Monday, December 30, 2013

झड़ते हुए पत्तों के बीच में ...



किसी पनवाड़ी को देखा है कभी कोल्ड ड्रिंक बोले तो ठंडा की बरफ भरी वाली टीना की पेटिया का ढक्कन उठा कर 'ठन्डे' की बोतल निकालते और थम्स अप के अँगूठे की अदा में बाएँ हाथ में ठंडा की बोतलिया को थोडा तिरछा कर ऊपर उठाते-थामते और काने से बंधे ओपनर उर्फ़ खुलैया दद्दा से टाक से उसका ढक्कन खोलते ...

देखा है न ... ऐसे ही ... बिलकुल ऐसे ही ... कोक स्टूडियो 'हुस्ना' पर क्लिक का 'टाक'होते ही खुलता है ...पियूष मिश्रा का 'हुस्ना' ... एक मगन गीत की  मग्नता के ढेरो-ढेर युग्म खुलते है ... खुलते है ... और खुलते ही जाते है ... अलहदा सी बैठकी में घुले हुए पियूष ... माइक के पास ... बेहद पास ...रेशम गली के दूजे कूचे के चौथे मकान में गुम हुई सी बंद आँखों के साथ ... वो दोनों हाथ की अनबजी चुटकियों का गूँजता नैरन्तर्य ... शब्दों और अपनी धुन के साथ अपनी दृश्यता में बकमाल बजता है ...

गिटार पर बजती सिर्फ उँगलियाँ ...

धुंधले चेहरों के साथ विविध वाद्यों पर उँगलियों की गतियाँ ... और वो पहुँचे ... और हुस्ना की तान ... जहाँ ... यहाँ ... वहाँ ...

वो होठों से घुली-मिली बाँसुरी और उसकी पीछे छूटे वक़्त में अपने कसक भरे पाँव धरती तान ... वो लयमयता ...
सब मगन है ... डूबे है ...

कोरस उठाते अनाम चेहरे ... अपनी-अपनी जगहों पर टिके सगरे के सगरे मगन है ...

खुद डूबे है और आपके , आपको भी डुबा डालते है ...


सुना जाना चाहिए ... सुनने भर के लिए नहीं ... देखा जाना चाहिए ... देखे जाने भर के लिए नहीं ...
शब्दों की ... आवाज़ों की ... वाद्यों की ... वाद्यकों की ... उँगलियों की ... बिना उग्रता की गतियों की बला की गतिमान ध्वन्यता के लिए ... बिना हुस्ना की मौजूदगी चित्रित किए , हुस्न की इतनी सजीव एवं मारक दृश्यता लाने के लिए ...

यकीन मानिए बिना किसी स्त्री-पुरुष की देह के नृत्य किये हुए एक गीत का पूरा का पूरा नृत्यमय होना ... हर शब्द में ... हर धुन में ... सब बजते है ... अपने अन्दर उतर कर ... और आप एक प्रवाह में उतर कर 'उडी-उडी' की ऐश्वर्या की मानिंद एक लहर हो जाना चाहेंगे , नृत्य की एक उमड़ आई लहर में बिना किसी बंदिश के गतिमान ...

ओ हुस्ना मेरी SSS  ... कभी की गुज़री दिवाली के बुझे दिये जल उठते है ... सच ...

हज़ार-हज़ार बिजलियाँ गिरती है बुझे हुए पलों की चमक की ...

बंसरी की धुन और उस पर मौजूद वाद्यक का सूफियाना मिज़ाज़ में उठना, गिरना ,बहना और थमना ...

कितने-कितने कलेवर बदल-बदल कर मेरे अन्दर अपनी गत्यात्मकता की मिठास घोल देता है ... ऐसे जैसे कोई नाविक भरी दुपहरी भरी नदिया में भी अपने सधे हाथों से नाव पार उतार देता है ...

पल-पल को गिनते ... पल-पल को चुनते ... हज़ारों लाखों दिलों में वलवले उठाते इन मासूम सवालों के जवाब मैं कहाँ से लाऊं ... कोई ला पाया है अब तक ... जो मुझे मिल जायेंगे ... बैठी हूँ यूँ ही झड़ते हुए पत्तों के नीचे ... यादों के गुम कबूतर अपने पंख फड़फड़ा रहे है ... यहाँ ... वहाँ ... उत्सवों के धुएँ गूँज उठते है ...

इन कसकती बरबादियों के बीच ...

आसमां एक ...जमीं एक ... उस पर रखे सूरज और चंदा एक ... हवा एक  ...  पर मुल्क दो ...
कल्पना की रेखाओं में ... मजहब की लकीरों में ... तलवारों की धारों पर ... इंसानों की लाशों पर ...
हिन्दुस्तान ... पाकिस्तान ...

दो उठे हुए झण्डों में लिखी तकदीरों में कितनी बातें मिट गई ... मर गई ...

चौदह अगस्त ... पंद्रह अगस्त के बीच कितने कोरस खो गए ...

कितनी आँखें जो उन गलियों में उस रोज मुंदी तो कहीं और खुल जाने पर भी वक़्त के उस लम्हे ... उस गली में अटकी ही रह गई ...

आख़िरी बीट पर मैं रुकती हूँ पल भर के लिए बंद की हुई आँखे खोलती हूँ और पूछती हूँ खुद से कि ... और तुम सोचती हो कि तुमने बहुत कुछ देखा है ...

कोक स्टूडियो वाले जानते है कि ... आँख, उँगलियाँ और आवाज़ें एक साथ मिल कर सिर्फ गाते ही नहीं नाचते और नचाते भी है ... अपनी डूब में पूरा का पूरा डुबाते भी है ... मैं सुनती और देखती हूँ कि गीत नाच रहे है ... मुझे अपनी डूब में डुबा रहे है ....

http://www.youtube.com/watch?v=4zTFzMPWGLs


Post Comment

कच्ची-पक्की बातें ...१.


..............................
..............................
..............................
कि क्यों पीछे छूटे हुए
उस कमरे में ही
खो गए है
हर करवट पर
उसके घूमते हुए मौसम के
अनुकूल रखे हुए तुम्हारे हाथ ...

हर बार उसी कमरे की कसी हुई
नियति में मिलना ...
ऐसे और इस तरह मिलना
कि खिली हुई धूप सा खिलना ...
बादलों की ओट में वहीं से
किसी और छोर के लिए
ऐसे और इतना बिछड़ना ...
कि मिलना हो जाए  
स्मृति की डिबिया के ऊपर बैठी एक छोटी बुंदकी भर ...
और बिछड़ना
जीवन के आसमान पर तना घना चौमास ...

कि क्यों ... आखिर क्यों ...
कुछ कमरों के ललाट पर मिलने से कहीं अधिक
विरह के मौसम लिखे होते है ...


~~~हेमा~~~

Post Comment

Wednesday, November 27, 2013

ध्वनि ...

१.
चुप की जमीन पर रहने वाले ही
चुप्पियों का पता देते है ...


२.
चुप्पी ध्वनि की निद्रा है ...
मौन स्वर का जागरण ...


३.
और जागरण से पूर्व ...
उन्ही चुप्पियों की हथेलियों में
कुछ स्वप्न भी तो रहते ही है ...
हाँ ... वही तो है
जो जागरण का स्वर बुनते है ...


४.
देखो यह कितनी अच्छी सी बात है, कि
ध्वनियों की निद्रा के घर में ही सही, पर
स्वप्नों का हँसना -
उनके मरने से कहीं ज्यादा
आसान हुआ बैठा है ...



~~हेमा~~

Post Comment

Saturday, November 16, 2013

अनु-संधान ...




झक्की होना 

अपनी मौलिकता का 

अनुसंधान है ...

उस पिछड़े और 

लहूलुहान स्वरुप का 

जो हमारे 

आईने बनने के 

पहले का 

नींव का पत्थर था ...

...................................





~~~हेमा~~~

Post Comment

Friday, November 15, 2013

कछुए की पीठ का रेखागणित ...



"हम सब मशीन है तुम भी मैं भी ..."
......................................................
..................................................
.........................................

और मशीनों का क्या होता है ...
शून्य ...
शून्य / शून्य = शून्य परिणति ...
कुछ भी नहीं ...
हाँ कुछ भी नहीं ...
कभी भी नही ...
कहीं भी नहीं ...

कि क्यों सारे दिनों की शुरुआत सर्द और मशीनी है ...
कि क्यों इनमें नहीं है पीले फूलों पर पड़ती हुई पीली धूप ...

कि क्यों इनमें नहीं है आँच अपर चढ़े चाय के पानी में
मनचीती आकृतियाँ उकेरती अधघुली वो भूरी रंगत ...

