Wednesday, November 27, 2013

ध्वनि ...

१.
चुप की जमीन पर रहने वाले ही
चुप्पियों का पता देते है ...


२.
चुप्पी ध्वनि की निद्रा है ...
मौन स्वर का जागरण ...


३.
और जागरण से पूर्व ...
उन्ही चुप्पियों की हथेलियों में
कुछ स्वप्न भी तो रहते ही है ...
हाँ ... वही तो है
जो जागरण का स्वर बुनते है ...


४.
देखो यह कितनी अच्छी सी बात है, कि
ध्वनियों की निद्रा के घर में ही सही, पर
स्वप्नों का हँसना -
उनके मरने से कहीं ज्यादा
आसान हुआ बैठा है ...



~~हेमा~~

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Saturday, November 16, 2013

अनु-संधान ...




झक्की होना 

अपनी मौलिकता का 

अनुसंधान है ...

उस पिछड़े और 

लहूलुहान स्वरुप का 

जो हमारे 

आईने बनने के 

पहले का 

नींव का पत्थर था ...

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~~~हेमा~~~

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Friday, November 15, 2013

कछुए की पीठ का रेखागणित ...



"हम सब मशीन है तुम भी मैं भी ..."
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और मशीनों का क्या होता है ...
शून्य ...
शून्य / शून्य = शून्य परिणति ...
कुछ भी नहीं ...
हाँ कुछ भी नहीं ...
कभी भी नही ...
कहीं भी नहीं ...

कि क्यों सारे दिनों की शुरुआत सर्द और मशीनी है ...
कि क्यों इनमें नहीं है पीले फूलों पर पड़ती हुई पीली धूप ...

कि क्यों इनमें नहीं है आँच अपर चढ़े चाय के पानी में
मनचीती आकृतियाँ उकेरती अधघुली वो भूरी रंगत ...

कि क्यों है यह एक ऐसा मौसम जिसके तीसों दिनों के अम्बर पर लिखा हुआ है उसके ना होने वक्तव्य ...

कि क्यों ऐसे 'ना-अम्बर' की सुबह की खामोश ठहरी हुई
धुँध को छू कर खिड़की से
तिरछी रेखाओं में फिसल कर
कमरे में उतारते हुए
किन्ही मुलाकातों के नीचे
डूबे पड़े क्षण ,
अपनी डुबक के बुलबुलों में से
सर उठा कर बस एक साँस भरने भर में ही
कैसे तो कह ही डालते है ...
साथ और संगतियों का
मरे पड़े होना ...

कि क्यों कछुए की पीठ पर जनम से चिपकी उसकी पृथ्वी से जड़ होते है
अक्सर ही हमसे चिपके हुए संबंधों के विरसे ...

कि चुके हुए
मुर्दा संबंधों का
और-और जिन्दा होते जाना , हमारी पहचान में जुड़ते जाना ,
उनको ही हर पल ढोते हुए चलते चले जाना ...
जीवन के नरक होने की निर्मिति के सिवाय कुछ भी नहीं है ...

कि नरक भी एक अहसास है ...  अहसास भी निर्मिति है ... ???

अक्सर ही जीवन कछुए की पीठ का रेखा गणित है ...


~~~हेमा~~


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