त्यौहार मना लेवे ...

ना भई ना ...

होली का खेला पूरा नहीं होता जब तक रँग, गुलाल-अबीर की संगत में कीचड़-कादा,गोबर ,टट्टी-पेशाब की भी पूरी महफ़िल ना सजा ली जाए ...  किसी के पहने हुए कपड़ों को फाड़ कर नाली और कीचड़ में डुबा-डुबा कर बनाए गये पीठ तोड़ पछीटे लिए गली-गली चोई की तरह उतराते होरियार ...

सफेदे में पोत कर नग्न दौडाये जाते चितकबरे लोग ... रूमालों की बीन बनाये सम्पूर्ण नाग अवतार में ज़मीन पर लोट-लोट कर सामूहिक नागिन नृत्य करते लोग ... माँ-बहनात्मक गलचौर के रस में सम्पूर्ण माहौल को भिगाते लोग ...

शीला की जवानी में मदमस्त , मुन्नी बदनाम बनी तमाम कारों पर सवार लोग ...  जलेबीबाई  की तर्ज पर जैसे किसी पगलैट होड़ में कमाल के कमरतोड़ नाच मे अंधाधुंध डूबे और दौड़े चले जाते है ...

चार-पाँच की सवारी ढोती,कर्फ्यूग्रस्त सी सहमी सड़को को अपने ट्रक छाप होर्न और बेतहाशा गति से थर्राती  मोटरसाइकिलें ...

स्त्रियाँ और लड़कियाँ इन होरियारों को सिर्फ देख सकती है अपने-अपने सुरक्षित ठिये-ठिकानों से ...
स्त्रियाँ और लड़कियाँ अपनी हदबंदी में ही होरियार होती है ना बस ...

अरे  हाँ .. लड़कियों एवं स्त्रियों को तो होलिका दहन देखने की मनाही होती है ... वो घर के अंदर रहती है दहीबड़े,काँजी,गुझियाँ ,पापड,चिप्स इत्यादि तलती हुई ... पुरुष जाते है बाहर होलिका दहन में गन्ना और गेंहूँ की बालियाँ भूंजने और बल्ले की माला चढ़ाने ... 

और तिस पर कानपुर की होली तो अनुराधा नक्षत्र की आठ दिवसीय होली ठहरी ... तिथि की हानि-वानि गिन-गिना कर जिस रोज भी गँगा मेला पड़ जाए उसी रोज गँगा जी पर लगे मेलें में रँगे-पुते चेहरों के साथ सफ़ेद कुर्तों-पैजामों को पहन कर गलभेंटी के बाद ही समाप्त होगी ...
हाँ यहाँ  भी महिलायें नामौजूद होती है ... :(

कनपुरिये गँगा-मेला के दिन परेवा से भी ज्यादा रँग खेलते है ऊपर वर्णित समस्त प्रकार के साजो-सामान से लैस हो कर ...

घनी आबादी और मोहल्लों में लड़कियाँ और स्त्रियाँ आज भी इन दिनों घरों से निकलने में घबराती है ...
कोई भी कहीं भी कभी भी आप पर रँग या और कुछ भी फेंक सकता है ... इन होरियारे दिनों में किसी के भी घर जाने पर आपका रँग,गुलाल अबीर मय होने से बचना तकरीबन नामुमकिन ही जानिये ...

गँगा-मेला के रोज सिर्फ कानपुर क्षेत्र में स्थानीय अवकाश घोषित होता है ...

मुझे याद है गँगा मेला वाले रोज मेरी हाईस्कूल की अंग्रेजी की परीक्षा पड़ गई थी ... पर्चा खत्म कर अपने सेंटर से हम चार लड़कियाँ लवकुश रिक्शेवाले के जिम्मेदारी के पँख लगाए फरर-फरर उड़ते रिक्शे पर सड़क पर उड़ी चली जा रही थी ... लड़कों के एक स्कूल के बगल से गुजरने पर हम पर रँग, अबीर गुलाल के साथ-साथ कीचड़ और गोबर की वो जबरदस्त बमबारी हुई ... लव-कुश के पैरों में जैसे उस रोज रॉकेट इंजन लग गये थे,उसका रिक्शा जैसे किसी उड़नखटोले में तब्दील हो गया था ...गरियाते होरियारों को पछाड़ने को ...

