" मैं क्यों लिखती हूँ ?" यह सवाल पिछले काफी समय से मुझे घेर कर बैठा है | इस सवाल की घेराबंदी और मेरे विचारों के साथ मैं बहुत पीछे चली गई | एक नए सवाल पर कि मैंने पहली बार कब लिखा था ....
समय यंत्र ने मुझे १९८४ के दंगो और हाहाकार के मध्य खड़ा कर दिया |
वह मेरे जीवन की पहली , आसमान से टपकी बेमौसमी छुट्टियाँ थी | होश संभालने के बाद का पहला कर्फ़्यू |
विद्यालय में खाने की छुट्टी के समय दौड़ा-भागी के बीच बड़ी दीदियो की हाय-हाय कान में पड़ी थी कि एक सरदार ने इंदिरा गांधी को मार डाला है | विद्यालय आनन-फानन बंद कर दिया गया | बहुत सारे बच्चो के घर के लोग उन्हें लेने आ गये थे | मेरे घर और विद्यालय की दीवाल एक थी | मैं एक मिनट में घर पर थी |देखते ही देखते सड़के सूनी हो गई | किसी भी आहट से विहीन | काली सड़के,खाली सड़के और अकेली हो गई |
मैं छावनी क्षेत्र के बेहद शांत और गहरे सन्नाटो में रहती थी | लगभग ४५०० वर्ग गज के बड़े से वकील साहब के बंगले में सारी आमद बंद हो गई थी | बड़ी मशक्कतों और मुसीबतों के बाद मिलने वाले कई तरह के अखबार और गाहे-बगाहे बजने वाली लैंड लाइन फोन की घंटी ही सूचना और संचार माध्यम थे | अखबार के आते ही उसके सारे पन्ने बँट जाते थे | क्रमवार एक दूसरे को पढ़ने को सरकाए जाते रहते थे |
पहली बार मेरी आँखों ने टायर डाल कर जिन्दा जलते आदमी की छपी हुई तस्वीर और खबर देखी थी| जलते हुए घरों, दुकानों , उठते हुए धुएँ के गुबारों , घिरे हुए गुरूद्वारों , सड़को पर छितरे गुम्मे-पत्थर की अजीब सी डरावनी सिहरनो वाली तस्वीरें | मरे हुए लोगो,गुमशुदा लोगो और जन-धन की क्षति के आंकड़े |
जिंदगी और इंसानियत के साथ-साथ हर चीज की तंगी थी |
चारो ओर डर और दहशत का दमघोंटू माहौल था | सड़को पर आदमी नहीं थे | थे तो बस पुलिस वाले, उनकी गाडियों के बजते सायरन , घोषणाएँ कर्फ़्यू के उठान और चढ़ान की|
बंगले के पास की नहरपट्टी पर स्थित पेठे की आढत में एक सरदार छिपा था | एक-आध बार घर से उसके लिए रोटी सब्जी गई थी | चोरी-छिपे एक शाम मैं उसे देख भी आई थी | बांस के टट्टर से घुप्प अँधेरे में खूब आँखे गडा कर देखा था मैंने | कोने में चूने के पानी के लिए बनी एक पक्की नांद में वह हाथ-पाँव,पेट गुडिया कर घुटनों में अपना पग्गड़ घुसाये बैठा था | मेरी छोटी सी आहट से इतना सिकुड़ा हुआ वह और बहुत सा सिकुड गया था |
थोड़ी शान्ति होने पर सुना था कि चुपचाप उसके मददगारों ने एक नाई बुलाया था | वह अपने केश कटा कर साफ़-सुथरा हो गया था | बिना किसी से कुछ कहे चला गया था |
यह भी सुना था कि नाई ने उसके द्वारा दी जा रही कोई कीमती चीज ली नहीं थी |
उन कर्फ़्यूजदा लंबी-भारी छुट्टियों के उतार का कोई दिन था वो| शाम के समय फूल बाग,कंपनी बाग का बहुत सारा हरापन और उतरते सूरज के रंगों की छावनी | ऐसा लग रहा था कि सारी हरियाली एक विकराल मुख में बदल गई थी और समूचे सूरज के निवाले दर निवाले अपने हलक में उतार रही थी | देखते-देखते कुबेरी बिरिया पूरा सूरज और सारे रंग निगल गई थी |
उन सारी घटनाओं और उस टट्टर से दिखे व्यक्ति ने एक छोटी खेलती-कूदती लड़की के अंदर जैसे बेचैनी का उबाल उठा दिया था |
वह उबाल गणित की कॉपी के पीछे के पन्ने में बह गया था कॉपी गुम गई पर कुछ पंक्तियां मुझे वैसे ही याद है ....
अपनी ही
परछाई से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
साँसों से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
आहट से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
देहरी पे डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपने ही
चौराहों पे जलते
आदम को देखा है तुमने ?
