Tuesday, May 6, 2014

आखिर क्यों ...

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आखिर क्या और कितना
चाह सकती है
बंद हथेली से कब का छूट चुकी उँगली सी देह वाली
किसी पुरानी किताब की गंध में
दबी पड़ी रह गई एक सिल्वर-फिश ...

कि बस बहुत थोड़ी सी ही तो
जरूरतें हुआ करती हैं ...

देखो वह और उतनी भी नहीं देखी और सुनी जाती है ...
क्यों किसलिए दौड़े चले चले जा रहे हो ...
कहाँ के लिए ...
किसके लिए ...

अपने-अपने हिस्से के
सच्चे झूठों की भुरभुरी पीठ पर लदे
अपने से अजनबी और बेहद अनजान ...

ठहरते हैं हम ...

ठीक उस क्षण -
जब अपने-अपने शवासनों के भीतर
मरे हुए आदमी के स्वांग से उकता कर
कोई ...
सचमुच ही उठ कर
शव में तब्दील हो जाता है ...


... कि अंततः छूट ही जाना होता है ...
........ क्यों जाना आखिर ऐसे ही जाना होता है ...


............. हेमा

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Saturday, April 19, 2014

एक अधिकार अपने साथ दस दायित्व भी लाता है ...



ब्लॉग के मोडरेटर लोग काहे बात के लिए होते है ...
खाली लेखकों से तमाम विषयों पर लेखन सामग्री जुटाने और अपने ब्लॉग पर चेंपने भर के लिए ...
जो मिला जैसा मिला चेंप दिया और परोस दिया ... पाठक तो पढने को तरसा-टपका और भूखा बैठा है न ... और आप उस पर उसकी थाली में खाना फेंकने का अहसान करते है न ...
अक्सर ही वहां प्रस्तुत आलेखों, कविताओं,कहानियों, अनुवादों में वर्तनी और व्याकरण की बेहद गंभीर त्रुटियाँ विद्यमान होती है ... जो उन्हें पढने के प्रवाह और अर्थान्वयन दोनों में व्यवधान उत्पन्न करती है ...

क्या किसी के मन में यह सवाल नहीं उठता कि नेट के द्वारा उच्च तकनीक से संचालित इन ब्लोग्स और ई-पत्रिकाओं में ऐसा नही होना चाहिए ... यह कोई एक बार प्रिंट सो प्रिंट वाला मुद्दा नही है ... यह किसी भी समय अपने को संपादित कर सकते है ... पर नही करते है क्यों ...
यह एक बहुत बड़ा सवाल है कि इन्हें पाठकों की और अशुद्ध पाठ के अपने ही ब्लॉग पर मौजूद होने की जरा भी चिन्तना क्यों नही होती ...

भाषा और मात्राऔं की त्रुटियां तो कोई मायने ही न रखती हों जैसे.. और पुनरावलोकन तो कभी कोई करता ही नहीं...  एक बड़ा सवाल यह है कि लेखक के चूकने पर सुधार के सारे अधिकार और दायित्व किसके होंगे ...
उस सामग्री को अपने उस स्थापित किये ब्लॉग पर चिपकाने से पूर्व क्या उनका इतना भी दायित्व नही बनता कि वह लेखकों द्वारा की गई वर्तनी और व्याकरण की बेहद मामूली, प्रत्यक्ष और प्रथम दृष्टया ही दिखाई पड़ती त्रुटियों को भी दूर करने का साधारण सा प्रयास कर ले ...

बस मोडरेटर हो जाना और ब्लॉग में सामग्री लगाना भर उनकी अधिकार सीमा है ...

ब्लॉग एक बड़ी और स्थापित पत्रिका से कहीं अधिक बड़ी भूमिका अदा कर सकते है ... 
जो ब्लॉग साहित्यिक पत्रिकाओं की तरह चलाए जा रहे है उनके दायित्व साहित्यिक सरोकारों से परे नहीं हो सकते ...

एक बार सोच और समझ कर देखे कि उनकी यह लापरवाही पाठक और साहित्य के साथ क्या कहलाएगी ...

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रानी की कहानी ...




यह भव्य मंदिर बुंदेलों की राजधानी ओरछा स्थित चतुर्भुज मंदिर है भक्तों से सूना ...

घंटनाद एवं आरती-पूजन ध्वनियों से बिलकुल अछूता सा निर्जन ...