कि क्यों है यह एक ऐसा मौसम जिसके तीसों दिनों के अम्बर पर लिखा हुआ है उसके ना होने वक्तव्य ...

कि क्यों ऐसे 'ना-अम्बर' की सुबह की खामोश ठहरी हुई
धुँध को छू कर खिड़की से
तिरछी रेखाओं में फिसल कर
कमरे में उतारते हुए
किन्ही मुलाकातों के नीचे
डूबे पड़े क्षण ,
अपनी डुबक के बुलबुलों में से
सर उठा कर बस एक साँस भरने भर में ही
कैसे तो कह ही डालते है ...
साथ और संगतियों का
मरे पड़े होना ...

कि क्यों कछुए की पीठ पर जनम से चिपकी उसकी पृथ्वी से जड़ होते है
अक्सर ही हमसे चिपके हुए संबंधों के विरसे ...

कि चुके हुए
मुर्दा संबंधों का
और-और जिन्दा होते जाना , हमारी पहचान में जुड़ते जाना ,
उनको ही हर पल ढोते हुए चलते चले जाना ...
जीवन के नरक होने की निर्मिति के सिवाय कुछ भी नहीं है ...

कि नरक भी एक अहसास है ...  अहसास भी निर्मिति है ... ???

अक्सर ही जीवन कछुए की पीठ का रेखा गणित है ...


~~~हेमा~~


Post Comment

Monday, October 28, 2013

... अपने स्वप्नों की मजदूर हूँ ...



जब भी
तुम जाते हो
जाने क्यों
अपने पीछे के
सारे दरवाजे बंद कर जाते हो
उन पर सात समंदरों के
बेनाम-बेबूझ
सात ताले जड़ जाते हो ...
और अपनी मायावी जेब के
पाताल लोक के
किसी कोने में कहीं
डाल लेते हो
सात  तालों की एक
भूली हुई सिम-सिम
तुम्हारी भूली हुई दुनियाँ में
तुम्हारे पीछे
मैं स्वयं को
उठाती हूँ रखती हूँ
झिर्रियों से घुस आई 
खुद पर जम कर बैठी धूल
झाड़ती हूँ पोंछती हूँ
रोशनदानों  की बंद मुट्ठियों
से रिसती धूप से
खुद  को
माँजती हूँ चमकाती हूँ
अकेलेपन की
एकत्रित  भीड़ को धकियाते हुए
अपने अंतहीन सपनों में
फावड़े में
तब्दील हुए हाथों से
खोदती हूँ
मुक्ति की एक अनंत सुरंग ...




~~~हेमा~~~


(समकालीन सरोकार  सितम्बर-अक्टूबर २०१३ अंक में प्रकाशित )

Post Comment

Saturday, October 26, 2013

दाँव ...


भागती हुई
रेलगाड़ी में
निचली बर्थ के
खोंचक लगे
उस  कोने में ,
घुटनों में
अपना बाँया कान और
थोडा सा ही माथा दिए
वह औरत
अपनी दसों उँगलियों को ,
हद से बाहर रगड़ी
घिसी हुई
सार्वजनिक खिड़कियों की
काली पड़ गई
सलाखों पर कसे हुए
करती है प्रतीक्षा ...
तेजी से गुजरने वाले
पुलों के नीचे से
बहती नदियों के
अपनी आँखों में
उतरने का ,और
उन आँखों में
उठती  आवाज़ के
अपने ही कानों में
सुने जाने का  ...
बस ऐसे ही
उसकी प्रतीक्षा
सर उठाती है
और खँखार कर फेंकती है
खूब ही ऊँचा उछाल कर
आवाज़  के दरवाजों पर चिपका
तुम्हारा ही बैठाया
एक खोटा काला सिक्का ,
और जैसे ...
खेल डालती है ...
भरी सभा में ..
अपनी मन्नतों का
एक दाँव ...
सिर्फ अपने लिए ...


~~हेमा~~
समकालीन सरोकार सितम्बर-अक्टूबर २०१३ अंक में प्रकाशित

Post Comment

Monday, October 21, 2013

विश्वास के दसवें पर ...

अपनी सत्ता के मद में चूर
घर में रहती स्त्री
जैसे नींद के किसी
अलसाये बिस्तर से उठा कर
एक दिन अचानक ही
पहुँचा दी जाती है
बड़े साहबों की
बड़ी दुनियाँ के
बड़े से दफ्तर में ...

अनगढ़-अनपढ़
पर व्यवस्थापन की
तमाम भाषाओं के
अभ्यस्त हाथ
संभाल लेते है
बड़े साहबों की
बड़ी गृहस्थी की
बड़ी झाड़-पोंछ
बड़ी साज-संभाल
कर्मचारियों की
राजनीतिक-गैरराजनीतिक  उठा-पटक
व्यवसायिक संबंधों की देखभाल
टूट-फूट, मरम्मत और नई आवक ...

उड़ती हुई तितलियाँ
और उनके पँख
गिनता हुआ
ठीक एक स्त्री की तरह
एक चमकीला इतराता हुआ दिन ...
अपनी पलक की झपक में
कहीं से बीन कर, उठा लाया था प्रलय ...
इतराते हुए दिन के
इठलाते पल्लू के किसी छोर पर
एक अलमारी का
छिप कर बैठा हुआ
चोर कोना,
खोल देता है अपना मुँह
और उलट देता है
'कुछ मीठा हो जाए' की
ढेरों बखटी चमकीली पन्नियाँ ,
सूखे गुलाबों के कंकाल ,
उड़ चुकी खुशबुओं की
ढनकती शीशियाँ ,
रुमाल की आठ परतों में
ढँका-संभला
एक अनजान स्पर्श ,
ढाई आखरों से टंकित सन्देश ...

काँपते हाथ और धुआंई आँखे
दबा डालती है
मुँह और स्वेद कणों में
उतर आये कलेजे का गला ...

अब तक जलसाघरों में ही बैठे रहे
समय की दृष्टि में
उभर आती है
एक अंतहीन
बेजवाब महाभियोगों के
सवालिया सिलसिलों की
खूब गड़ा कर
उकेरी हुई लिखाई  ...

गठबंधन की राजनीति की
सारी धुरियाँ पलट जाती है
सत्ताएं त्रिशंकु हो जाती है ...

जिंदगी के अंत:स्थल पर
उभर आती है
एक संसद और
दोयम ईंट की नींव पर
उधार के विश्वास का
सूदखोर संविधान ...

जिसके पटल पर
विश्वास मत
शरणार्थी हो कर
किन्ही जर्जर सरायों में
छिपा लेते है
अपना घात लगाया हुआ मुँह ...

आस्थाओं के बीज खो बैठते है
अपनी सारी उर्वरता ,
अंधे रास्तों पर
सिर्फ चला जाता है ...
प्रकाश स्तंभों से आते
अनदेखे प्रकाश स्रोतों की
आभासी बैसाखियाँ
सूखी जमीन की
साफ़ आँखों में
अचानक बेवजह ही उग आये
मोतियाबिंदों के सफ़ेद माड़े और धुंधलके
कभी साफ़ नही कर पाती ...

उतरी हुई रंगतों वाली
सर घुटी मुस्कुराहटों की
झुकी कमर , फिर कभी
सीधी नही होती ...

