Tuesday, December 20, 2011

अपने लिए ....

तुम्हारे घर की
तिमंजिली खिडकी से
कूदती है और रोज भाग जाती है
छिली कोहनियों और फूटे घुटनों वाली औरत
ढूंढती है नीम का पेड़
और झूलती है
जीवन-जौरिया पर
ऊँची पेंगो का झूला
नीले आसमान में उड़ते
आवारा बादलों को
मारती है एक करारी लात
गूंजती फिरती है
सूफियो के राग सी
तुम्हारी पंचायतो के ऊसरों पर
खेलती है छुपम-छुपाई
हाँफती है थकती है
किसी खेत की मेंड़ पर बैठ
गंदले पानी से धोती है
अपने सिर माथे रखी
लाल स्याही की तरमीमें
फिर बड़े जतन से
चुन-चुन कर निकालती है
कलेजे की कब्रगाह में गड़ी
छिनाल की फाँसे
सहिताती है
तुम्हारे अँधेरे सीले भंडारगृह से निकली
जर्दायी देह को दिखाती है धूप
साँसों की भिंची मुट्ठियों में
भरती है हवा के कुछ घूँट
मुँहजोर सख्तजान है
फिर-फिर लौटती है
तुम्हारे घर
कुटती है पिटती है
मुस्काती है
और बोती है तुम्हारे ही आँगन में
अपने लिए
मंगलसूत्र के काले दाने
लगाती है तुम्हारे ही द्वार पर
अपने लिए
अयपन और टिकुली के दिठौने .....






***हेमा ***

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Saturday, December 3, 2011

.....मैं क्यों लिखती हूँ

सामान्य रोजमर्रा की जिंदगी जीते-जीते अचानक एक क्षण में कोई व्यक्ति ,कोई घटना ,
कोई शब्द ,कोई घुमाव आवेशित कर देता है । गढे हुए बासे चरित्रों से अलहदा एक व्यक्ति
के किरदार में डाल देता है ।यह किरदार कमर कसता है । तैयार हो जाता है । मैं रोज ही रसोई
करती हूँ ।
चूल्हे में लगाये तैयार चैलो में करना ही क्या होता है । ढिबरी से दो बूँद मिट्टीतेल की टपकन

माचिस की तिल्ली की रगड़-घिस्स बस । देखो फिर लपट और चिंगारियों की फ़ैल ।
मैं यह फ़ैल संभालती हूँ ।उठती लपक को धीमा तेज कर संभालती हूँ ।
चैलो से चटकते अंगारा हुए कोयलों की बाराखडी सुनती हूँ ।
धुआँते चैलो,पटैलों में अपनी सारी शक्ति का संकुचन कर फुँकनी से भरपूर फूंक मारती हूँ ।
उनके अंतिम छोर पर उठते कुलबुलाते पानी की पीली बुदबुदाहट सुनती हूँ ।
चटकते अंगारों को जंगहे चिमटे से खींच कर बाहर धर देती हूँ राख और कोयला अलग कर
देती हूँ । अंगारे चूल्हे की चौपाल पर पंचो की मानिंद लहकते है । पानी की छींटे अंगारों की

अराजक खौल ठंडा देती है।सबकी अपनी-अपनी नियति है ।
बर्तन को है आंच पर चढ़ना, जलना और मंजना । कोयले को है फिर जलना । अदहन को है

पकना और रोटीको सिंकना । राख के हिस्से घूरा । धुएँ के हिस्से आसमान की उठान ।
बटलोई के हिल्ले है तपना, मंजना, घिसना और फिर चढ़ना ।
अदहन को धुलना है । पकना है । पेट भरना है ।लिखना जैसे जीवन के भूखे पेट को खानाखिलाना है ।
जले बासन-जूठे बासन मांजती है राख । करखा और जूठन धोती है । बासनो का मुँह चमकाती
है।
चकमक,चमाचम । कविता राख की जाई चकमक है ।
घर में धुँआरा जरुरी होता है नहीं तो रसुइया धुँआ जाती है । धुँआ घर में भर जाए तो कुछ दिखता
नहीं सिवाय कसैलेपन के कोई स्वाद नहीं मिलता । धुँआरे मुक्ति है आसमान की ओर ।
पर धुँआरे की लंबी अँधेरी
सुरंग धुएँ की पीठ रगड़ डालती है । छिली पीठ पर कालिख मल देती है ।फिर कहती है उडो अब । दिखाओ दुनियां को मुँह । उजालो और आसमान की तलाश में धुँआ
तड़पता है । ऐंठता है । अंधी सुरंगों से सर मारता है ।गुलमे और गूमड़ लिए जब सुरंग के छोरसे निकलता है तो फिर नहीं रुकता ।बस उठता और उड़ता है ।खूब फैलता है । सबको दिखता है । बंद करो दरवाजे-खिड़कियाँ या फिर अपनी आँखें ही क्यों ना !
उसने तो घुस ही आना है । सड़ी व्यवस्थाओ को रुलाना है । उसका लक्ष्य बंद जगहों से उठ जाना
है ।उड़ना औरचुभना है ।लिखना धुँआ हैं मुक्ति है ।