यहाँ जाने पर मुझे सुबह-सुबह पुजारी भी नहीं मिले इसमें स्थापित विष्णु प्रतिमा तकरीबन उपेक्षित सी ही है ...

इस मंदिर के ठीक बगल में रनिवास है ... रानी गनेशी बाई / रानी गनेश गौरी का रनिवास ...

यह रनिवास ही वर्तमान में राम राजा मंदिर ओरछा के नाम से विख्यात है ...

चतुर्भुज मंदिर अपने बनने के पश्चात लम्बे अरसे तक बिना किसी देव-प्रतिमा एवं पूजा-अर्चना के यूँही पड़ा रहा उपेक्षित ... राजाओं की हठधर्मिताओं की एक कथा है जो मैंने वहाँ सुनी और उसकी परिणति भी देखी ...

कहते है कि रानी गनेशी बाई भगवान् राम की बहुत बड़ी भक्त थी वो उनके अराध्य थे ... और वह प्रत्येक वर्ष अयोध्या उनके दर्शनों के लिए जाया करती थी ...

परन्तु ओरछा नरेश मधुकर शाह कृष्ण भगवान् के परम भक्त थे वो उनके अराध्य थे और वह प्रत्येक वर्ष उनके दर्शनों हेतु मथुरा-वृन्दावन जाया करते थे ...

तो एक वर्ष ओरछा नरेश हठ पर उतरे कि रानी उनके साथ वृदावन चले उनके अराध्य कृष्ण की अराधना और दर्शनों हेतु ...

रानी ने कहा कि वह अपना अयोध्या जाने का क्रम भंग नही करना चाहती है और वे अपने इष्ट के दर्शनों हेतु अयोध्या अवश्य जायेंगी ... रानी के ऐसे स्वतंत्र और स्वायत्त वचन राजा को क्रोधित करने हेतु पर्याप्त थे ... उन्होंने रानी से कहा ठीक है जाओ और अब तुम अयोध्या ही जाओगी ... परन्तु वहां से ओरछा तब ही वापस आ सकोगी जब अपने इष्ट राम को अपनी गोद में बाल रूप में ले कर आओगी ...

ओरछा नरेश का मधुकर शाह का यह फरमान रानी के लिए एक प्रकार से उनसे सम्बन्ध-विच्छेद एवं ओरछा से निकाला ही था ...

कहते है दुखी एवं बेहद निराश रानी अयोध्या चली गई और वहां उन्होंने सरयू के किनारे कठोर तप किया परन्तु उनके इष्ट न आज प्रगट हुए न कल ...

जीवन, जगत और ओरछा तीनों से ही लगभग निष्काषित हताश रानी अपने प्राण त्यागने हेतु सरयू में कूद गई ...

कहा जाता है कि उन्हें नदी के प्रवाह में से निकालने के लिए जो लोग कूदें उन्होंने रानी को भगवान् राम के बालक रूप के साथ पाया और दोनों को बाहर निकाला ...

कहते है कि बाल राम ने रानी के साथ ओरछा आने की कुछ शर्ते रखी थी जिनमें से एक यह थी कि वह ओरछा में रहेंगे तो वही ओरछा में 'राम-राजा' कहलायेंगे अर्थात ओरछा के नरेश राम-राजा ...

दूसरी यह कि रानी एक बार उन्हें जहाँ रख देंगी वह वही आसीन हो जायेंगे ...

रानी उन्हें अपने साथ लेकर पूरी शान से ओरछा वापस आई और ओरछा नरेश से मिली ... ओरछा नरेश उनके अराध्य के बाल रूप पर और उनकी निष्ठा के समक्ष नत हुए ...

उन्होंने रानी से कहा कि मैं एक भव्य मंदिर प्रभु राम की स्थापना हेतु बनवाता हूँ तब तक तुम इन्हें रनिवास में रहने दो ...

रानी प्रसन्नता पूर्वक राजी हो गई ... प्रभु की पूजा-अर्चना और भोग रानी के शयनकक्ष में होने लगे ...
भव्य चतुर्भुज मंदिर बनकर तैयार होने पर प्रभु अपने वचनानुसार अपने प्रथम आसीन गृह से टस से मस नही हुए ...

ओरछा नरेश की सत्ता भव्यता के प्रतीक चतुर्भुज मंदिर को कभी भी आबाद कराने में समर्थ न हो सकी ...