अब कुछ भी हो जाए
या फिर कर लिया जाए
ज़िन्दगी की पीठ पर
औंधे मुँह गिर पड़ी
आस्थाओं की देह पर गड़े
विश्वासघाती बखटेपन के
नुकीले पँजे
फिर कभी भी नहीं हटते ...


~~~हेमा~~~


(समकालीन सरोकार सितंबर-अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित )

Post Comment

Friday, September 13, 2013

खामखाँ के भाई लोग ...

डिस्क्लेमर :
(..... यह पोस्ट मेरे अकुंठित मित्रों के लिए कतई नहीं है उनसे अनुरोध है कि वह पूर्ववत अपनी लय और मौज में रमे चलते रहें और मस्त रहें ......)

अरे यार यह भाई लोगों की समस्या (... ???????????? ...कुंठा ) क्या है ......

अकाउंट मेरा ... दीवार मेरी ... अहवाल मेरे ... और तस्वीरें भी मेरी ...

मैं रोज परिवर्तित करूँ ... ना करूँ ...

अपनी लगाऊं ... खेत-खलिहान ,इंसान ,इल्ली-बिल्ली किसी की भी लगाऊं ...

तुम्हे क्या जी ... तुम्हारा क्या जा रहा है ...

"जी हमारी तस्वीरों पर तो कोई नहीं आता कोई कमेन्ट नहीं करता आपकी पर सब दौड़े चले आते है आप स्त्री हैं ना ..."

तो यह हमारी समस्या है ... और नहीं है तो बना दो ...

दिन भर दूसरों के लाइक्स और कमेंट्स की गिनती और महानतम तुलनात्मक अध्ययन कर-कर समय खोटा करने वाले और आए दिन इसी बाबत कुंठाओं से जलते स्टेटस डालने और संदेशिया बक्सों में वक़्त-बेवक्त टपकने उंगली उठाने वाले महानुभावों ...

नहीं देखा जाता तो अमित्र करो ,ब्लॉक करो, दूर रहो और कट लो बहुत तेज़ी से ...

यार तुम्हारा दिल जलता है ...तो पानी डालो उस पर दो चार बाल्टी भर कर ...

और नहीं तो ख़ाक हो जाने दो ऐसे मुए जलकुकडे दिल को ... जिससे एक तस्वीर नहीं देखी जाती ...

ना करो कमेन्ट ना करो लाइक ... चुपचाप निकल लो ना ज़ुकरबर्ग की पतली वाली गली से ...

आखिर इन पर मधुमक्खियों की तरह टूट कर जमावड़ा लगाने वाले भाई लोग भी आप ही में से आ रहे है ना किसी दूसरी दुनियाँ के एलिएंस तो नहीं है ना ...

नहीं भाई अपनी जलकुकड़ कुंठा उडेले बिना कैसे चले जायेंगे जी ...

उगलना जरूरी है ना ...

मेरी दीवार मेरी जगह है मेरा अपना कोना ...

मेरी मर्जी ...

मेरी दीवार और संदेशिया बक्सा आपकी उल्टियों के लिए कतई नहीं है ...

जाइए दफा हो जाइए ...

और अपने आँगन में जा कर अपनी कुत्सित मानसिकता के पेड़-पौधे लगाईए ... और उसके फल-फूल खाईए ... उसकी फसल काटिए और अपने विकारों के गोदाम खुद ही भरिये और खुद ही सिर्फ अपने लिए ही सहेजिये ...

वाह जी ...अच्छी थोपी हुई वाहियात पुलिसिया श्रीमान खामखाँ वाली नैतिक जबरदस्ती है कि अपने विचार साझा करो दिन में कितने भी बार पर अपनी भौतिक उपस्थिति (दैहिक )जिसके अंतर्गत ही विचार भी उपज रहे है उसे ना साझा करो ... और अगर करते हो तो आपमें कुछ तो गड़बड़ है ... कुछ झोल-झाल लोचाइटिस आपमें घुसा कर थोप कर  ही मानेंगे ...

दिमाग का तो दही कर दिया है खामखाँ के भाई लोगों ने हाँ नहीं तो .... 

ससम्मान खुद विदा हो ले तो बेहतर ...

नहीं तो ...
 — feeling accomplished.

Post Comment

Monday, August 26, 2013

वो फाँसे तो कभी निकाली ही नहीं गई ...


बचपन की माटी में संग-साथ इक्कड-दुक्कड़ खेलती ...

बेर का चूरन चाटती ... माँ की नजरों से छिप भरी दुपहरी टंकी के पानी में मेरी संगाती ...

गुड़िया-गुड्डा, नकली के ब्याह और घर-दुआर रचाती ...

दुपट्टे की साड़ी बाँध मेरी माँ सी हो जाती ...

खंडित हों गये व्रतों में तुलसी पत्ता खिला उन्हें अखंड कराती ...

मेरी बेहद-बेहद अपनी ... जैसे मेरा मैं ही हो कर बीजित ...

मेरी अनन्य सखी ...


उसके ब्याह और उसके बाद की व्यथा मेरे अंतर में
उसकी घनी काली घुँघर वाली केशराशि की तरह अपना सर्पिल विस्तार बनाए बैठी ही रही है ...


अपना फन काढे जब-तब नश्तर चुभाती ...


सच्ची-मुच्ची के ब्याहों का झूठापन ...


उड़ते प्राणों का सजी-धजी गुड़िया ही हो जाना ...

वो काली अँधेरी स्मृतियाँ ...


सब कुछ ठीक हो जाने और गृहस्थी सुचारू हो जाने से मर नही सकती ...

वो फाँसे तो कभी निकाली ही नहीं गई ...


उनके डेरे तो कभी उखाड़े ही नही गये ...


इस लिखत के शब्द तो बस उस पीड़ा की गुजरन की


उन अनंत आहों में से मात्र एक ही साँस भर है ....

Post Comment

इसका कहीं अंत है कोई ...

लानत है इस देश की कानून व्यवस्था पर ...

अब कौन बचता है जिसकी ओर देखा जा सके ... स्त्रियों और बच्चियों की रक्षा और संरक्षण हेतु ...

इस निर-आशा के नाटक के परदे का कोई गिरावनहार है ही नही ... क्या करे किस पर भरोसा करे ...
वैसे ही चारों ओर बेहद निराशा ही निराशा है ...

मात्र पार्क से घर के दरवाजे तक भी हजार निगाहें आपके अग्र और पार्श्व पर चिपक कर आपके घर के अंदर तक घुस आती है ...

पीछे से गूंजती हुई हँसी,फिकरे,फुसफुसाहटे, दबंगई से किये इशारे और नोच-खसोट सदियों से पीछा कर रही है ...

इसका कहीं अंत है कोई ...

सामान्य जीवन मिलेगा कभी, किसी तरह ...

कैसे उम्मीद बनाये रखे और किस पर ...

भेजिए समन और मांगिये अपराधियों से गिरफ्तार हो जाने की भीख ...

भिखारी व्यवस्थाओं के कटोरे में डाल दीजिये अपना हक और स्वाभिमान ...

देखते रहिये सार्वजानिक पटल पर निरंतर घटित किये जाते बलात्कार ...

जहाँ न्याय-व्यवस्था ऐसी रीढ़विहीनता में उतर जाए वहाँ जनता विकल्पहीन ही है ...
 — feeling angry.

Post Comment

Monday, July 8, 2013

चलो मेरे प्यारे ... कि चलना ही होगा ...



अब तक सिर्फ सुनते आए थे कि मुसीबत जब भी आती है अपनी पूरी सज-धज में पूरे सिंगार-पिटार के साथ लंहगा-चुनरी पहन-ओढ़ कर अपना डेरा-डम्बर ले कर पूरे ठाठ से आती है ...

मिलो तो पता लगता है कि सिर्फ आती कहाँ है पसर कर बैठती है और बाकायदा अपनी ठसकेदार बेमुरव्वत,बेशर्म राजशाही चलाती है ...

यह तो उसके आने पर ही पता लग पाता है कि उसके लंहगे-चुनरी में हज़ार-हज़ार चोर जेबें होती है जिनमें उसके भाई-बहन , बाल-बच्चे , नाते-पनाते भी छिपे बैठे होते है ...

और मुसीबत की मुस्कान की तीखी धार तो बस अच्छी-भली जिंदगियों की देह पर जख्म ही जख्म करना भर जानती है ...

पर इस पर चलने वाले भी कमाल की जान रखते है ...

अपनी जिद के जूते पहन कर नंगे पाँव ही चल पड़ते है ...

सदियों लंबी मालूम पड़ती दूरियाँ सिर्फ एक थामी हुई बात के भरोसे पर नापी जाती है कि इतिहास गवाह है अपने पैरों पर चक्की के पाट बाँध कर चलने वाला यह भारी वक़्त भी आखिर गुजर ही जाऐगा ...

अपनी जिजीविषाओं की डूब के मारे, मुस्कुराहट की उंगली थाम कर चल पड़ते है ...

परेशान वक़्त के आईने में अपनी जरा बिगड़ गई तस्वीर आप ही संवारते है और खुद के कन्धों पर हाथ रख कर कहते है ...जीवन की गति न्यारी है ... चलो कि चलना ही होगा ...

चलो मेरे प्यारे ... कि चलना ही होगा ...

Post Comment

Wednesday, June 19, 2013

मेरा हिस्सा ...



स्यापों से
अपनी नफ़रत को
अब कहाँ ले जाऊं ...

हरे-भरे जंगलों की याद के
किसी अनगढ़
कभी हरी मुस्कानों वाले
पर आज मरी-सूखी आँखों वाले
भूरे पड़ गए उसी पत्थर पर
कैसे और किस ठौर बैठाऊं ...

किसके सर-माथे यह दोषों की गिट्टक फोडूं ...
कहाँ यह रुदन के स्यापे खोल
अपने जट्ट हुए जाते
मन की गिरहें खोलूँ ...

मुस्कुराहटों की
मोटी खाल के नीचे
कभी-कभी
इतना कुछ उबलता है कि बस ...
विक्षिप्तता की
थपकियों के
अलाव की तेज आँच में
कुछ भी बाकी नहीं बचता ...

बाकी बचती है तो बस एक इच्छा
काली राख की भुरभुरी जमीन में
एक तहखाना खोद पाने
और उसमें
दफ़न हो जाने की ...

जंगलों के मरने पर ...

और स्यापों के दौरे पड़ने पर ...

सब कुछ हारी हुई
बाजियों में तब्दील हो जाता है ...

हारी हुई बाजियां
अपने ही मुँह पर
अपने ही हाथों मारे गए
तमाचे है ...
चीख उठते है
गाहे-बगाहे
जिनकी छपी हुई उँगलियों के
गहरे निशान
यह ले शह ...
और ले यह संभाल
अपनी ही रची हुई मात ...

..................................................................................................................................................................................................................................................................................................................................... सूखी हुई आँखे बिना आँसुओं के अपने स्यापों के बेबस हाथ-पाँव पटकती है ... कि हो रही तबाहियों के अपराधियों में एक नाम मेरा है ... कि गुनाहों के उस शहर में एक हिस्सा मेरा है ...
feeling guilty.

Post Comment

Saturday, June 1, 2013

दाँव ...

भागती हुई
रेलगाड़ी में
निचली बर्थ के
खोंचक लगे
उस  कोने में ,
घुटनों में
अपना बाँया कान और
थोडा सा ही माथा दिए
वह औरत
अपनी दसों उँगलियों को ,
हद से बाहर रगड़ी
घिसी हुई
सार्वजनिक खिड़कियों की
काली पड़ गई
सलाखों पर कसे हुए
करती है प्रतीक्षा ...
तेजी से गुजरने वाले
पुलों के नीचे से
बहती नदियों के
अपनी आँखों में
उतरने का ,और
उन आँखों में
उठती  आवाज़ के
अपने ही कानों में
सुने जाने का  ...
बस ऐसे ही
उसकी प्रतीक्षा
सर उठाती है
और खँखार कर फेंकती है
खूब ही ऊँचा उछाल कर
आवाज़  के दरवाजों पर चिपका
तुम्हारा ही बैठाया
एक खोटा काला सिक्का ,
और जैसे ...
खेल डालती है ...
भरी सभा में ..
अपनी मन्नतों का
एक दाँव ...
सिर्फ अपने लिए ...


~~हेमा~~

Post Comment

न्याय ... ???

न्याय ... न्याय ... न्याय ...
आधी रात ...
आधी नींद उठ कर ...
रक्त-रंजित ,क्षत-विक्षत
स्वप्नों के मध्य
गले की सारी
तनी हुई नसों के साथ
बदहवास चीखती हूँ मैं ...
आखिर तुम
हो क्या ???
...
मौत की सज़ा झेलते
किसी आदमी की अंतिम ख्वाहिश ...

बाज़ारों के खानाबदोश शोर के बीच
हाथ मलती गूंगी आवश्यकता ...

बग़ावत की भेड़ें चराता
हज़ार-हज़ार आँखों वाला कोई लोमड़ी गड़रिया,

या ...
हिफ़ाज़त की स्याही से
भरोसे की रद्दी पर
किया जाता
ताकत का एक फर्जी दस्तखत ...

उम्मीद के गुलदस्ते में
खिलाये जाते है
शोषण के कैक्टस ...

इस अंधे वक़्त की
हथेलियों में
न्याय है
सिर्फ एक अदद
भ्रामक और धूर्त अवधारणा ...

क्या नहीं है ऐसा कि
न्याय रह गया
सिर्फ एक ऐसे
कारतूस का नाम
जिसे सत्ता की
नाजायज पिस्तौल में डालकर
दाग दिया जाना है ...
कभी भी ...
कहीं भी ...
सत्य, धर्म और तंत्र के नाम पर
या उनके ऊपर
जो है -
सत्ताविहीन-रज्जुहीन
तुम्हारे लिए
बस केंचुए भर ...

न्याय ... न्याय ... न्याय ...
क्या यह भी है
बस शब्द भर ... ???




