सुरमा,पान की लाली
एक महकता छोटा सूरज
अंगुली का उपरी सिरा
था जिसे मध्य में टीपता
दो हाथ
कुछ खनखनाता संगीत,
एक में
गृहस्थी का सुर्ख गुलाब
एक में पानदान
स्वयं तुम्हारी नजरे कहती
'तुम तो शाह हो बानू'
और तुम्हारा दिल
हामी भरता
छियालिस बेदर्दी और बेरहमी से
तराशे,रत्नों जड़े
सधे हाथो से ढले
नून ,तेल , लकड़ी
और कुछ
शामिलाती जीवित अक्सो के
तख़्त-ओ-ताज की
नाजुक मलिका
तुम ही शाह थी बानू?
वही ना जिसने चढ़ी
राजधानी में
सर्वोच्च न्याय स्थल की
समस्त सीढ़िया
और पाया अपना
जबरन छीना हुआ हक
पर तुम
जंगलो में जीने वालो को
नहीं जान पाई
नए नियम बानू,
हाँ , नए नियम
तुम्हारी जैसी
सीढ़िया चढ़ती बानुओ के
पंख कतरने को
रच डाले,
बानुओ की गृहस्थी के विधाताओ ने
निगल लिया तुम्हारा
पाया हुआ हक,
सुरमा लगाए
सदियों से कलपती
छाती कूटती
किस,सुर्ख भ्रम की
खुशबु में
तुम आज भी
शाह हो बानू!!
***हेमा***
निजी तौर पे मैंने हमेशा से कविताओं मैं आंचलिक भाषा को सराहा है...और "नून तेल" जैसे शब्द ऐसे लगते है जैसे की कोई उस भाषा मैं बात कर रहा हो जो जादा प्रासंगिक है...
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