ओरछा नरेश की प्रभुता सम्पन्नता उनके शयनकक्ष को ही उसी देव का होने से न रोक सकी जिनकी आराध्या होने के लिए उन्होंने अपनी राजमहिषी को अपने शासित राज्य से लगभग निष्काषित कर दिया था ...

जिस रनिवास एवं शयनकक्ष में सिर्फ ओरछा नरेश ही प्रवेश पा सकते थे ... उस समय के चलन को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि परिंदे को भी रनिवास में पर मारने से पहले राजाज्ञा लेनी पड़ती होगी ... वहाँ ओरछा के राम-राजा बैठ गए थे ... और उनके जरिये अति साधारण प्रजाजन भी प्रवेश पा गए थे ... वहां अब ओरछाधीश राम-राजा सरकार अपनी सम्पूर्ण सत्ता में विराजे थे/है ...


मुद्दा-ए-विमर्श : कौन जाने शर्ते प्रभु की थी या फिर प्रभु की ओट में ओरछा नरेश की राजाज्ञा से
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पीड़ित रानी की ...
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डुबकियों के बहाने से ...




.... तो देखिये हुआ यूँ कि पानी तो था बहुत ठंडा ... इस मौसम में भी कुल्फी जमाने के लिए पर्याप्त ... लेकिन बयाना तो हम ले ही गए थे डुबकने का ...
सो हमने सब दोस्तों के नाम की तीन सामूहिक डुबकियाँ लगाई ...

तीन इसलिए कि एक तो हम थोड़े नालायक प्रकार के है ... बचपन से मनाही रही कोई भी शुभ काम तीन बार नहीं करना है ... तो हम बहुत सारे काम तीन ही बार करते चले आ रहे है ... जैसे हम सब्जी में नमक,हल्दी,मिर्च,अदि सभी कुछ तीन बार डालते है ...

दाल-चावल तीन-तीन मुट्ठी निकालेंगे ... चाय में पत्ती,चीनी दूध, पानी सब ही ऐसे पड़ती है कि तीन बार हो ही जाए ... एक वक़्त में घर में बनाई जाने वाली १२ रोटी की जगह तेरह रोटी बनाई जाती है ...

अधिकाँश कामों को जिनमें शुभ-अशुभ के विचार से सँख्या योग के हिसाब से कार्य करने होते थे सब मैंने बिगाड़ कर रखे ... सब्जी दाल चावल हर चीज दोहरा कर परोसने की हिदायत हुआ करती थी ... पर आदत और हठ ऐसी ठहर गई थी कि सब तीन ही बार परोसे जाते थे ...
डांट ,धौल-धप्पे गाहे-बगाहे चलते रहे पर हम यह शुभ-अशुभ के हर विचार का तियाँ-पाँचा कर ही डालते थे और आज तक हर चीज़ में तीन-तेरह कर ही देते है ...

अरे हाँ संदेशिया बक्से में दो मित्रों के अनुरोध थे उनके नाम पर प्रसाद लाने के और चढाने के ...
सो आज मौका पड़ा है तो बता देते है कि मंदिरों में हमारा आना-जाना हमने अपनी किशोरावस्था में ही प्रसाद और फूल-पत्ती की डलिया-दुन्नैया के साथ स्वत: प्रेरणा से बंद कर दिया था ... मंदिरों की भीड़-भाड़ में होने वाली अनुचित छेड़-छाड़ और नोच-खसोट की दुर्दशा से बचने के लिए उठाया गया यह कदम मेरी आज की गढ़न में एक बेहद अहम् एवं आधारभूत कदम सिद्ध हुआ ...

भव्य-खूबसूरत मोहिनी मूर्तियों, उनके स्थापत्य आदि के दर्शनों के लिए जरूर जाते है ...
हाँ उनसे जुड़ी कहानियाँ इत्यादि भी हमें खूब भाती है ...

अत: आप अपनी श्रृद्धा से मुझे पापी दोस्त की श्रेणी में रख सकते है ... इसका मैं कभी बुरा नहीं मानने वाली ... पर हम किसी भी मंदिर में पूजा या मनोकामना की दृष्टि से कभी भी नहीं जाते ... और प्रसाद आदि नही चढाते है तो लाने का सवाल भी नहीं उठता ...