~~~हेमा~~~


(समकालीन सरोकार सितंबर-अक्टूबर २०१३ में प्रकाशित )



Post Comment

Saturday, May 18, 2013

मैं नारीवादी हूँ ...

क्या आप नारीवादी ( Feminist ) कहलाने से घबराते है ...
आपको लगता है कि आप एक घेरे में कैद कर दिये जायेंगे ...
आपको लगता है कि आपको अतिवादी ठहरा दिया जाएगा ...
आपको असहज, असामान्य और अराजक कह कर व्यतिक्रमित कर दिया जाएगा ...
आपको सम्पूर्ण पुरुष समाज के विरुद्ध खड़ा घोषित कर दिया जाएगा ...
आप स्वच्छंद और समाज को तोड़ एवं नष्ट-भ्रष्ट करने वाली स्त्री घोषित कर दी जाएँगी ...
आपके विरोधों एवं अवाज़ उठाने के सभी मुद्दों एवं आधारों को निजी एवं अपवाद स्वरूप कह कर खारिज़ कर दिया जाएगा ...
आपको स्त्री विमर्श में सम्मिलित नक्कारखाने में बजती एक और बेमायने तूती करार दिया जाएगा ...    

आपको एवं आपके लिखे हुए को अतिरंजना एवं उग्रता से संक्रमित कहा जाएगा ...                                 आपको एक समाज बाहर स्त्री के रूप में देखा और कनखियों से मुस्कुराया जाएगा ...

तो ...
इससे क्या ...
गर्व से कहिये कि ...
हाँ ... हम नारीवादी है ...
पलट कर पूछिए नारीवादी होने में क्या बुराई है ...
अपने स्वछंद स्त्री कहलाये जाने का शोक मत मनाइये ...
आपसे बेहतर कोई नहीं जानता कि आप स्वच्छंद नहीं स्वतंत्र स्त्री की पक्षधर है ...

खुल कर और बुलंद आवाज में कहिये ...
स्त्री हूँ उसी दुनियाँ में डेरा है मेरा ...
निश्चित ही बातें वहीँ से उठेंगी और आयेंगी जहाँ जन्मभूमि है मेरी ...

आधी आबादी बाकी आधी आबादी को खलनायक सिद्ध करने को नहीं लिखती और कहती है ...
आधी आबादी लिखना और कहना चाहती है ... प्रतिरोध ...
प्रतिरोध किसका ... वर्चस्व का ...
किसके वर्चस्व का ... सत्ताओं के वर्चस्व का ...

प्रतिरोध ... दम घोंटती, सड़ांध मारती, बजबजाती परिस्थितियों को यूँ ही बनाए रखने की अंधी जिदों का ...
प्रतिरोध ... असहनीय यथास्थितियों के विरुद्ध जबरन चुप साधे रखने की घोट कर लहू में घोली गयी रीत-नीत का ...

लिखा जाता है प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए उन स्थितियों पर जिन्हें देखते हुए भी आँखे बंद रखी और रखवाई जाती है ...

गर्व से कहिये कि हम नारीवादी ( फेमिनिस्ट ) है ...



                                                                                                        -  Painting A self-portrait of Frida Kahlo

Post Comment

Sunday, May 12, 2013

तुम्हारा तो कोई भविष्य ही नहीं है ... :/





पोलिटिक्स सिर्फ इतनी है बॉस ...

कि चलना है तो हमारे जूते पहन कर चलो ...
 

हाथ उठाना है तो उसमें हमारे वाद का झंडा बुलंद करो ...

नहीं तो तुम्हे साँस लेने लिखने-बोलने, 

दुनियाँ में होने का भी अधिकार नहीं है ...
 

तैयार रहिये ... हे बुद्धिहीनों ... वादहीनो ...
 

कभी भी खाए-चबाये या दबाये जाने के लिए ... 

तुम्हारा तो कोई भविष्य ही नहीं है 

... नामुराद 'पंथ' विहीनों ...
 

मैं देखती हूँ ... सुनती हूँ ... समझती हूँ ...
 

शब्दों ,पंक्तियों,ध्वनियों के मध्य गूँजते हुए ...
 

सिर्फ नफरत ...नफरत ...नफरत ...
 

सिर्फ अस्वीकार ... अस्वीकार ... अस्वीकार ...
 

सहअस्तित्वों का सर्वनाश ... :(((

Post Comment

Saturday, May 11, 2013

'आईना' जो आम तो बिलकुल ही नहीं है ...