मैं स्वयं से सवाल उठाती हूँ , क्यों, ऐसा क्यों है ?

मेरे अंदर घटितों का ग्रहण किस रूप में है , जो उन्हें ऐसे निरखता है परखता है ?
ऐसे अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होना क्या है ?
मैं क्या होना चाहती हूँ ?
मैं स्वयं को क्या मानती हूँ ?

मैं एक इकाई के रूप में स्वयं को व्यक्ति मानती हूँ । मैं व्यक्ति हूँ ।
तत्पश्चात यह व्यक्ति स्त्री है , बेटी है , बहन है , पत्नी है , माँ है , मित्र है , और भी बहुत कुछ है

जन्मना विशुद्ध रूप में मैं एक व्यक्ति हूँ । इस स्वरुप के चारों ओर कसी हुई सारी बुनावट

सामाजिक है । परिवेशिक है। गढ़ी हुई है । मेरे अंदर चीजों का ग्रहण व्यक्ति रूप में होता है ।वही निरखता
है परखता है घटितों को ।
मैं व्यक्ति होने की अदम्य इच्छा और उसके विरोधी सतत दबावों के जीवन में हूँ ।
व्यक्ति होना , अस्तित्वमय होना , मेरा निजत्व है । यह मेरे अपने होने का स्तर है ।
मैं इस स्तर से कमतर किसी भी चीज को अस्वीकार करती हूँ ।
किसी भी रूप में निजत्व की क़तर-ब्यौंत सुलगाती है । यह सुलगन असंतोष उपजाती है और
भूखा रखती है ।
लिखने का अर्थ मेरे लिए सवाल उठाना है और सवाल उत्तरयात्राओं के मार्ग खोजते है ।
व्यक्ति रूप में जीवन जीने की अदम्य इच्छा अपना मार्ग खोजती है ।
यह इच्छा स्वयं को लिखती है अनथक .....







***हेमा ***

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Wednesday, November 16, 2011

मैं क्यों लिखती हूँ

" मैं क्यों लिखती हूँ ?" यह सवाल पिछले काफी समय से मुझे घेर कर बैठा है | इस सवाल की घेराबंदी और मेरे विचारों के साथ मैं बहुत पीछे चली गई | एक नए सवाल पर कि मैंने पहली बार कब लिखा था ....
समय यंत्र ने मुझे १९८४ के दंगो और हाहाकार के मध्य खड़ा कर दिया |
वह मेरे जीवन की पहली , आसमान से टपकी बेमौसमी छुट्टियाँ थी | होश संभालने के बाद का पहला कर्फ़्यू |
विद्यालय में खाने की छुट्टी के समय दौड़ा-भागी के बीच बड़ी दीदियो की हाय-हाय कान में पड़ी थी कि एक सरदार ने इंदिरा गांधी को मार डाला है | विद्यालय आनन-फानन बंद कर दिया गया | बहुत सारे बच्चो के घर के लोग उन्हें लेने आ गये थे | मेरे घर और विद्यालय की दीवाल एक थी | मैं एक मिनट में घर पर थी |देखते ही देखते सड़के सूनी हो गई | किसी भी आहट से विहीन | काली सड़के,खाली सड़के और अकेली हो गई |