वैसे ज्यादा बड़ी पोस्ट दो-चार दिन रुक कर लिखेंगे ...
आज तो बस इतना बताए देते है कि हरि-द्वार में इस बार पहुँचने पर हमने देखा कि धर्म और मोक्ष के नाम पर किसी शहर को किस कदर रौंदा जा सकता है ... और तकरीबन मौत के घाट कैसे उतारा जा सकता है ...

यह तस्वीर रात लगभग साढ़े दस बजे की है दिन भर और शाम में भी पूरनमासी (पूर्णिमा) स्नान के कारण बेहद भीड़ थी और मैं ऐसे विशिष्ट अवसरों या त्योहारों आदि पर धामिक स्थलों या घाटों पर कतई नही जाती हूँ ... अनुभवों ने सिखाया कि बचाव ,तकलीफ मोल ले लेने पर निदान से बेहतर है ...

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आज हमारे शब्दों पर भाषा पर खूब जाएँ ... जो लिखा है उसके एक-एक शब्द का अर्थ वो ही है जो आपने समझा है ...




एक लेखक और लेखिका साथ खड़े हो कर दो चार बाते कर लिए ...

एक प्रकाशक और लेखिका साथ खड़े हो कर बतिया और दो चार बार मुस्कुरा लिए ...

एक लेखिका अपने मित्रों और पाठकों से हाथ मिला ली एकाध लोगो से गले मिल ली ...

एक नवोदित लेखिका अपने दूर दराज के शहर से आये लेखक मित्र के लिए खाना ले आई ...

पहली बार मिले फेसबुक लेखक-लेखिकाएं साथ बैठ कर चाय-शाय पी लिए ...

प्रकाशक-लेखक-फेसबुक मित्रों के साथ लेखिकाओं ने मुस्कुरा कर अगल-बगल खड़े हो कर कंधे पर हाथ रख कर तस्वीरें खिंचवा ली ...

बरसों से सोशल मीडिया पर रोज दिन में पिच्चासी बार एक दूसरे से मिलने और जीवन की हर छोटी बड़ी बात में साझीदार होने के बाद मिलने पर हुलस कर हाथ थाम लेना ... या उमड़ कर गले लग जाना ...

यह सब आपसे देखा नहीं न जा रहा है तो अपनी आँखे बंद कर लीजिये ...

आप बड़े साहित्यकार होंगे अपने घर के ...

अपनी इतर संबंधों और दोनों के बीच कुछ तो चल रहा है वाली गलीज सोच की नाक दो इंसानों के खूबसूरत संबंधों में स्त्री-पुरुष के खाके के नाम पर न ही घुसाए तो बेहतर होगा ...

दो लोगो को दो बेहतरीन इंसानों की तरह खुल कर खिल कर मिलने दें ...

और हाँ यदि आप अपनी सोच बदलेंगे नहीं और यह इतर संबंधों की खिचड़ी पकाने वाली और अपनी गपडचौथ का रायता फैलाने की ठेकेदारी उठाने वाली नाक की लम्बाई कम नहीं करेंगे और ऐसे ही घुसाते रहेंगे ...

तो बताए देते है जिस रोज मेरे हत्थे चढ़ गए ... आपकी यह ठेकेदारी वाली नाक तोड़ देंगे और पटक कर मारेंगे सो अलग ... वो भी फेसबुक की पोस्ट पर आभासी तौर पर नहीं ... दुनियां के 'मेले' में बीचों-बीच ...
दुनियां में अपने दम पर कायम है ... आपके पिताजी का दिया नहीं खाते है ... महसूस कर रही है...

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कच्चा-पक्का ...

 
 
विवाहित स्त्रियों को जन्म-जन्मान्तर के संबंध की अवधारणा पकड़ा दी गई है ... सात जन्मों के पक्के से पक्के वाले संबंध की ... और उसी की कामना के लपेटे में चीज़ों को देखने की आँख ...
अगले पल का इस जीवन में आपको पता और उस पर नियंत्रण नहीं होता ... अगला जनम तो बहुत दूर की कौड़ी है ...
इस जन्म के जिए जा रहे पलों को तमीज़ से इंसानों की तरह जीते हुए ये कहने की हिम्मत ले आओ कि "यही तुम्हारा सातवाँ जनम है ... तुम सारे जन्मों से भर पाई अब तरने की इच्छा है ..."
निन्यानवे का फेर ... महसूस कर रही है.