अभी तक तो हम यही जानते थे कि 'आईने' आत्म-दर्शन का माध्यम हुआ करते है ...

आज एक बहुत-बहुत बड़े आदमी के 'आईने' का प्रदर्शन देखा तो पता लगा कि तथाकथित बौद्धिकों के तो 'आईने' भी उनके बड़ेपन के घोर बौद्धिक घमण्ड का आत्म-प्रदर्शन हुआ करते है ...

भाई यह बड़े-बड़े लोग किस कदर अपनी अर्जित पूंजियों के प्रदर्शन को बौद्धिकता के छौंक के साथ प्रदर्शित करने के लिए तरसे-टपके जा रहे है ...

दरो-दीवार अब घर के होने के लिए नहीं है बल्कि यह दिखाने के लिए है कि हमारी तो दीवारे भी बुद्धिजीविता की साँसें भरती है ...देखिये किस-किस और कितने बड़े नामों की कलाकृतियों के ओढने-बिछौने से ढँकी-तुपी है ...

बकमाल मुफ्त की प्रदर्शनियाँ है भाई ... कोने-अतरों तक के वैभव प्रदर्शन के सोचे-समझे दर्शन के बौद्धिक प्रतिस्थापन की ...

फेसबुक पर अभी बौद्धिक पूंजीपतियों के शक्तिप्रदर्शन के दौर-ए-आँधियों का वक़्त है ...

बहुसंख्य किसी चमत्कृत मतिभ्रम के तहत जैसे इस नव-दर्शन की शक्ति पूजा में नत् है ...

आम-आदमी जरा हट के जरा बच कर चले लपेटे में आने पर सिर्फ और सिर्फ आप दोषी होंगे बौद्धिक पूंजीपति नहीं ...

Post Comment

Monday, April 8, 2013

पाकिस्तानी फिल्म बोल ...



एक बेहद उदास करने और त्रास में डुबाने वाली फिल्म से गुजरने के बाद ...

पाकिस्तानी फिल्म 'बोल' का प्रारंभ एक सामान्य फिल्म की भाँति होने पर यह आभास कतई नहीं होता है जेल में बंद इस लड़की से मिलने आने वाली ६ स्त्रियों का सामूहिक रुदन इसे एक झटके में फिल्म से एक सामाजिक परिवेश में बदल देगा वो भी एक ऐसा सामाजिक परिवेश जो मात्र मुस्लिम समाज या पाकिस्तान का परिवेश ना हो कर एक सार्वभौमिक सा खाका खींच दे ......

"मैं तो सोच-सोच कर मरी जा रही हूँ कि मेरी जान अभी भी नहीं छूटी है, आपका बेटे का शौक अभी भी जिन्दा रहेगा " फिल्म में सैफी के जन्म के समय उसकी अम्मी का अपने शौहर से अभिव्यक्त यह मार्मिक संवाद ही जैसे सारा का सारा केन्द्र बिंदु है पूरी फिल्म और अधिकाँश स्त्रियों के जीवन की मूल मुसीबतों का ...

काबिले गौर बात यह है कि यह स्त्रियां ना केवल मुस्लिम समाज वरन आस-पास नजर उठा कर देखने पर कहीं भी बहुत ही आसानी से मिल जायेंगी.

(पुरुष संतान ) पुत्र के जन्म से जुड़ी हुई , पुरुष सत्तात्मक वर्चस्व को शाश्वत रूप में मूर्तमान रखने की इस चाहना के इर्द-गिर्द ऐसा जबरदस्त मकडजाल धर्म और समाज ने मिल कर बुना है कि जीवन की छोटी से छोटी खुशी भी जैसे मरी हुई पड़ी है ...

कुछ भी सरल सहज और जीने लायक नहीं बचता है ...
 अपने कार्य के दौरान अक्सर ही मैं ऐसी स्त्रियों से मिलती हूँ जो इस फिल्म में चित्रित मात्र १४ नहीं १७-१८ बार तक गर्भवती हो चुकी है! शारीरिक ,मानसिक ,सामजिक और आर्थिक सभी स्थितियों से बुरी तरह थकी और टूटी हुई .पर मजाल है कि आप उन्हें परिवार नियोजन के किसी भी उपाय के लिए रजामंद कर सके! ऊपरवाले के कहर के बरपने का खौफ उनकी जिंदगी में इस कदर भरा हुआ है कि वो मरने को तैयार है ... भूखे पेट बच्चे पालने को तैयार है ...  ५-७ की उम्र से बच्चो को आर्थिक सहयोग सम्पति के रूप में इस्तेमाल को तैयार है पर हमें सुनने से उनकी तौबा है !


यह फिल्म बहुत सारे ऐसे सवाल खड़े करती है जो इसी वर्चस्व की लड़ाई से जुड़े है ...

मेरी कामना है कि ऐसे बहुत सारे विरोध के बोल मेरे आसपास मुझे सुनाइ दें और इस फिल्म के पात्रों जैसी बहुत सारी सशक्त स्त्रियाँ बाजी,आयशा और मीना सरीखी मुझे मिले जो अपनी अम्मियो को उनकी जिंदगी के मायने कुछ यूँही उनके अपने लिए दिखा और दे सके ................ "



Post Comment

Monday, April 1, 2013

फितरत ...

विवादों की
आदतों में शुमार है ...
सतहों पर तैरना ...
उथले पानी ढूँढ
वहीँ पर रहना ...
और मुँहचुप्पी
मंथरा साजिशें ...
उनकी फितरत में है
शातिर पैरों पर
अपना मुँह दाब-दाब 
चेहरें ढाँप-ढाँप चलना ...


नकाबपोश साजिशें,
अनदेखे अँधियारे तलों में ...
गहरे पैठ ...
चलाती हैं  ...
ब्रह्मास्त्रों के
अपने अचूक प्रहार ...


~~हेमा~~

Post Comment

Sunday, March 31, 2013

चंद लम्हे बिना किसी किरदार के ...




अपनी यायावरी की अटैची खींचते हुए अकेली यात्रा पर निकली एक विवाहित स्त्री इतना बड़ा अजूबा क्यों होती है ...

विवाहित स्त्रियों को घूमने के लिए बाहर निकलने के लिए एक साथी और कारण जरूरी क्यों है ...

यायावरी का फल भी निषिद्ध फल है चखना मना है ...
पूरा फल खा जाना तो महाअक्षम्य अपराध है ...

चखने वाली स्त्रियों के साथ और सर पर ऐसे जबरन खोज कर थोपी जाती तमाम समस्याओं के चंद नमूने ...

- लगता है पति से बनती नही है ...

- पति का कोई चक्कर होगा ...

- अकेली है बच्चे हुए नहीं लगता है ... बेचारी ...

- पति की चलती नहीं होगी ... बड़ी तेज-तर्रार दिखती है ...

- विवाहिता की तरह तो रहती नही है ... एक भी ढंग-लक्षण वैसे नहीं दिखते ...

-कहीं तलाक का झमेला तो नहीं है ...

आदि-आदि-आदि ...
 

जैसे हरि अनंत वैसे कारण खोज कथा-गाथा अनंत ...

क्यों भई ... !!! विवाहित स्त्रियाँ स्वतंत्र इच्छाएँ नहीं रख सकती है ...

क्यों अकेले देश-दुनियाँ नहीं देख सकती है ...

क्यों परिवार, पति, बच्चों, रिश्तों-नातों से पृथक भी उनकी कुछ स्वतंत्र इच्छाएँ नहीं हो सकती है ...

हो सकती है ... है ... और होनी भी चाहिए ...

माँ, बहन,बेटी, पत्नी या अन्य किरदारों की जिम्मेदारियों और ममत्व से परे ...

स्वयं 'अपना' किरदार जीने की जिम्मेदारी सर्वप्रथम और सर्वोपरि है ना ...

चंद लम्हे बिना किसी किरदार के ...

अपने साथ अपनी यायावरी में ...




Post Comment

Friday, March 29, 2013

नैनीताल में कनपुरिये होरियारों की याद ...




उत्तराखंड की अपनी इस खात्मे पर आ चुकी यात्रा के अंतिम चरण में आज मैं पुन:  नैनीताल में हूँ ...
यहाँ आज अट्ठाईस मार्च दो हज़ार तेरह गुरूवार का दिन होली खेलने के नाम था ...

मौसम का सुहावनापन उतरती हुई ठंड की धूप के चटक-चमकते गालों में हल्का सा महावर घोल, अपनी ही एक गुलाबी सिहरन दे रहा है  ...