मैं छावनी क्षेत्र के बेहद शांत और गहरे सन्नाटो में रहती थी | लगभग ४५०० वर्ग गज के बड़े से वकील साहब के बंगले में सारी आमद बंद हो गई थी | बड़ी मशक्कतों और मुसीबतों के बाद मिलने वाले कई तरह के अखबार और गाहे-बगाहे बजने वाली लैंड लाइन फोन की घंटी ही सूचना और संचार माध्यम थे | अखबार के आते ही उसके सारे पन्ने बँट जाते थे | क्रमवार एक दूसरे को पढ़ने को सरकाए जाते रहते थे |
पहली बार मेरी आँखों ने टायर डाल कर जिन्दा जलते आदमी की छपी हुई तस्वीर और खबर देखी थी| जलते हुए घरों, दुकानों , उठते हुए धुएँ के गुबारों , घिरे हुए गुरूद्वारों , सड़को पर छितरे गुम्मे-पत्थर की अजीब सी डरावनी सिहरनो वाली तस्वीरें | मरे हुए लोगो,गुमशुदा लोगो और जन-धन की क्षति के आंकड़े |
जिंदगी और इंसानियत के साथ-साथ हर चीज की तंगी थी |
चारो ओर डर और दहशत का दमघोंटू माहौल था | सड़को पर आदमी नहीं थे | थे तो बस पुलिस वाले, उनकी गाडियों के बजते सायरन , घोषणाएँ कर्फ़्यू के उठान और चढ़ान की|
बंगले के पास की नहरपट्टी पर स्थित पेठे की आढत में एक सरदार छिपा था | एक-आध बार घर से उसके लिए रोटी सब्जी गई थी | चोरी-छिपे एक शाम मैं उसे देख भी आई थी | बांस के टट्टर से घुप्प अँधेरे में खूब आँखे गडा कर देखा था मैंने | कोने में चूने के पानी के लिए बनी एक पक्की नांद में वह हाथ-पाँव,पेट गुडिया कर घुटनों में अपना पग्गड़ घुसाये बैठा था | मेरी छोटी सी आहट से इतना सिकुड़ा हुआ वह और बहुत सा सिकुड गया था |
थोड़ी शान्ति होने पर सुना था कि चुपचाप उसके मददगारों ने एक नाई बुलाया था | वह अपने केश कटा कर साफ़-सुथरा हो गया था | बिना किसी से कुछ कहे चला गया था |

यह भी सुना था कि नाई ने उसके द्वारा दी जा रही कोई कीमती चीज ली नहीं थी |

उन कर्फ़्यूजदा लंबी-भारी छुट्टियों के उतार का कोई दिन था वो| शाम के समय फूल बाग,कंपनी बाग का बहुत सारा हरापन और उतरते सूरज के रंगों की छावनी | ऐसा लग रहा था कि सारी हरियाली एक विकराल मुख में बदल गई थी और समूचे सूरज के निवाले दर निवाले अपने हलक में उतार रही थी | देखते-देखते कुबेरी बिरिया पूरा सूरज और सारे रंग निगल गई थी |

उन सारी घटनाओं और उस टट्टर से दिखे व्यक्ति ने एक छोटी खेलती-कूदती लड़की के अंदर जैसे बेचैनी का उबाल उठा दिया था |

वह उबाल गणित की कॉपी के पीछे के पन्ने में बह गया था कॉपी गुम गई पर कुछ पंक्तियां मुझे वैसे ही याद है ....


अपनी ही
परछाई से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
साँसों से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
आहट से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
देहरी पे डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपने ही
चौराहों पे जलते
आदम को देखा है तुमने ?
................
......................
......................


जब इन पंक्तियों को लिखा था तब यह पता नहीं था कि यह कविता हो सकती है | यह भी नहीं पता था कि मैं आगे भी लिखती रहने वाली हूँ | यह चंद पंक्तियाँ एक छोटी सी लड़की की बहुत बड़े राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर में महसूसी हुई छटपटाहट थी | उस वक़्त में वह छपने ,कविता और कवि होने के बहुत मायने नहीं जानती थी |
वह घटनाएं और उनके जरिये अपने अंदर घटित अहसास जानती थी | यही उसका सरोकार था |

कभी कोई उसे पढ़ने वाले होंगे उसे यह भी नहीं पता था |

पढ़ने वाले नहीं थे इसलिए पढ़े जाने के लिए नहीं लिखा गया | छपने का ख्याल नहीं था इसलिए छापने वालो के अनुसार नहीं लिखना हुआ |