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चिंता ...




भविष्य के इतिहास की कोई एक पंक्ति ऐसे लिखी जायेगी ,"कभी पृथ्वी पर बेहद कोमल हृदय वाली एक प्रजाति हुआ करती थी जिसको स्त्री के नाम से जाना जाता था ... अत्यधिक दोहन, सतत उपेक्षा, अनाचार एवं पितृसत्ताओं की 'गलतियों' के भुगतमान के चलते वह विलुप्त हो गई ." ... 

खतरें में पडी विलुप्तप्राय प्रजाति ... महसूस कर रही है ...

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Saturday, March 8, 2014

हिन्दी साहित्य में नव-विभाजन ...



अब सिर्फ दो काल होंगे फेसबुक से पहले वाला ...
और फेसबुक के साथ और बाद वाला ...
स्त्री दिवस पर एक घोषणा ...

 यह हो चुका है इसे रोकना तुम्हारे बस की बात नहीं है

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Tuesday, February 11, 2014

आमी जाज़ोबर ...


हर शहर में घर सा मेरा एक ठिया होना चाहिए ...
आज, कल ,परसों या बरसों में -
जब कभी भी मैं पहुँच पाऊं मेरे इन्तजार में बैठा हुआ सा ...

मुझे होटल कभी रास नहीं आये ...

बेगाने , ठन्डे , हाथों वालें कमरें , बेजान रंगों झूठ बोलती तस्वीरों वाली दरों-दीवारें ...
मुझ से मुसाफिर को प्लास्टिक के फूल ,पोलीथिन में भरे स्वाद ,रिश्ते और छायाएँ रास आने भी क्यों चाहिए ...

कौन जाने फिर मुझे अजनबी शहर क्यों ऐसे इस तरह और इतना रास आते है ...

उनकी सड़के ,गलियां ,नदी ,तालाब, घर, लोग पीठ पर बस्ता टाँगे स्कूल जाते लौटते ताज़ा-निचुड़े बच्चे , बस स्टॉप, गाड़ियाँ, दुकाने, बाजार, अलग-अलग नामधारी चौराहे,तिराहे ओवेरब्रिज , तीखे मोड़ , काली-सफ़ेद धारों पर भागते पैदल राही, गाय-गोबर और अपना इलाका पार करा कर विदा कहते दुश्मन से दोस्त कुत्ते, बालकनी और छज्जों पर सूखते तमाम रंगों का आईना दिखाते कपड़े , मुंह उठा मुझे ताकते गमले और पौधे , भागते रास्तों पर यूँही पड़ जाते पार्क और सूखे मालों के साथ घाम तापती मूर्तियाँ ... गौर से देखते मुस्कुरा उठते हुए मैं क्या खोज सकती हूँ ...

कैसे बता सकती हूँ शब्दों में मैं कि किसी ऐंठी हुई लकड़ी की बेंच पर बैठ चाय का हलके हरे शीशे वाला ग्लास हाथ में लेते ही उसकी उठती हुई भाप की लकीर कैसे मुझे कभी जंगल में बसे रहे उस बेंच के घर तक ले जाती है ... घर ... उसका घर ... गहन ... घनी हरी ठन्डी छाँव वाला घर ...

... कमरे में आई ... फ्लास्क में बंद चाय ... होटल के प्यालों की चाय कहीं नहीं ले जाती

लोगो ,जगहों और चीजों को सुबह-शाम के श्वेत-श्याम तस्वीर के फ्रेम में ठहरा कर देखने के लिए कुछ दिन और कुछ लम्हों के झोले कितने छोटे पड़ते है मुझे ...

हाथों की दुनैय्या के नीचे से तेज धूप में चमचमाते आसमान और झिलमिलाते पेड़ों की छतों पर पलके उठा कर आँखों के रास्ते दौड़ जाना ...

अपनी एक यात्रा पर निकलना अपने नजरिये से उसकी इमारतों,उसके लोगो, उसकी दौड़ती-भागती हलचलों-धडकनों को एफ.एम. की तरह अपनी सोची हुई तर्जों पर गुनगुना कर देखना और अपने साथ चलते हुए बजते रहने के लिए छोड़ देना ...

कितना अच्छा है न किसी शहर के जूतों में अपने पाँव घुसाना ...