मेरी ठेठ कनपुरिया आँखों के लिए आज बड़े अज़ब-गज़ब कमाल का दृश्य था सुबह-सवेरे मॉल रोड पर नियमित टहलने वालों को बिल्कुल साफ़-सुथरे बिना किसी हिचक के टहलते देखना ...

बाज़ार  दोपहर दो बजे तक के लिए घोषित पूर्ण बंदी पर था ...

प्रातः नौ-दस बजे के लगभग हलके-फुल्के गुलाल-अबीर और रँगों के साथ लोग दिखना शुरू हुए लेकिन हुड़दंग और शोर-शराबा कही भी नहीं था ...

घुमंतू भी थोड़ी-बहुत हिचकिचाहट के बाद मुख्य सड़क का जायजा लेने अपने अस्थायी घरों (कमरों ) से निकल आए थे ... इन घुमन्तुओं में भाँति-भाँति की पोशाकों में लड़कियाँ और महिलायें भी मौजूद थी ... आस-पास से गुजरते होरियारों की मस्ती ने इन की ओर ना तो रँग, गुलाल-अबीर उडाये/ फेंके  ना इन पर किसी भी तरह की छींटाकशी की ना कोई अन्य इशारोंजन्य चलनहारी अभद्रता ही की ...वजह  चाहे जो भी रही हो ...

मेरी कनपुरिया आँखे तो बिल्कुल अलग ही दृश्यों को देखने की अभ्यस्त है ...

वहाँ तो वो होरियार ही क्या हुए जी , जो ढोलक ,ढोल की थाप पर नाच-गा ना रहे हो ... जिनके कदम किसी पिनक में बहके हुए ना हो जो अपने आपे और भद्रता की सारी सीमाओं से बाहर ना हो ...देसी ठर्रे में ऊपर से नीचे तक महमहाते होरियार तो जो गज़ब ना ढा दे सो कम ... होरियार वो थोड़े ही है जी, जो  गुलाल-अबीर और रँग, गुझियाँ भर की हुलास से अपना त्यौहार मना लेवे ...

ना भई ना ...

होली का खेला पूरा नहीं होता जब तक रँग, गुलाल-अबीर की संगत में कीचड़-कादा,गोबर ,टट्टी-पेशाब की भी पूरी महफ़िल ना सजा ली जाए ...  किसी के पहने हुए कपड़ों को फाड़ कर नाली और कीचड़ में डुबा-डुबा कर बनाए गये पीठ तोड़ पछीटे लिए गली-गली चोई की तरह उतराते होरियार ...

सफेदे में पोत कर नग्न दौडाये जाते चितकबरे लोग ... रूमालों की बीन बनाये सम्पूर्ण नाग अवतार में ज़मीन पर लोट-लोट कर सामूहिक नागिन नृत्य करते लोग ... माँ-बहनात्मक गलचौर के रस में सम्पूर्ण माहौल को भिगाते लोग ...

शीला की जवानी में मदमस्त , मुन्नी बदनाम बनी तमाम कारों पर सवार लोग ...  जलेबीबाई  की तर्ज पर जैसे किसी पगलैट होड़ में कमाल के कमरतोड़ नाच मे अंधाधुंध डूबे और दौड़े चले जाते है ...

चार-पाँच की सवारी ढोती,कर्फ्यूग्रस्त सी सहमी सड़को को अपने ट्रक छाप होर्न और बेतहाशा गति से थर्राती  मोटरसाइकिलें ...

स्त्रियाँ और लड़कियाँ इन होरियारों को सिर्फ देख सकती है अपने-अपने सुरक्षित ठिये-ठिकानों से ...
स्त्रियाँ और लड़कियाँ अपनी हदबंदी में ही होरियार होती है ना बस ...

अरे  हाँ .. लड़कियों एवं स्त्रियों को तो होलिका दहन देखने की मनाही होती है ... वो घर के अंदर रहती है दहीबड़े,काँजी,गुझियाँ ,पापड,चिप्स इत्यादि तलती हुई ... पुरुष जाते है बाहर होलिका दहन में गन्ना और गेंहूँ की बालियाँ भूंजने और बल्ले की माला चढ़ाने ... 

और तिस पर कानपुर की होली तो अनुराधा नक्षत्र की आठ दिवसीय होली ठहरी ... तिथि की हानि-वानि गिन-गिना कर जिस रोज भी गँगा मेला पड़ जाए उसी रोज गँगा जी पर लगे मेलें में रँगे-पुते चेहरों के साथ सफ़ेद कुर्तों-पैजामों को पहन कर गलभेंटी के बाद ही समाप्त होगी ...
हाँ यहाँ  भी महिलायें नामौजूद होती है ... :(

कनपुरिये गँगा-मेला के दिन परेवा से भी ज्यादा रँग खेलते है ऊपर वर्णित समस्त प्रकार के साजो-सामान से लैस हो कर ...

घनी आबादी और मोहल्लों में लड़कियाँ और स्त्रियाँ आज भी इन दिनों घरों से निकलने में घबराती है ...
कोई भी कहीं भी कभी भी आप पर रँग या और कुछ भी फेंक सकता है ... इन होरियारे दिनों में किसी के भी घर जाने पर आपका रँग,गुलाल अबीर मय होने से बचना तकरीबन नामुमकिन ही जानिये ...

गँगा-मेला के रोज सिर्फ कानपुर क्षेत्र में स्थानीय अवकाश घोषित होता है ...

मुझे याद है गँगा मेला वाले रोज मेरी हाईस्कूल की अंग्रेजी की परीक्षा पड़ गई थी ... पर्चा खत्म कर अपने सेंटर से हम चार लड़कियाँ लवकुश रिक्शेवाले के जिम्मेदारी के पँख लगाए फरर-फरर उड़ते रिक्शे पर सड़क पर उड़ी चली जा रही थी ... लड़कों के एक स्कूल के बगल से गुजरने पर हम पर रँग, अबीर गुलाल के साथ-साथ कीचड़ और गोबर की वो जबरदस्त बमबारी हुई ... लव-कुश के पैरों में जैसे उस रोज रॉकेट इंजन लग गये थे,उसका रिक्शा जैसे किसी उड़नखटोले में तब्दील हो गया था ...गरियाते होरियारों को पछाड़ने को ...

रँगी-पुती स्कूल ड्रेस और गोबर कीचड़ में लस्तम-पस्तम होने पर बिना किसी गलती के भी फटकारों के चलनहारे माले तो हमें ही पहनने थे सो घर पर वो भी पहने ही गये ...

एक  बार अपने छुटपन में मैं अपनी नानी के घर बेहद घनी आबादी वाले मोहल्ले धनकुट्टी में थी ...
अपने बालपन में भी स्त्री जन्य निषिद्ध स्थिति के अंतर्गत, दुखंडे के छज्जे पर लटक-लटक कर होरियारों की ग़दर काटू हुड़दंग को ही अपने लिए निषिद्ध होली मानते हुए ललचाते हुए देख रही थी ...
तभी नानी, माँ का घर का नाम लगभग चिल्लातेहुए , भागते हुए आई ,"बिट्टन, बिटेवन का अंदर करि लेव , मुनुवा केर सबै कपरा फारि डारे गये "... ये लो माँ तो जब आती तब आती मुनुवा मामा (मामा के सभी दोस्त हमारे मामा कहलाते थे ) साक्षात अपने दिगम्बरी स्वरुप में चमचमाते सफेदे मे लिपटे सड़क पर दौड़ लगाते अवतरित हो चुके थे ...

ठीक दो बजे यहाँ नैनीताल में होली समाप्ति की घोषणा करती एक गाड़ी गुजरी और बस होली खत्म ...
जैसे इसी घोषणा के इंतज़ार में मुँह डाले बैठे सड़क-बाज़ार एवं  दुकाने चटा-पट खुल गये ...

नैनीताली घुमन्तुओं की फैशनपरस्ती रास्तों पर लहलहा कर खिल उठी ...

मंद बोटिंग और घुमाई की गति ने जैसे स्केट बोर्डों की सवारी पकड ली ...

सबेरे से चुप्पे पड़े खाने-पीने के अड्डे और रेस्तरां अपने दरवाजों की आवाज़ों के ताले खोल जैसे स्वागत-स्वागत कह उठे  ...

मैंने ठंडी सड़क पर पाषाण देवी मंदिर के पास वाली सीढ़ियों पर अभी भी दबे पाँव मौजूद हो गये एकांत का भरपूर आनंद उठाया ...

कनपुरिये  होरियार घोषणाओं वाली ऐसी-वैसी फ़ालतू की बात पर अपने कान भी नहीं धरते है ...
शाम पाँच बजे तक भी होली का हुड़दंग और शोर-शराबा चल सकता है ...