कुछ वर्षों बाद एक ऑन स्पॉट कविता लिखो प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिलने पर जाना कि कविता पुरस्कार भी दिला देती है |

पर इस पुरस्कार ने उसके साथ कुछ अजीब किया था | खेलने-कूदने हँसने-बोलने वाली आम लड़कियों से हटा कर एक अलग संजीदा और साहित्यिक जीव की श्रेणी में रख दिया था |सब कुछ वैसा ही था | मैं वही थी | अपेक्षाए बदल गई थी |
कविता ने मुझे बड़ा जिम्मेदार और कुछ अलहदा कर दिया था |
सबकी नजरों ने मुझ पर अनजाने ही गहरे पैठने के सरोकार डाल दिये थे |
अपने आस-पास की हर चीज और घटना को एक अलग,अपने नजरिये से देखने-परखने और महसूसने के ...|
प्रत्येक घटित को अपने निजी अरण्य में ले जाने का .... |
मैंने खूब देखा और खंगाला खुद को, ठोक-पीट कर देखा डायरी और इधर उधर बिखरी लिखी-अनलिखी लिखतों के पड़ावो पर जा-जा कर पूछा - मैं कब लिखती हूँ और क्यों लिखती हूँ...............

मैं लिखती हूँ जब चीजों,घटनाओं और अनुभवों का पात्र इतना भर जाता है कि जीवन के लिपे-पुते कच्चे चूल्हे पर चढ़ी बटलोई का अदहन खदबदाने लग जाता है | उठती हुई भाप का दबाव ढकने को उठाने-गिराने लग जाता है तो अंदर भरे शब्दों को बहना ही पड़ता है |
कविता जैसे चूल्हे पर चढ़ीं बटलोई की बेचैन खदबदाहट है|

......................... जारी

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Saturday, October 29, 2011

सुख ....

वो रात-रात रोती है
उनकी खुली आँखे नहीं सोती है
वो कहती है
अब ये सपनो में नहीं खोती है
अम्मा के पेट के तीनो बलों की नरमी में
उंगलिया फेरते
मैं उनसे और चिपकती हूँ
सुनती हूँ अनकहा
देखती हूँ अनदेखा
कमरे,रसोई ,आँगन
बर्तन, जूना ,मंजना
नौकर - चाकर
घर -दुआर
रूपये,गहना -गुरिया
गाड़ी,ड्राईवर
देवर-देवरानियां
नाते-पनाते
भूख-प्यास
सब कुछ तो है
और बिल्कुल वैसे ही है पर
अम्मा पल-पल कहती है ....
पति नहीं मेरा सुख चला चला गया है....
वृथा है जीवन .....
अब काहे का सुख ....
मैं उनसे और चिपकती हूँ
पर वो नहीं चमकती है
....दो बरसो से
अम्मा बिल्कुल नहीं मिलती है
बस मिलता है दुःख ....
मुझे अम्मा के गले लगना है
और अब मैं पी जाना चाहती हूँ
उनके साथ के छूटे का दुःख .....
कहना चाहती हूँ
देखो मैंने तुम्हारे लिए
अपने पास बचा रखे है
कुछ थोड़े बहुत सुख ....
सिर्फ तुम्हारे अपने लिए ...
तुम्हारे अपने सुख ....







***हेमा***

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Sunday, October 9, 2011

घर.......

टूटे बिखरे मन के
कच्चे कूलों का
ब्याह रचाया
दो वस्त्रो का गठबंधन
सिन्दूरी रंगत
मांग भरी-
आह,स्याह छाया
माहुर लगे
बिछुआ सजे पाँव
सबके मन भाये
पर,धान को
परे धकेल
आगे बढ़ते
पावो तले
आदर्शो की
सावली पड़ती
रुपहली काया
कोई देख न पाया
औंस की बूंदो सी लड़ी
हवा और भीनी खुशबू
प्रतिबिम्ब छुआ
बाहों में लिया
पर मन को
कोई बंध कही
कहाँ लगाया,
सपनों की मरी काया
कपडे-लत्ते
गहने-गुरिया
ढेरो-ढेर सामान
इतना अर्जन
यहाँ से वहा तक
कमरों में गया सजाया
इस दीवार से उस दीवार तक
-जाते-
-एकटक-
-अपलक-
घूरते
सबकी दुलारी
पगली छोटी
तुझको-
घर क्यों नहीं दिख पाया!
*** हेमा ***

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Where is she........?