उसके भूत ... भविष्य ... और वर्तमान में ऐसे और इतना उतरना कि सब अपना हो जाए ...
वो बेगानेपन से अपनी किसी इमारत का ऊँचा सर झुका कर मुझे न देखे एक अजनबी आँख से ... और न पूछ सके तुम कौन ... कहाँ से आये हो ... क्या काम है यहाँ तुम्हारा ...
मुझे कैसे तो भी लाख सर पटकने पर भी पराया न घोषित कर सके ...

एक शहर के सपनो की आँख में उतरना ...

ऐसे जैसे पलकों के नीचे बैठे काजल की एक फ़ैली हुई रेखा ...

मुझे पता है शहर और जगहें मेरा इन्तजार करते है ...

अपने कमरे में मौजूद हूँ ... पर कंधे पर अपना नामौजूद बैग हर पल टाँगे बस एक मुसाफिर ही हूँ मैं ...

मुझे हर शहर में अपना एक छोटा सा हिस्सा ही तो चाहिए बस ...

सुनते है कि दिल्ली भी एक शहर है ...

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Monday, February 3, 2014

बाधा दौड़ के प्रतिभागी ...



इस थोथे समाज ने स्त्रियों को अधिकार के नाम पर क्या दिया है -

सिर्फ समर्पित होने का अधिकार हर चीज हर बात में हर रिश्तें में ...

एक स्त्री को इस समाज में एक बेहद मामूली सा, कोई गलती करने का या किसी स्तर पर चूक जाने का अधिकार तक नहीं दिया गया है ...

लानत है ऐसे दुष्चक्र पर जो एक स्त्री या लड़की के कहीं भी कभी भी चूकते या गलती करते उसे निगल जाने को दौड़ पड़ता है ...

हज़ार तमगे, उसके चरित्र की परम्परागत चलनहारी परिभाषाओं के अधीन उसकी पूरी उपस्थिति को नकारते हुए पहना दिये जाते है ...

क्यों स्त्रियों और लड़कियों की गलतियाँ, अपराधों की तरह उनके सर माथे रख दी जाती है ...

क्यों उनकी चूकों को उनकी शर्मिदगी बना कर ,उन्हें चुप हो कर कोने-कतरों में छुप कर बैठने की राह दिखाई जाती है ...

माफ कीजिये, बाकी अधिकार देना और सहधर्मी होना तो बहुत बाद की बात है पहले उनके गलती करने और चूकने के प्राथमिक अधिकार को  देखना ही सीख लीजिये ...

और हाँ एक बात और यह अधिकार अगर आप देखना नहीं सीखेंगे तो बहुत जल्द बहुत थोड़े ही समय में आप कहीं बहुत पीछे छूट जायेंगे ...




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Friday, January 24, 2014

स्मृति ...




कहते है कि ...
कल कभी आता ही नहीं
इसलिए कल आने वाले आज के
मुँहअँधेरों से पूछना है
कि तुमने भोर के तारे के पास से
कोई पुकार आते सुनी थी क्या
पूछे गए इस सुने-अनसुनेपन के
ठहरे हुए पलों की पीठिका से
चुपचाप ... कमरे की खिड़की से ...
सलाखों के पार
बीते हुए आज की
हथेली पर उतरता है
एक कौर भर आसमां ...

ऐसे ...
उतर आये
गहरे नीले आसमां के
डूबते हुए किसी छोर पर
कहीं कोई एक आँख है ... और ...
उसी आँख की दाहिनी कोर से
चतुर्भुज हो बैठी धरा पर
टपकती है न ... स्मृति ...
टप ... टप ... टप ...



~~~हेमा~~~

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पूरी बातों में रखे हुए अधूरेपन ...

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कि सोलह कलाओं के चौसठ खानों में
किन पाठों का पुनर्पाठ करते है सोलह श्रृंगारों में सज्जित
सोलह संस्कारों में बिंधे
सोलह आने सच के ढाई कदम ...
कि अँधियारे पाख और उजियारे पाख की
चौरस जबान की नोक पर रखे
आठ वर्गों के गुणनफल के दोहरेपन की उपज पर काबिज
सोलह मंत्रकों में हो सकती है
किसी सत्ता के कथा-पायों को थामे बैठी
बत्तीस पुतलियाँ .....................

... कि पूरी बातों में रखे हुए ढाई क़दमों में होते है कुछ अधूरेपन ...

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Sunday, January 19, 2014

क्योंकि कहा जाना एक जरूरी पहल है ...



माना कि बरसना-गरजना और
हमारी पीठ पर तड़ा-तड़ टूट कर
बरस जाना ...तुम्हारा स्वभाव ठहरा ...फिर भी ...
मेरी ही जड़ों पर पडी है जो
मेरी ही ...
चिंदी-चिंदी हुई
पीले फूलों की पीली पाँखुरियाँ ...

कि तुम्हारे प्रति है उनके मन में बेतरह क्रोध
अजन्मी रह गई छीमियों के लिए ...
तीन दिनों की
बारिश,आँधी-पानी और पाले के बाद निकली धूप से
झुकी हुई टेढ़ी कमर और
बेहद भारी, भीगी पलकों वाली
पलाई हुई, ठिठुरी सरसों ने
दबी जबान से ही सही

पर कहा ...
कि मेरे पीले मन में आ बैठी है
दुःख,उदासी और घोर निराशा ...




