चीखने को तैयार
जड़ो में कसी माटी तुम
शब्द कोमलतम ,
चुभन इतनी
पूछो मत ऐसे
कहाँ-कहाँ
चिनगारियो की भीड़,
तमाम फफोले,
दाग नहीं पड़ते कहीं यहाँ
कब तक रहेगा
यही तुम्हारे श्रृंगार का सामान
घनी काली पलकें,अँधेरी
कब तक समेट पाएंगी,धुआं
गंतव्य एक ही बिंदु
शीर्ष है जहाँ अग्निशिखा
यह मौन का गर्भाशय
और पनपता धुँआ
ऊँचे और ऊँचे
फैलो और फैलो
हो तुम आकाश से विराट
चुभो और इतना चुभो
आँखों में यहाँ
की महसूस हो तीखापन
जले हुए मेरे सम्मान की
रुलाई का कसैलापन
ले कर फफोले और
तुम्हारा कराया श्रृंगार
जीना है मुझे बिना किसी दाग!!
*** हेमा ***
मुझे तो ये गुलज़ार साब और फनीश्वरनाथ रेणु का संगम लगता है...दार्शनिक और आंचलिक !!!
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