रँगी-पुती स्कूल ड्रेस और गोबर कीचड़ में लस्तम-पस्तम होने पर बिना किसी गलती के भी फटकारों के चलनहारे माले तो हमें ही पहनने थे सो घर पर वो भी पहने ही गये ...

एक  बार अपने छुटपन में मैं अपनी नानी के घर बेहद घनी आबादी वाले मोहल्ले धनकुट्टी में थी ...
अपने बालपन में भी स्त्री जन्य निषिद्ध स्थिति के अंतर्गत, दुखंडे के छज्जे पर लटक-लटक कर होरियारों की ग़दर काटू हुड़दंग को ही अपने लिए निषिद्ध होली मानते हुए ललचाते हुए देख रही थी ...
तभी नानी, माँ का घर का नाम लगभग चिल्लातेहुए , भागते हुए आई ,"बिट्टन, बिटेवन का अंदर करि लेव , मुनुवा केर सबै कपरा फारि डारे गये "... ये लो माँ तो जब आती तब आती मुनुवा मामा (मामा के सभी दोस्त हमारे मामा कहलाते थे ) साक्षात अपने दिगम्बरी स्वरुप में चमचमाते सफेदे मे लिपटे सड़क पर दौड़ लगाते अवतरित हो चुके थे ...

ठीक दो बजे यहाँ नैनीताल में होली समाप्ति की घोषणा करती एक गाड़ी गुजरी और बस होली खत्म ...
जैसे इसी घोषणा के इंतज़ार में मुँह डाले बैठे सड़क-बाज़ार एवं  दुकाने चटा-पट खुल गये ...

नैनीताली घुमन्तुओं की फैशनपरस्ती रास्तों पर लहलहा कर खिल उठी ...

मंद बोटिंग और घुमाई की गति ने जैसे स्केट बोर्डों की सवारी पकड ली ...

सबेरे से चुप्पे पड़े खाने-पीने के अड्डे और रेस्तरां अपने दरवाजों की आवाज़ों के ताले खोल जैसे स्वागत-स्वागत कह उठे  ...

मैंने ठंडी सड़क पर पाषाण देवी मंदिर के पास वाली सीढ़ियों पर अभी भी दबे पाँव मौजूद हो गये एकांत का भरपूर आनंद उठाया ...

कनपुरिये  होरियार घोषणाओं वाली ऐसी-वैसी फ़ालतू की बात पर अपने कान भी नहीं धरते है ...
शाम पाँच बजे तक भी होली का हुड़दंग और शोर-शराबा चल सकता है ...

एक कनपुरिया स्त्री के रूप में मैं कानपुर में होली की भरी दुपहरी में ऐसे आनंद और सुबह-सवेरे की शांति की ऐसी कोई कल्पना भी नहीं कर सकती ...

वक्त आज भी इस मामले में बस शायद नाखून बराबर ही बदला हो  ...

भाई हम तो बेहिचक कहेंगे कि हम कनपुरिये होरियारों से बहुत ही भय खाते है ...





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2 comments:

  1. कानपुर की होली के सब सीन याद आ गये।
    इस बार जबलपुर में रहे होली में। लोगों ने कहा बहुत रंग चलता है। होली खतम होने के बाद हमने कहा -क्या रंग चलता है यार! जहां यहां की होली खतम हुई वहां से तो कानपुर में होली शुरु होती है।

    खूब लिखा है। महिलाओं की स्थिति का भी अच्छा बयान किया !

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  2. " आसुरी " होली का दिलचस्प वर्णन :)

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