A life was lying there
on a frigid rectangle
I was sitting there
glancing silently
from each and every angle
not a lifeless body,
but spectrum of
a complete life cycle
passing by as a slide show
so many motions and emotions
moments and moments
churning through a time machine
rewinding the reels
again and again
heart filled
absent mindedly
peeping through
numb n heavy glides
nothing left to hide
I was sitting there
On a silent droplets ride
with a continuous twinkle
she is not gone
she is here
she is alive
with all her flavors
she is breathing
SHE is ME !!
28 May 2011 -hema

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Monday, October 3, 2011

यूँ तो सब कुछ पूर्ववत है ..

आजकल
मेरे ख्यालो में
रोज ही रोज चली आती है
जो दौड़ती रहती थी
यहाँ सड़को पर
किसी पागल मोटर साइकिल की तरह,
कोई भी उसे छेड़ कर
मरोड़ देता था उसका
गिड़-बिड़ भाषाई होर्न
बरसो से बिना धुले जट्ट
गर्द सने बालों
और चीकट कपड़ो के साथ
कोंची जाती थी दिन भर
देह और बावरे मन के
हर कोने पर,
राह गुजरते ऐरे-गैरे इंसान
दाग देते थे उस पर
अपनी निर्दयता के नीले चिमोटे
उसकी बिलबिलाहट में थी
तमाम मर्दानी गालियाँ,
चाय की दुकानों पर बैठे लोग
चाय के कपो और
धुओं के छल्लो के संग
उसकी चुस्की लेते थे और
पी जाते थे
खुलेआम
सार्वजनिक स्थल पर
एक सार्वजनिक स्त्री,
पटिया बाजी के शौक़ीन
रोज छीनते थे
उसके कंधो पर लदी
उसकी जिंदगी की गठरी
बिखेर डालते थे वे
उसके गिने चुने रिश्तों की जमा पूंजी
एक रोज मैंने सुना था
उसे कहते कि
गठरी में है उसके
माँ-बाप,पति और बच्चे
खुल कर बिखरने पर देखा था मैंने
कि वहाँ तो है
कूड़े के ढेर से बीने हुए लत्ते,
चीथड़े,एक टुकड़ा आईना,
गिनेचुने दांतों का आधा कंघा
अपना संसार दरकने पर वह
रोती ,अजीब सी आवाजे निकालती
लोगो को दौड़ाती
पत्थर फेंकती,
सरकारी पार्क की तरह
कोई भी कर सकता था
उस पर अवैध कब्ज़ा
बिलएवज एक रुपया ,
दो जलेबी ,एक समोसा
या फिर दिखा-दिखा कर
ललचाते दो कचौड़ी,
छोटे से शहर के
भद्र इलाके का
चलता -फिरता
सार्वजनिक शौचालय
बिना किसी पूर्व सूचना के
एक दिन अचानक
विलुप्त हो गया
यूँ तो सब कुछ
पूर्ववत है
पर उस 'स्त्री'
(पगली नहीं )
के बिना
अजीब सा खालीपन है ...........




***हेमा ***

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Friday, September 23, 2011

यही है प्रारंभ .....

यह आँखों के आगे
डाला है किसने
मुटठी में भरा
अपने अंतर का अँधेरा,
क्यों , कहते क्यों नहीं
कौन हो तुम ?
चाहते हो ,
मात्र चूमने के लिए
दिखते रहे मेरे ,
तुम्हारे स्पर्श से हीन ओंठ
और घुप्प अँधेरे में
उजाले को तरसती
हृदय में बुन डालूँ
तुम्हारी इच्छा के
जाल की जमीन का
बेसब्र आसरा
सुनो -
जाओ तुम
कहीं और
ले कर अपनी
यह अंध तलाश
मैं तुम्हारी अँधेरी राह
टटोल नहीं सकती
मात्र चूमे जाने
और बाहों में कसे जाने का अँधेरा
आँखों में
उजालो का घर रचे मैं
अस्वीकार करती हूँ
तुम्हारे स्वप्नों में भी
व्यक्ति नहीं
सखी नहीं
मात्र नारी देह समझा जाना
समझ लो -
यही है प्रारंभ
तुम्हारी चाहत
और मेरी चाहत के
टकराव बिंदु का !!