एक कनपुरिया स्त्री के रूप में मैं कानपुर में होली की भरी दुपहरी में ऐसे आनंद और सुबह-सवेरे की शांति की ऐसी कोई कल्पना भी नहीं कर सकती ...

वक्त आज भी इस मामले में बस शायद नाखून बराबर ही बदला हो  ...

भाई हम तो बेहिचक कहेंगे कि हम कनपुरिये होरियारों से बहुत ही भय खाते है ...





Post Comment

Saturday, March 16, 2013

इतराते-इठलाते जंगल ही जंगल ...


 अपनी छोटी चक्का चलन्तु अटैची मे एक काली,एक नीली जींस,दो शर्ट ,तीन टी शर्ट, समय-कुसमय पहने जाने के लिए एक-दो सलवार कुर्ता,एक अदद डायरी, मेरा लैपटॉप ,कुछ एक अन्य जरुरी सामान डाल कर अपने बेहद प्रिय गुलाबी सफ़ेद स्पोर्ट्स शूज पैरों में कसे ...
मैं आजकल कुमायूँ खण्ड के छिपे सुदूर अनछुए बेहद खूबसूरत कोनों की यायावरी में हूँ ...


दूर-दूर तक दृष्टि जहाँ तक अपने पाँख-पाते फैला सके ...
स्वयं को ले जा सके सर्पिल रास्तो से चलते हुए या पहाड़ से घाटियों तक उतरते हुए ...
जंगल ही जंगल अपनी हरीतिमा के लहँगे पसारे ...
अपनी दोनों बाँहें खोले बेतरह मुझे पुकारते और अपनी ओर खींचते ...
आजकल जैसे अपनी चाहतों की माँग में बुराँस ही बुराँस सजाये बैठे है ...
मन इनके साथ ठहर गया है कहीं जाने को राज़ी नहीं है ... :(
हम जितना पा जाते है उससे कहीं और ज्यादा चाहने लग जाते है ...
  
प्लम के और आडू के पेड़ बिना एक भी पत्ती वाली ढेरो शाखाओं में सफ़ेद और गुलाबी फूल ही फूल सजाये पूरे अंचल में छितराए हुए है ...
सेब के बागों में अभी सूनेपन का वास है पर बस कुछ ही दिनों में वहाँ भी बसंत ही बसंत अपने फूलों के पँख खोले बिछा होगा ...
आबादियों और बाज़ारों की भाग-दौड़ से दूर सन्नाटें अपनी ही भाषा बोलते है ...
एक मोटर-गाड़ी या एक हांक की या चिड़ियों और हवाओं की आवाज़ भी देर तक और दूर तक सुनाई देती है ...
सीढ़ीदार खेतों के घुमावों पर गेंहूँ की पौध अभी बालेपन में है ...
कहीं-कहीं तैयार माटी में आलू के बीज बोने की तैयारी है ...


इन सीढ़ीदार खेतों में बैलों को मुड़ते-घूमते ,ठिठकते और जुताई होते देखना मैदानों से बिल्कुल अलहदा और रोमांच देने वाला अनुभव है ...
यहाँ भी खेतों में निराई-गुड़ाई करती मिलती है स्त्रियाँ ...
बिल्कुल मुँह-अँधेरे सुबह-सवेरे चीड़ ,बुराँस,बाँज की लकडियाँ काट कर ले जाती स्त्रियाँ ...
नीचे कहीं मौजूद हैंडपंप या पानी के किसी स्रोत से पानी के भारी पीपे ढोती या घरों से लाये ढेरों कपड़े धोती स्त्रियाँ ...
५-६ कि. मी. पहाड़ी उतार-चढ़ाव भरे रास्ते तय करते स्कूली बच्चे ...
जगह-जगह मिलने वाले गोलू देवता ...
बिसलेरी की ,सॉफ्ट ड्रिंक, और महँगी-सस्ती दारु की खाली बोतलों और पैकेज्ड फ़ूड के खाली पैकेटों,पॉलीथिनों की उडती-फिरती तमाम हुई रंगीनी से पटे गाहे-बगाहे मिल जाने वाले बेहद उदास संतप्त मुर्दाघर मे तब्दील हुए ढलानों के मोड़ ...
मैं यात्रा के सुख-दुःख समेटते, मेरे संग भागते-दौड़ते खेतों, चीजों और लोगों के दृश्यों उनकी बानी-बोली, काम-काज, पहनावे-ओढ़ावे में कहीं भीतर तक अपनी ही एकांतिक यायावरी में गुम हूँ प्रकृति के बीच जाने जैसे किसी खोये सोंधेपन में अपनी बड़ी पुरानी साध घोलते ... लमपुसरिया की और बादलों के शेर,घोड़े,हाथियों और आग उगलते ड्रैगनों की उड़ानों को ताकते ... खुश हूँ ...



(लमपुसरिया -लंबी पूछ वाली एक चिड़िया )

Post Comment

Saturday, March 2, 2013

छुटंकी हथेलियों में स्वादों की पुड़िया ...

 

आज तो मुझे छुट्टी के बाद स्कूल के गेट के बाहर खडे रँग-बिरँगे चूरनवाले, उसकी ठिलिया और अपनी छुटंकी  सी हथेली में दबी पसीजी चवन्नी की याद बेतरह सता रही है ! 
लाल इमली,सादी इमली ,अंदर से लाल बाहर से हरी इमली ,कैथा ,कमरख , बड़हैर ,छोटे-छोटे लाल बेर, गीले चूरन का  गोवर्धन ,पता नहीं किसी ने तेज़ाब से छौंका गीला लाल चूरन खाया है या नहीं उन स्वादों की याद से मेरा मुँह अनगिनत रसो से भीग गया है और मन यादों से! 

मेरी सारी चवन्नियाँ उसी बचई चूरनवाले की ठिलिया ने गपकी है ! अखबारी कागज़ की पुडियो और नन्हे-मुन्ने लिफाफों में बंधी कभी किसी तो कभी किसी चीज के लिए ! आँखे आज भी चूरनवाली ठिलिया पर बचई का धूप तपा चेहरा और खट्टी मुस्कान ढूढती है | 

कभी-कभी जब मेरी चवन्नी बतौर सजा कुपित अम्मा जब्त कर लिया करती थी तो बचई अपनी रोज की ग्राहक की आँखों की ललचाई भाषा पढ़ लिया करता था और उस दिन मेरे हाथ मुफ्त की पुडिया लगती थी ! और पता है रोज की पुडियों की बनिस्बत इस पुड़िया में स्वाद कही ज्यादा हुआ करता था ! :)

घर पर किसी को भी कभी हमारी इस मुफ्त की कमाई की हलकी सी भी भनक हमने नहीं लगने दी. मुफ्त की थाली के ढेरो बँटाईदार जो होते है ... और अगर अपनी दबंगई में हिस्सा ना दो तो जाने कौन अपनी लगावा-जुझाई की पूँछ से अम्मा के कानों में आग लगाता और हमारी पीठ कुटवाता ...
बचई की ठिलिया आज भी आबाद है ... बचई की जगह अब उसके कुछ ज्यादा धूप तपी रंगत वाले लड़के भुल्लन ने ले ली है और मेरी जगह स्कूल के दूसरे बच्चों ने ...
भुल्लन मुझे नहीं पहचानता है ... यूँ तो बचई होता तो वो ही कहाँ पहचानता मुझे मेरी छुटंकी हथेलियाँ बड़ी जो हो गई है ... और चवन्नियाँ भी तो समय की परतों में खो गई है ... :( 
इमली खाने की तो ऐसी शौक़ीन थी हमारी जबान कि एक बार किसी ने खबर दे दी कि फूलबाग में बिजलीघर के पास एक बहुत बड़ा और पुराना इमली का पेड़ है और इमली से लदा भी है ...
एक दुपहरी हमने अपनी दुपटिया सटकाई और काली छतरी ले कर पहुँच गये बिजलीघर के अहाते में ...  अपनी काली छतरी के साथ फ्रॉक पहने और चूंकि धनियाँ-मिर्ची, आलू लेने निकले थे तो एक झोला भी थामे थे ....
 उस दुपहरी पता नहीं हम शायद कोई कूड़ा बीनने वाले बच्चे की छवि प्रस्तुत कर गये वहाँ घूमते एक आवारा कुत्ते की आँखों में ... उन कुत्ते महाशय ने बिजलीघर के अहाते के चारों ओर जिंदगीभर याद रहे ऐसे दौड़ाया ..  उन कुत्ते महाशय से कहीं ज्यादा जोरों से हम बचाओ-बचाओ भौंके होंगे ...चीखा-चिल्ली से बिजलीघर से दो-चार आदमी निकले उन्होने दो-चार ढेले फेंक कर कुत्ते को भगा दिया और इस तरह हमें बचाया गया ...
उस दिन के बाद हम  फिर कभी किसी के अहाते में इमली चुराने नहीं गये ऐसा तो नहीं ही था अलबत्ता हम पहले से ही खूब ठोंक-बजा लेते थे कि आस-पास किसी कुत्ते महाशय का वास तो नहीं बस   ... :)  
इनके साथ एक और भी स्वाद है इतना खट्टा खाने के लिए गाहे-बगाहे अम्मा से पड़ने वाले जोरदार धमक्के और उनके शब्द ,"अरे लड़की ! खून पानी बन जाएगा हड्डियाँ गल जाएँगी मरेगी तू !" आँखों से बहता नमकीन पानी और मुँह में घुलती इमली का पानी ... अद्भुत मेल था ... वैसा मेल और स्वाद मेरी जबान फिर कभी नहीं पा पायी !!!