................
......................
......................
जब इन पंक्तियों को लिखा था तब यह पता नहीं था कि यह कविता हो सकती है | यह भी नहीं पता था कि मैं आगे भी लिखती रहने वाली हूँ | यह चंद पंक्तियाँ एक छोटी सी लड़की की बहुत बड़े राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर में महसूसी हुई छटपटाहट थी | उस वक़्त में वह छपने ,कविता और कवि होने के बहुत मायने नहीं जानती थी |
वह घटनाएं और उनके जरिये अपने अंदर घटित अहसास जानती थी | यही उसका सरोकार था |
कभी कोई उसे पढ़ने वाले होंगे उसे यह भी नहीं पता था |
पढ़ने वाले नहीं थे इसलिए पढ़े जाने के लिए नहीं लिखा गया | छपने का ख्याल नहीं था इसलिए छापने वालो के अनुसार नहीं लिखना हुआ |
कुछ वर्षों बाद एक ऑन स्पॉट कविता लिखो प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिलने पर जाना कि कविता पुरस्कार भी दिला देती है |
पर इस पुरस्कार ने उसके साथ कुछ अजीब किया था | खेलने-कूदने हँसने-बोलने वाली आम लड़कियों से हटा कर एक अलग संजीदा और साहित्यिक जीव की श्रेणी में रख दिया था |सब कुछ वैसा ही था | मैं वही थी | अपेक्षाए बदल गई थी |
कविता ने मुझे बड़ा जिम्मेदार और कुछ अलहदा कर दिया था |
सबकी नजरों ने मुझ पर अनजाने ही गहरे पैठने के सरोकार डाल दिये थे |
अपने आस-पास की हर चीज और घटना को एक अलग,अपने नजरिये से देखने-परखने और महसूसने के ...|
प्रत्येक घटित को अपने निजी अरण्य में ले जाने का .... |
मैंने खूब देखा और खंगाला खुद को, ठोक-पीट कर देखा डायरी और इधर उधर बिखरी लिखी-अनलिखी लिखतों के पड़ावो पर जा-जा कर पूछा - मैं कब लिखती हूँ और क्यों लिखती हूँ...............
मैं लिखती हूँ जब चीजों,घटनाओं और अनुभवों का पात्र इतना भर जाता है कि जीवन के लिपे-पुते कच्चे चूल्हे पर चढ़ी बटलोई का अदहन खदबदाने लग जाता है | उठती हुई भाप का दबाव ढकने को उठाने-गिराने लग जाता है तो अंदर भरे शब्दों को बहना ही पड़ता है |
कविता जैसे चूल्हे पर चढ़ीं बटलोई की बेचैन खदबदाहट है|
......................... जारी
समय यंत्र ने मुझे १९८४ के दंगो और हाहाकार के मध्य खड़ा कर दिया |
वह मेरे जीवन की पहली , आसमान से टपकी बेमौसमी छुट्टियाँ थी | होश संभालने के बाद का पहला कर्फ़्यू |
विद्यालय में खाने की छुट्टी के समय दौड़ा-भागी के बीच बड़ी दीदियो की हाय-हाय कान में पड़ी थी कि एक सरदार ने इंदिरा गांधी को मार डाला है | विद्यालय आनन-फानन बंद कर दिया गया | बहुत सारे बच्चो के घर के लोग उन्हें लेने आ गये थे | मेरे घर और विद्यालय की दीवाल एक थी | मैं एक मिनट में घर पर थी |देखते ही देखते सड़के सूनी हो गई | किसी भी आहट से विहीन | काली सड़के,खाली सड़के और अकेली हो गई |
मैं छावनी क्षेत्र के बेहद शांत और गहरे सन्नाटो में रहती थी | लगभग ४५०० वर्ग गज के बड़े से वकील साहब के बंगले में सारी आमद बंद हो गई थी | बड़ी मशक्कतों और मुसीबतों के बाद मिलने वाले कई तरह के अखबार और गाहे-बगाहे बजने वाली लैंड लाइन फोन की घंटी ही सूचना और संचार माध्यम थे | अखबार के आते ही उसके सारे पन्ने बँट जाते थे | क्रमवार एक दूसरे को पढ़ने को सरकाए जाते रहते थे |
पहली बार मेरी आँखों ने टायर डाल कर जिन्दा जलते आदमी की छपी हुई तस्वीर और खबर देखी थी| जलते हुए घरों, दुकानों , उठते हुए धुएँ के गुबारों , घिरे हुए गुरूद्वारों , सड़को पर छितरे गुम्मे-पत्थर की अजीब सी डरावनी सिहरनो वाली तस्वीरें | मरे हुए लोगो,गुमशुदा लोगो और जन-धन की क्षति के आंकड़े |
जिंदगी और इंसानियत के साथ-साथ हर चीज की तंगी थी |