***हेमा***

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Monday, September 12, 2011

तुमने कहा था ...

तुमने कहा था मुझे
पिछले बरस
एक रोज
कि अबकि बरस
जब मैं आऊंगा
तो बस फिर
तुम कह सकोगी
कि मैं ,
बस तुम्हारा ही हूं
तुम्हारे लिए ही
जीता और मरता हूँ
बस थोड़े से दिन काट लो
यह वक़्त यह पल
जरा गुजर जाने दो
तुम थोडा सा इंतजार कर लो
मैं तुम्हारा ही हूँ
दूर रहता हूँ तो क्या
काम में व्यस्त हूँ तो क्या
अभी अपनी ही धुन में हूँ तो क्या
इस बार
जब मैं आऊंगा
मौसम बन कर
सीधे
तुम्हारे दिल में उतर जाऊँगा
बिना बादलो के ही
बरस जाऊंगा
तुम्हारी मीठी नमी में
बस जाऊंगा
तुम्हारे वादों की हथेलियों में
मैं मुस्कुराई थी
और तुम्हारी आँखों में
अपने सारे सपने रख आई थी
सरसों की पीली धूप
तुम्हारे आँगन में खिला आई थी
सिर्फ तुम्हारे लिए
उस पिछले बरस पर
चढ गए
जाने और कितने
पिछले बरस
दूरियाँ समंदर हो गई
इंतजार भी गया गुजर
उड़ गया
आँखों से नमक
कोनों में सिमट गई
मुरझाई धूप
वादों की हथेलियों में
पड़ गई सलवटें
न वक्त रहा
न लम्हे
न तुम आए
न मौसम
सूखी नदिया
बिन बूंदों के तरसे
बिन बादल के
कौन यहाँ बरसे
तुम ने कहा था .........
तुम आओगे !!!
****हेमा****

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Wednesday, August 24, 2011

24.08.2011

तीन सौ पैसठ अंको के
हर कोण पर
उठता है
वर्चस्व और सर्वशक्तिमानता का
निर्मम सैलाब,
सर तक रोज डूबता है
एक अस्तित्व का
दूसरे की सत्ता में
कैसे तो भी
बचे रहने का
छटपटाता दृंद,
उस में समंदर है भयावह बदरंग
दाँतो की किटकिटाहट
अकल्पनीय दृश्य, वीभत्सता,विद्रूपता
और लात- घूंसों की
आसुरी मुद्रा के मध्य
लपकती है अष्टभुजी
मादरी गालियों की दबंगई
दैनिक सुनामी गर्जना में
रोज ही याद आता है
बचपन में देखा
सुरसा का मुख
उसी की बनायीं सत्ता
निगल जाती है
उसी की इयत्ता
रोज मरती और जन्मती
पांच गजी धोती में
बिना एक अंगुली से भी छुए
रोज होती है बलात्कृत
चाहरदीवारी के मध्य संरक्षित
सर से पाँव तक लदी-फंदी
घूमती है निर्वस्त्र
मुंह टेढ़ी बालियाँ ,
टूटी चूडियो की बुहारन ,
दो -चार बूँद टपका सूखा रक्त
साक्षी हो भी तो
किसके विरुद्ध
और किस बात का
मरे हुए चेहरे से
टपके जिन्दा आंसुओं से
कोई ख़ाक हुआ है क्या कभी !!
***हेमा***

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सुना है ......

सुना था
चुप बोलती है
हम है वहां अब
जहाँ चुप्पी भी
कुछ नहीं बोलती है
अपनी आवाज के
ताले नहीं खोलती है
निरंकुश आँखों के सवार
देखो हत्यारे
काट कर ले गए आज
चुप्पी की भी जबान
हाथ-पाँव बांध कर
घुटनों के बल
चौक पर सरेआम
जलाई जायेगी
उसकी शब्दहीन आवाज
सुना है
शहादते भी
रखती है जबान !!
***हेमा***

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Monday, July 18, 2011

........क्या कर सकती हूँ मैं



चारो ओर
बहता हुआ
लाल-लाल रक्त
इधर-उधर तडपती
दर्द से छटपटाती
हथेलियों को भीचती-खोलती
फैली उंगलियों को देख
जाने कहाँ
आधार को खोजती
लाक्षागृह में तपती
आस-पास फैले मरघट को
साँसों में लिए
मौन चीत्कार की
मुमुक्षा समेटती
अपनी जाग्रत-सुषुप्त
सामर्थ्य को टटोलती
विनाश के जयघोष में
सृजन की मृत्यु को देखती
विध्वंश के मध्य
अग्नि फूल चुनती
सृष्टि की एक माँ
अपनी कोख में
सूर्य के अंकुरों को पालती !!