बचपन के स्वाद क्या बचपने की वजह से इतने अमिट होते है कि हम आजीवन उनसे गले मिलते रहते है!

Post Comment

Monday, February 18, 2013

बहिष्कृत ...




उस पल की मिट्टी
आज भी
मेरे जेहन में
उतनी ही और वैसी ही
ताज़ा और नम है
जैसे कि उस रोज
मेरी उँगलियों के
पोरों पर लिपट कर
उन्हें बेमतलब ही चूमते हुए थी
जब ...
मैंने तुम्हे बताया था कि
'मैं तुम्हारे प्रेम हूँ'
थामी हुई हथेलियों के
नीम बेहोश दबावों के मध्य
जाने कौन से और कैसे
हर्फ़ों में लिखा था तुमने
एक ऐसे
साथ का वचन पत्र
जिसकी दुनियाँ में
प्रेम की खारिज़ किस्मत
ताउम्र रोज़े पर थी ...

~~हेमा~~

Post Comment

Wednesday, February 13, 2013

क्या प्रेम अपनी ही कब्र में लेटा हुआ है ... ???

प्रेम की इतनी माँग ...
क्या प्रेम खो गया है ...
क्या प्रेम सो गया है ...
या फिर कही ऐसा तो नहीं कि वो मर ही गया है ...
वेलेंटाइन दिवस के मननीकरण के नाम पर लहरती पगलैट सी उठा-पटक निश्चित रूप से ऐसे ही प्रश्नों के तीव्र संवेग उठा रही है ..
ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे प्रेम अपनी कब्र में लेटा हुआ है. लुकाछिपी की नींद सो रहा है .हाथो से रूठा हुआ खो सा गया है .
लोग उसकी कब्र के आयत पर अपने खाली हाथो में मुट्ठी भर-भर मिटटी ले कर संतप्त है और उसकी मटियामेट मिट्टी को और खराब करने की होड़ में एक दूसरे को धकिया से रहे है.
एक अजीब सी बौखलाहट है. हर कही आपा-धापी मची है.
उसकी कब्र पर एक जबरदस्त मानीखेज बेहतरीन 'EPITAPH' लिखने की.
इतना बेहतरीन कि मरे हुए इस प्रेम को इसी बहाने अजर-अमर किया जा सके ...
इस कब्र के आर-पार स्मृतिचिन्हो के आदान प्रदान हेतु मेले से लगे दिख रहे है.
किसके चिन्ह कितने सुन्दर और अद्भुत है ऐसे जिनका कोई सानी ना हो की अनवरत खोज चल रही है.
क्या लोगो को ज्वरों में जीने और तप्त रहने की आदते पड़ गई है ...
प्रेम को एक खास मौसमी बुखार के हवाले कर उसका व्यवसायिक राग अलापने वाले सुरों का आलाप चल रहा है ...
स्मृति दिवसों और स्मृति चिन्हों के मध्य प्रेम आखिर तुम हो कहाँ और कुछ बोलते क्यों नहीं ...
गुलाबो,प्रतीक दिलों,केक,गुब्बारों और प्रेममयी ह्रदयचम्पित चीजों से दुकाने बाजार और मॉल पटे पड़े है.
सजे-धजे बाजारों और मॉलों से उठाई गई दिखावटी प्रेम की प्रदर्शनीय यादगारो की बटोरन टाँगे लोग जाने किन टैक्सियों से प्रेम के उतरने का इंतजार कर रहे है ...
तितलियों से भी ज्यादा रंगीन कौंधती लक-दक पन्नियों में लिपटे महंगे-महंगे
ब्राण्डेड उपहारों के बिना तो उसके अस्तित्व के प्रमाण ही ना जुटेंगे .
अब तो प्रेम का व्यापार करने और कराने वाले ही आपको बताएँगे कि आपके प्रेम को कैसे आकार लेना है. क्या गढ़ना है. किस राह जाना है . उसे कहाँ और कैसे जड़ा जाएगा ...
यह आयोजन और इनके चारों ओर बेकली में थिरकते झूठे उत्सव रचाते मोमबतिया रात्रिभोज करते लोग ...
क्या देख नहीं सकते अपनी लिपीपुती आँखों को खूब खोल कर एक बार ही सही ....
ऊपर विराट असीम नीले आसमान में वो जो अपनी छोटी बड़ी असंख्य, कभी मोम के आँसू ना रोने वाली शाश्वत रोशनियाँ बाले बैठा प्रेम ही तो है ...
अनवरत प्रतीक्षारत ...
सतत प्रवाही जीवन जिसमे सब कुछ गुजरता है चिरस्थायी प्रेम के सिवाय ...
वहाँ उसके नाम पर स्मृतिदिवस का मनाया जाना दीमको के महल के मानिंद खोखलेपन को दिखाने के सिवाय कुछ कर सकता है क्या ...

Post Comment

किसी मोड़ पर ...



घटनाएँ...
दीवानों की तरह
हर रोज़
एक नए पैरहन में
नई प्रेतात्माओं में
तब्दील हो जाती है ...
यूँ तो
ओझाओं,गुनियों और भगतों के
छाती पर
पाँव रख कर खड़े होने
और सोंटे मारने में
भरोसा था तो नहीं कभी ...
पर अब
इसके सिवाय
कोई उपाय भी तो नहीं ...

~~हेमा~~

Post Comment

उम्मीद ...



कम से कम
तुम को तो
मेरा यकीन करना ही चाहिए
बिना किसी
दुनियावी अहद के ...
तब
जब कि स्वयं
मैंने बताया था कि
आज धूप के हाथ
बेहद ठन्डे है ...

~~हेमा~~

 


Post Comment

Saturday, February 9, 2013

बेशीर्षक - ४ ...



यह तथ्यों की धरती है
इस पर सबूतों के
पुख्ता और घने
आसमान तने हैं
हर जीवन
एक कचहरी हुआ जाता है
जहाँ उजली राहों की बुशर्टों पर
काले कोटों की भरती है
इस कचहरी के
निरे दरवाजे हैं
जिधर घूम जाओ
उधर ही
एक प्रवेशक दिशा
दिख जाती है ,
इस पार-उस पार
बड़े-चौराहों-छोटे चौराहों
तिराहों पर
कुल जमापूंजियों के
अपने-अपने बस्ते
बाँधे खड़े है लोग

दौडाये जा रहे है
अपने-अपने
अर्जनों की
स्वायत्त दिखती
गुलाम गाडियाँ
किसी की ठण्डी
किसी की गर्म
किसी की आरामदेह
किसी की खच्चर हुई नब्ज़नाड़ियाँ

लगाए जा रहे सब
कहीं निचली-कहीं ऊँचीं
अदालतों की
पेशकारियों में
सफेदी पर रंगी गई
अपनी काली-नीली अर्जियाँ ...

सहती हैं जो
आपतियाँ-अनापत्तियाँ
या फिर
उड़ती निगाहों से
देखे भर जाने की सहियाँ ...

फर्जीवाड़ों के घूरों पर
ढेर है
'
' कोष्ठकों में कैद
स्थाई तौर पर
मुल्तवी इरादों की
बेईमान अर्जियाँ ...

अपने ही हाथों में
अपनी ही
फोटो कापियाँ उठाये
पल-पल रंग बदलती
गिरगिटिया नज़ीरों सी
अपनी ही पेशकश लिए
चलते है लोग ...
 
अक्सर ही ...
सिर्फ चलने भर को
चलते हैं लोग
कहीं नहीं पहुँचते लोग ...


~~~हेमा ~~~



( 'कथादेश' जनवरी अंक २०१३ में प्रकाशित )

Post Comment