चारो ओर डर और दहशत का दमघोंटू माहौल था | सड़को पर आदमी नहीं थे | थे तो बस पुलिस वाले, उनकी गाडियों के बजते सायरन , घोषणाएँ कर्फ़्यू के उठान और चढ़ान की|
बंगले के पास की नहरपट्टी पर स्थित पेठे की आढत में एक सरदार छिपा था | एक-आध बार घर से उसके लिए रोटी सब्जी गई थी | चोरी-छिपे एक शाम मैं उसे देख भी आई थी | बांस के टट्टर से घुप्प अँधेरे में खूब आँखे गडा कर देखा था मैंने | कोने में चूने के पानी के लिए बनी एक पक्की नांद में वह हाथ-पाँव,पेट गुडिया कर घुटनों में अपना पग्गड़ घुसाये बैठा था | मेरी छोटी सी आहट से इतना सिकुड़ा हुआ वह और बहुत सा सिकुड गया था |
थोड़ी शान्ति होने पर सुना था कि चुपचाप उसके मददगारों ने एक नाई बुलाया था | वह अपने केश कटा कर साफ़-सुथरा हो गया था | बिना किसी से कुछ कहे चला गया था |
यह भी सुना था कि नाई ने उसके द्वारा दी जा रही कोई कीमती चीज ली नहीं थी |
उन कर्फ़्यूजदा लंबी-भारी छुट्टियों के उतार का कोई दिन था वो| शाम के समय फूल बाग,कंपनी बाग का बहुत सारा हरापन और उतरते सूरज के रंगों की छावनी | ऐसा लग रहा था कि सारी हरियाली एक विकराल मुख में बदल गई थी और समूचे सूरज के निवाले दर निवाले अपने हलक में उतार रही थी | देखते-देखते कुबेरी बिरिया पूरा सूरज और सारे रंग निगल गई थी |
उन सारी घटनाओं और उस टट्टर से दिखे व्यक्ति ने एक छोटी खेलती-कूदती लड़की के अंदर जैसे बेचैनी का उबाल उठा दिया था |
वह उबाल गणित की कॉपी के पीछे के पन्ने में बह गया था कॉपी गुम गई पर कुछ पंक्तियां मुझे वैसे ही याद है ....
अपनी ही
परछाई से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
साँसों से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
आहट से डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपनी ही
देहरी पे डरते
आदम को देखा है तुमने ?
अपने ही
चौराहों पे जलते
आदम को देखा है तुमने ?
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जब इन पंक्तियों को लिखा था तब यह पता नहीं था कि यह कविता हो सकती है | यह भी नहीं पता था कि मैं आगे भी लिखती रहने वाली हूँ | यह चंद पंक्तियाँ एक छोटी सी लड़की की बहुत बड़े राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल के दौर में महसूसी हुई छटपटाहट थी | उस वक़्त में वह छपने ,कविता और कवि होने के बहुत मायने नहीं जानती थी |
वह घटनाएं और उनके जरिये अपने अंदर घटित अहसास जानती थी | यही उसका सरोकार था |
कभी कोई उसे पढ़ने वाले होंगे उसे यह भी नहीं पता था |
पढ़ने वाले नहीं थे इसलिए पढ़े जाने के लिए नहीं लिखा गया | छपने का ख्याल नहीं था इसलिए छापने वालो के अनुसार नहीं लिखना हुआ |
कुछ वर्षों बाद एक ऑन स्पॉट कविता लिखो प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिलने पर जाना कि कविता पुरस्कार भी दिला देती है |
पर इस पुरस्कार ने उसके साथ कुछ अजीब किया था | खेलने-कूदने हँसने-बोलने वाली आम लड़कियों से हटा कर एक अलग संजीदा और साहित्यिक जीव की श्रेणी में रख दिया था |सब कुछ वैसा ही था | मैं वही थी | अपेक्षाए बदल गई थी |
कविता ने मुझे बड़ा जिम्मेदार और कुछ अलहदा कर दिया था |
सबकी नजरों ने मुझ पर अनजाने ही गहरे पैठने के सरोकार डाल दिये थे |
अपने आस-पास की हर चीज और घटना को एक अलग,अपने नजरिये से देखने-परखने और महसूसने के ...|
प्रत्येक घटित को अपने निजी अरण्य में ले जाने का .... |
मैंने खूब देखा और खंगाला खुद को, ठोक-पीट कर देखा डायरी और इधर उधर बिखरी लिखी-अनलिखी लिखतों के पड़ावो पर जा-जा कर पूछा - मैं कब लिखती हूँ और क्यों लिखती हूँ...............