***हेमा***

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Sunday, July 10, 2011

आँगन के पार


दिन भर के 
सन्नाटो से,
कमरे के ठन्डे
कोनो में पड़ी 
पीली, ऊबी हुई
लड़की ने 
खोल लिए
'आँगन के  पार द्वार'
चौखट का टेका लिए
देहरी पर  बैठी लड़की
तुमको पुकारती
परन्तु जीवन में 
तुम हो कहाँ
' अज्ञेय '
बस तुम्हारी तलाश
स्थिर आँखों से
आसमां के उस पार  !!



                        *** हेमा ***



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नि:शेष

कितना बेमोल  है इन्तजार
कितनी बेनाम है  प्रतीक्षा 
कितने दिन-कितने आगत,
कितने विगत बना गया
कितने धूप भरे क्षण 
ले गया चुरा कर 
यही इन्तजार
घट जल सा ठहरा........ इन्तजार 
सुबह की तरह 
हाथो से सरकती..........प्रतीक्षा
 कितनी व्यग्रता 
कितना रोष और आक्रोश
धूल सा उदास मन
इतना सन्नाटा
इतना कुछ लिखता हुआ 
फिर भी नि:शेष गहराता
कितना कुछ ख़त्म हो जाता 
फिर भी घटता नहीं कुछ विशेष
ख़त्म नहीं होती.........प्रतीक्षा
ख़त्म नहीं होता .........इन्तजार!!




                                       ***हेमा***
 
   

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Sunday, June 26, 2011

कितना कुछ


मन इतने बरस बीते 
देखते तेरा बहाव
बाढ़-उफान 
घटाव-चढ़ाव
यहाँ  जमे पत्थरो ने
सहे जाने कितने घाव
उनकी भस्म रेत पर
स्वच्छता में     
जाने कितने ही 
धो कर चले गए
अपने मैले-कुचैले पाँव 
बाँध, अपनी-अपनी गठरी
कुछ फेंक गए
पूजा के फूल 
और कुछ अपने पापों के 
जोड़े गए
तमामो शूल ,
जेठ की तपती दुपहरी
दे गयी धूल के अंगार ,
कई बार कतरे गए
सफ़ेद पंख मर गए
बगैर छोड़े अपने
कोई भी निशाँ
लालची हारी निगाहें 
छोड़ गयी अपने 
लोभ-क्षोभ के भाव,
कितना कुछ - कितना कुछ मन 
असीम सीमाहीन
देखा नहीं कहीं कभी तुझमे
एक बिंदुमात्र भी ठहराव !!
 

                           *** हेमा ***






   









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सुंनो ये उठती ध्वनियाँ


यह प्रारंभ के दिवस है
धूप फेंकी है सूरज ने 
मेरी जड़ी खिड़की पर छपाक,
चौड़ी मुसी सफेदी
किनारी पतली लाल
अंध केशो पर टिकी
तुमको कैसे मालुम
अन्दर बेचैन अंधेरो में
रौशनी की भूख 
जाग आई है
सुनो, देखो
उतार फेंको 
कमल के फूलो का  खूबसूरत
यह आबनूसी चोला 
सुनो-
इस हलकी चमक से 
उठती ध्वनियाँ
स्थगित मत कर निरखना 
धूप की मुस्कान
साध तू व्याप्त  आज्ञापकों का अराध्य 
यह प्रारंभ के दिवस है
तुमको नहीं मालुम
यह मेरे - तुम्हारे 
वशीकरण के दिन है !!      




                       *** हेमा ***

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कोई तो बताए


 क्या बाँध कर रक्खूं
अपनी चोटी  के फीतों में
कमरों से झाड़ी धूल
तोड़े हुए
मकड़ी के घर या
कुचली हुई उनकी लाशें
रसोई में पकते
खाने की महक
या बेकार में पढ़ी
कानून की किताबो की धाराए
बताओगे नहीं कभी क्या
बाँध कर रक्खू क्या
अपनी चोटी के
फीतों में !!


