Wednesday, October 31, 2012

बेशीर्षक- ३

मैंने सुना है
स्वर्ग होता है,
होता है
जीवन के बाद
मृत्यु के पार
होता है
और बहुत खूब होता है ...

वहाँ ‘सब कुछ’ होता है
वह सब कुछ
जो धरती का नरक भोगते
बसता है तुम्हारी कल्पनाओं में
जिसके सपने के पंखों पर
उड़-उड़ कर
रौरव नरकों के
जमीनी पल काटे जाते है ...

सुना है
वहाँ सर्व-इच्छा पूर्ति के
कल्पवृक्ष हुआ करते है
कामधेनु सरीखी
स्वादों की गाय होती है ...

समय के अणु जैसे थिर जाते हैं
नदी के तल पर टिक गई
किसी शिला की तरह
चिर युवा होते हो तुम ...

वहाँ बोटोक्स की सुइयाँ और
वियाग्रा की बूंदे नही मिलती
क्योंकि झुर्रियों और जरावस्था को
स्वर्ग का पता नहीं बताया गया है ...

वहाँ सोलह श्रृंगार रची
मेनका और रम्भा में बसी
सहस्त्रो, अक्षुण्ण यौवन वाली अप्सराएं हैं
सुर है सुरा है
नाद है गन्धर्व-नाद है
ऐश्वर्य है उत्सव है
उत्साह है अह्लाद है ...

राजपुरुषों से जीवन का
राजसिंहासनों पर बैठा
स्वर्ग में
सब सामान है ...

विस्मित हूँ मैं
मृत्यु के बाद भी
जीवन के पार भी
परलोक की रचना करने वाले
मक्कारों की व्यूह रचना पर ...

स्वर्ग में अप्सराएं बसती है
पर स्त्रियाँ नही मिलती ...

है किसी को पता ...
कि ‘उनके’ हिस्से का
वैभव, अह्लाद और स्वर्ग कहाँ है ...

क्यों नही है स्वर्ग में
अप्सराओं के पुरुषांतरण ...

कल्पनाओं में भी नहीं है ...

क्यों नहीं हैं
स्त्रियों के हिस्से के
आमोद की रचनाएं ...

सोचने पर
ढूँढें से भी मुझे
गले मिलने नहीं आते
उनके उत्सव ...

विस्मित हूँ और
क्रोधित भी
कि सृष्टि के
उत्सों की भाषा में
क्यों नहीं रचे गये
स्त्रियों के
निजी सुख ...



~हेमा~


'कथादेश' में जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित ...

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Wednesday, October 3, 2012

बेशीर्षक - २





चलने को
बना दी गई
गाढ़ी-पक्की
सीधी-सरल लकीरों की
पूर्व नियत फकीरी में
गाड़ा हुआ
खूँटा तुड़ा कर
छूट भागी स्त्रियाँ
हर ऐरे-गैरे की
ऊहा के
उत्खनन की
खटमिट्ठी झरबेरी हो जाती हैं ...

पूरी निष्ठा से
अपना फर्ज निभाते हुए
दौड़ पड़ते है
सारे खेतिहर ...

अपने-अपने
फरुआ,गैती,कुदाल,हल उठा कर
आखिर मेहनतकशी जो ठहरी ...

खूंदना-मूँदना है
उसका आगत-विगत
सोना-जागना, उठना-बैठना
साँस-उसाँस, उबासी
यार-दयार ... सब कुछ ...

और बीजना है
भूमिपतियों को
उस पर,
चटखारों की लिखावट का
अपना-अपना
दो कौड़ी का सिंदूर ...

चारों दिशाओं से उठती
असंख्य तर्जनियाँ
अपने काँधो पर पड़ा यज्ञोपवीत
अपने कानो मे
खोंस लेती है ...

लकीरों से हट कर
चलने वाली
स्त्रियों की
फ़िजा बनती है
बनाई जाती है
फ़िजाओं में घोली गई स्त्रियाँ,
स्त्रियाँ कहाँ रह जाती है ...

चौक पर रहने वाली
नगरवधुओं में
तब्दील कर दी जाती है ... 


~
हेमा~



( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )


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