~~~हेमा~~~

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Tuesday, January 14, 2014

आसमां पर पीठ टिकाए एक जिद ...

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कहो और कहते रहो कि
प्रेम का रँग नीला है
कि आसमान है उसका वितान ...
तुम चाहो तो जिदिया सकते हो ...
जिदियाने पर हक है तुम्हारा ...

पर जिदियाने से कुछ होता नहीं है
जबकि तुमने सुन लिया था ...
कि मैंने कहा था ना
कि प्रेम का रँग हरा होता है ...

आखिर इश्क के रँग के ताउम्र
हरे रहने में कोई बुराई तो नहीं ...

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.... रात गये ठहरी हुई एक जिद ...
 
 
~~हेमा~~

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Saturday, January 4, 2014

ओरछा के हरदौल ...




राजाओं की हठधर्मिता एवं उनकी रानियों की विवशता की एक और कथा है जो पूरे बुदेलखंड में कही गाई और सुनी जाती है ...

यह कहानी बीर सिंह जू देव के पुत्र लाला हरदौल की कहानी है ...

ओरछा नरेश राजा जुझार सिंह के भाई लाला हरदौल और उनकी राजमहिषी चम्पावती की ...

दीवान हरदौल / लाला हरदौल ओरछा नरेश के छोटे भाई थे ... और अपने बड़े भाई के परम भक्त ...

बुंदेलों के साम्राज्य एवं ओरछा नरेश की विशिष्ट सुरक्षा के दृष्टिकोण से दीवान हरदौल ने ओरछा की राज सेना के अतिरिक्त अपनी एक अलग युद्ध वाहिनी तैयार की थी और उसके माध्यम से कई युद्ध लादे भी थे और जीते थे ... राजा जुझार सिंह एवं लाला हरदौल के मध्य अटूट विश्वास एवं अगाध प्रेम निर्मल बेतवा की तरह प्रवाहित था ...

राजमहिषी चम्पावती ,लाला हरदौल को पुत्रवत स्नेह करती थी ... लाला हरदौल उनकी आँखों के तारे थे ...

और लाला हरदौल अपनी भाभी माँ के चरणों में प्रण-प्राण से न्यौछावर थे ...

उस समय दिल्ली मुगलों की सत्ता का केंद्र थी और ओरछा , दीवान हरदौल एवं उनकी असीम शौर्य धारिणी युद्ध वाहिनी को अपने लिए खतरा जानते और मानते हुए उन पर मुग़ल सम्राट की निगाहें टेढ़ी थी ...

कहते है एक षड्यंत्र के अधीन राजा जुझार सिंह को मुगलिया सल्तनत ने दिल्ली आमंत्रित किया और उनकी राज महिषी एवं लाला हरदौल के संबधो के कलुष का विष उन्हें और उनके कानों को पिलाया गया ...

लाला हरदौल की ओरछा की एवं अपने परम प्रिय बड़े भाई ओरछा नरेश जुझार सिंह की अतिरिक्त चिन्तना में निर्मित की गई युद्ध वाहिनी ही उनके और उनके भाई के प्रेम के नाश का आधार बनी ...

मुगलिया सल्तनत ओरछा नरेश को यह विश्वास दिलाने में सफल हुई कि उनकी राजमहिषी चम्पावती एवं ओरछा की सत्ता के लोभ में ही लाला हरदौल ने यह महात्वाकांक्षी युद्धवाहिनी तैयार की है ...