                            ***हेमा***


     

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Saturday, June 25, 2011

'गंतव्य'


  
चीखने को तैयार 
जड़ो में कसी माटी तुम 
शब्द कोमलतम ,
चुभन इतनी
पूछो मत ऐसे 
कहाँ-कहाँ 
चिनगारियो की भीड़,
तमाम फफोले,
दाग नहीं पड़ते कहीं यहाँ
कब तक रहेगा 
यही तुम्हारे श्रृंगार का सामान
घनी काली पलकें,अँधेरी
कब तक समेट पाएंगी,धुआं
गंतव्य एक ही बिंदु
शीर्ष है जहाँ  अग्निशिखा
यह मौन का गर्भाशय
और पनपता धुँआ
 ऊँचे और ऊँचे
फैलो और फैलो
हो तुम आकाश से विराट
चुभो और इतना चुभो
आँखों में यहाँ
की महसूस हो तीखापन
जले हुए मेरे सम्मान की
रुलाई का कसैलापन
ले कर फफोले और
तुम्हारा कराया श्रृंगार 
जीना है मुझे बिना किसी दाग!!
                                                *** हेमा ***

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Friday, June 24, 2011

भ्रम

सुरमा,पान की लाली
एक महकता छोटा सूरज 
अंगुली का उपरी सिरा
था जिसे मध्य में टीपता
दो हाथ
कुछ खनखनाता संगीत,
एक में 
गृहस्थी का सुर्ख गुलाब
एक में पानदान
स्वयं तुम्हारी नजरे कहती
'तुम तो शाह हो बानू'
और तुम्हारा दिल
हामी भरता
छियालिस बेदर्दी और बेरहमी से
तराशे,रत्नों जड़े 
सधे हाथो से ढले 
नून ,तेल , लकड़ी
और कुछ
शामिलाती जीवित अक्सो के
तख़्त-ओ-ताज  की
नाजुक मलिका
तुम ही शाह थी बानू?
वही ना जिसने चढ़ी
राजधानी में
सर्वोच्च न्याय स्थल की
समस्त सीढ़िया
और पाया अपना
जबरन छीना हुआ हक
पर तुम 
जंगलो में जीने वालो को
नहीं जान पाई
नए नियम बानू,
हाँ , नए नियम
तुम्हारी जैसी 
सीढ़िया चढ़ती बानुओ के
पंख कतरने को
रच डाले,
बानुओ की गृहस्थी के विधाताओ ने
निगल लिया तुम्हारा
पाया हुआ हक,
सुरमा लगाए 
सदियों से कलपती  
छाती कूटती
किस,सुर्ख भ्रम की
खुशबु में
तुम आज भी 
शाह हो बानू!!


                ***हेमा***
     
  
  

  
         

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Thursday, June 23, 2011

बदलता कौन है बुद्धू !

बदलता कौन है बुद्धू!
हर आँख
वहीं की वहीं
वैसी की वैसी ही
पड़ी रहती है,बस 
अनुभवग्रस्त
विचारों की पीढ़िया
चढ़ती रहती है,निरंतर ,अपनी
कभी पूर्वनियत-कभी अनियत
सीढ़िया दर सीढ़िया
और,पनपती जाती है
ज़िन्दगी के माथे पर
उनकी जिद्द के
शुद्ध,लाल तिलको की
अशुद्ध रीतियाँ
और वक़्त दर वक़्त
जीत की समझ की कथाएं
बदल डालती है
जय-विजय की
भाषा का हर पता
पराजयों की
संतुलित भाषा में!!  



                      ***हेमा***


























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.....आधार ...


एक साल में
एक माह है कम
चुप बैठे सोचते रहे हम
यूँही देखते रहे हम
बीते दिनों की सिकुड़ी झुर्रियाँ
फिर अचानक
झपट कर
ले अंजुरी दर अंजुरी
देह को पिलाई
तेज,सख्त धूप
आँखों ने डाला,चौड़ा घेरा
और पी लिया,
रौशनी का
चढ़ता हर भाव
फिर दौड़ कर
हाँफते हुए ले ली -
ढेरो कपास के नीचे पनाह
हर प्राप्य - आधार है
गर्म या सर्द
भीगा या नम
कोमल या कठोर
कुछ भी नहीं खोना चाहती मै!!




***हेमा***

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