Sunday, August 12, 2012

बेशीर्षक ...

सप्त ऋषियों की
बैलगाडी के नीचे
अनामिका  में पहनाई हुई
एक अँगूठी भर
या फिर ललाट पर
खिंचित भाग्य रेखा भर
और बस तय हो जाते है
जागीरदार और जागीरो के
विपरीत ध्रुव ...

जागीरें रख दी जाती है
संभाल कर सहेज कर
खजानों की अकूत ढेरी में
सात पहरों की
सात परतों  में ...

फिर तैरते हैं जागीरदार  सात समंदर
भींचते  हैं मुट्ठी में आसमां ...

प्रेम का मायावी यायावर
नापता है
वीनस की चौखट तक
ब्रम्हाण्ड की सारी गलियाँ  ...

पीछे छूटे भिड़े दरवाजो की
जागी आँखों के 
सिरहाने से पैताने तक
सुसज्जित वचन मंडपो में
रीते  प्राण प्रतिष्ठित रहते है ...

नापो दुनियाँ के सारे छोर
और चखो समंदरों के किनारे
धूप तापती
नमक की सारी कनियाँ ...

और लौट आओ वापस
जूठी जबानों के साथ ...

खजाने के द्वारों पर
सात पहरों की
सजग पोथियों पर बैठे
हथियारबंद चौकस पंडे
तुम्हारी तिर्यक दुशासनी चाल पर
सर झुकाते है
और खोल डालते है सारे द्वार ...

तुम्हे करना ही क्या है
बस हाथ भर बढ़ाना है
और खजाने के
गूंगे कलेजे में उतार देना है
अपना  सर्पदंश ...

दमकती  है तुम्हारी कलाई
नमकीन स्वेद कणों से ...
चमकती है बुझी अनामिका
बेनाम मृत अँगूठी से ...





                 ~हेमा~


( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )

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Wednesday, August 1, 2012

बेचारा ज्ञान ... और बेचारी जिनगी ...

बड़े 'बी' की लम्बाई ज्ञान की पहुँच और धज से कहीं बहुत-बहुत ही ज्यादा है ...

ज्ञान किसी काम का नहीं है ...

जीवन के किसी भी क्षेत्र में वह आपको कुछ भी हासिल कराने लायक नहीं है ...

ज्ञान की योग्यता का पता तब चलता है जब आप 'गर्म कुर्सी'
पर बैठ कर चार विकल्पों वाला जुआ खेलते है ...

आपको अंग्रेज़ी नहीं ना आती है ...

हत भाग्य !!!

जिनगी बर्बाद है तुम्हारी ...

कुच्छो नहीं ना मिलने वाला है आपको इस जिनगी मे ...

सब कुछ आपकी आँखों के सामने से , आपकी नाक के नीचे से लूट लिया जाता है ...

आप कुछ नहीं ना कर पाते है ...

फिर आपको मिलती है 'गर्म कुर्सी'...

और आप हासिल करते है अपनी जिनगी की सबसे बड़ी जुआ खेल जीत ...

क्या बात है देखिये भाई, हमारे महानायक इस परास्त चारों खाने चित्त ज्ञान और जिनगी को कहाँ से कहाँ और कैसे-कैसे रास्ते पर ले जा कर सँवार रहे है उसका सम्मान बढ़ा रहे है रात दिन प्रायोजित कर रहे है ...

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