मैं लिखती हूँ जब चीजों,घटनाओं और अनुभवों का पात्र इतना भर जाता है कि जीवन के लिपे-पुते कच्चे चूल्हे पर चढ़ी बटलोई का अदहन खदबदाने लग जाता है | उठती हुई भाप का दबाव ढकने को उठाने-गिराने लग जाता है तो अंदर भरे शब्दों को बहना ही पड़ता है |
कविता जैसे चूल्हे पर चढ़ीं बटलोई की बेचैन खदबदाहट है|
......................... जारी
हेमाजी, बहुत ही सरल भाषा में आपने वर्णित किया कि कैसे आप अपने भावों को शब्दरूप देने लगी, पढ़कर बहुत अच्छा लगा, वस्तुतः ये मुझे बहुत कुछ अपनी ही कहानी लगी, लगा जैसे मैं अपने बचपन में पहुँच गयी....कागजों को रंग देना, उस मासूम उम्र में बहुत भाता था मुझे भी, हाँ इसे कविता कहते हैं बहुत बाद में जाना.....उत्तम लेख के लिए बधाई......
ReplyDeleteकविता ने मुझे बड़ा जिम्मेदार और कुछ अलहदा कर दिया था |
ReplyDeleteसबकी नजरों ने मुझ पर अनजाने ही गहरे पैठने के सरोकार डाल दिये थे बहुत आत्मीयता से लिखा गया एक अनुभव.. दिल के कई कोने भुरभुरा गए..
aacha laga pad kar
ReplyDelete:)
ReplyDeleteबहुत दर्दनाक प्रस्थान बिंदु है आपकी काव्ययात्रा का। जीवन के ऐसे ही क्षण मनुष्य को जिम्मेदार और सजग रचनाकार की ओर ले जाते हैं। उस वक्त की याद कर आज भी रौंगटे खड़े हो जाते हैं। आपकी गहरी संवदनाओं के बारे में जानकर लगा कि हम सब रचनाकार ऐसे ही संवेदना-तंतुओं से जुड़े हैं। निरंतर सृजनशील बने रहने के लिए शुभकामनाएं।
ReplyDeleteतो इस तरह आई हो तुम कवि के रूप में हमारे सामने! एक-एक शब्द में ईमानदारी झलकती है, जो इस समय कवियों में भी दुर्लभ होती जा रही है. गद्य अच्छा लिखती हो, और यह सुखद भी है. मेरा अभी भी मानना है कि अच्छी कविता वही लिख सकता है जो लययुक्त गद्य लिख लेता हो. कौन घटना किसको किस समय कैसे उद्वेलित करदे, यह न जाने किन-किन कारकों पर निर्भर करता है ! बधाई तुम्हें, यादों के बीहड़ से अपनी कविता के जन्म का 'चौघडिया' ढूंढ निकाल लाने के लिए.
ReplyDeleteहेमा जी ........ आपका लिखा पढ़ कर अच्छा लगा ........ आपने बड़ी सहजता से अपनी बात कही .....जो थोड़े से हेर फेर के साथ मेरी या किसी और की भी हो सकती है ..... हम सबके पास अपने लिखने की शुरुआत की कहानी है .......जो आपके लिखे को पढ़ते हुए साथ साथ चलती रहती है |
ReplyDelete"जिंदगी और इंसानियत के साथ-साथ हर चीज की तंगी थी|"
ReplyDeleteआपकी कविता की सारी सच्चाई इन शब्दों बयां हो जाती है.
हेमा जी मेरे ब्लाग गुल्लक पर की आपकी टिप्पणी की भाषा ने ही मुझे मोह लिया। उत्सुकतावश मैं यहां तक चला आया। यहां आकर जाना कि आप सचमुच ऐसा लिखती हैं जिसे पढ़कर कोई भी मोहित हो सकता है।
ReplyDeleteआपको पढ़ने के लिए अब नियमित रूप से आते रहना होगा। बधाई और शुभकामनाएं।
mere pass abhivyakti k liye koi shabd nahi hain ..
ReplyDeletehema ji , aaj aapake blog main bhraman ka awasar mila fir se ek bar. yahna aakar achha laga. aapaki kavitaon main gahara dard chhupa hai. bahut marmik...dil ki gaharaiyon tak chhoone wala. aap yun hi likhati rahne or hamen samriddh karen.
ReplyDeleteएक साथ कई मंजर याद आ गए...लिखना कब शुरु हो जाता है पता नहीं होता....बस कोई अहसास अंदर आता है फिर विचार औऱ कविताएं निकल पड़ती हैं..किसी के रोके नहीं रुकती..
ReplyDeletebahut khoobsoorat post, badhai.
ReplyDeleteअच्छा लगा ...
ReplyDeleteये सच है कि अनजाने में स्थितियां, परिस्थितियाँ अंतस को प्रभावित करती हैं लेकिन सभी के पास व्यक्त करने के लियें शब्द नहीं होते.... आपके पास थे और हमेशा रहें....
मंगल कामनाएँ आपको..
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