ओरछा लौटते ही ओरछा नरेश ने राजमहिषी को बुला भेजा और पत्नीधर्म एवं चरित्र निष्ठा की प्रतिष्ठा के नाम पर उन्हें परीक्षित करने हेतु अपना घृणित प्रस्ताव उनके समक्ष रख दिया ...

कि यदि तुम मुझे प्रेम करती हो और अपने पत्नीधर्म में सत्यनिष्ठ हो तो तुम्हे हरदौल को अपने हाथों से विष दे कर उनकी ह्त्या करनी होगी ...

राजमहिषी के तमाम विरोध एवं याचनाएं पतिधर्म एवं राजाज्ञा के समक्ष निष्फल सिद्ध हुई ...

कहते है लाला हरदौल को रानी चम्पावती के हाथों की बनी उनके लाड़ से पगी खीर बेहद प्रिय थी ... राजमहिषी ने खीर में विष मिला कर उसका पात्र लाला हरदौल को अपने हाथो से दे दिया ...

कहते है कि इस षड्यंत्र और खीर में विष होने की सूचना लाला हरदौल को उनके गुप्तचरों ने पहले से ही दे दी थी ...
परन्तु उन्होंने अपने भाई अथवा रानी चम्पावती से प्रश्न तो दूर एक शब्द या एक दृष्टि भी न उठाई ...

और अपनी माँ समान राजमहिषी की अग्निपरीक्षा को प्रज्ज्वलित करने हेतु उन्होंने बिना किसी प्रश्न के ,अपने संबंधों की धवलता को स्थापित करने हेतु विष मिली पूरी खीर खा ली ...

कहते है राजा जुझार सिंह ने अपने द्वारा संपन्न इस हत्या का  सम्पूर्ण दृश्य अपनी आँखों से देखा ...

सम्पूर्ण विष भरी खीर खा लेने और उसके असर से तड़पते और मरते अपने  प्राण प्रिय भाई को देखने के पश्चात
ही उन्हें अपनी राजमहिषी के चरित्रवान एवं संबंधनिष्ठ होने पर यकीन आया ...

यह एक ही प्रसंग में दो विपरीत ध्रुवों पर प्रतिष्ठित दो तरह के राजपुरुषों की कथा है ... संबंधों एवं चरित्रनिष्ठा के नाम पर अपनी राजसत्ता के अधीन एक स्त्री को विवश कर जान लेने वाले हत्यारे राजपुरुष की और एक स्त्री के सम्मान एवं चरित्रप्रतिष्ठा पर अपने प्राण देने वाले राज पुरुष की ...

दोनों ही समर्थ और सत्तावान है ... पर एक सत्ताओं के उपभोग एवं दुरुपयोग का एवं दूसरा सत्ता एवं सामर्थ्य के उपयोग के फर्क का साक्षी है ...

कहते है लाला हरदौल अपनी बहन से बेहद स्नेह रखते थे सो वह उनके विवाह में अपनी मृत्योपरांत सशरीर उपस्थित थे तबसे बुंदेलखंड के प्रत्येक विवाह में हरदौल को भात भेजने/देने की परम्परा है ...

हरदौल के भात के गीत समस्त  बुंदेलखंड में गाये जाते है ... सिर्फ ओरछा ही नही वरन अन्य जगहों पर भी लाला हरदौल की चौकियां है ...

मुझे नहीं पता रानी चम्पावती ने इस घटना के बाद अपना बाकी का जीवन अपने पुत्रवत देवर की हत्या करने के अपराधबोध एवं मानसिक संत्रास के साथ कैसे जिया होगा ...

या अपने परम स्नेह के पात्र लाला हरदौल की हत्या करवाने वाले ओरछा नरेश, अपने स्वामी एवं पति के साथ
अपने संबंधों का निर्वहन कैसे किया होगा ...

मुद्दा ए विमर्श :- युग कोई भी रहा हो राजा कोई भी चरित्र के नाम पर स्त्रियों को प्रश्नांकित करना और उन्हें
विवश करना सत्ता चरित्र रहा है ... स्त्री का चरित्र ... स्त्री का चरित्र ... स्त्री का चरित्र ... आजीवन उसका पीछा
करता है ...

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