बदलता कौन है बुद्धू!
हर आँखवहीं की वहीं
वैसी की वैसी ही
पड़ी रहती है,बस
अनुभवग्रस्त
विचारों की पीढ़िया
चढ़ती रहती है,निरंतर ,अपनी
कभी पूर्वनियत-कभी अनियत
सीढ़िया दर सीढ़िया
और,पनपती जाती है
ज़िन्दगी के माथे पर
उनकी जिद्द के
शुद्ध,लाल तिलको की
अशुद्ध रीतियाँ
और वक़्त दर वक़्त
जीत की समझ की कथाएं
बदल डालती है
जय-विजय की
भाषा का हर पता
पराजयों की
संतुलित भाषा में!!
***हेमा***
काश इस कविता की सराहना किसी अन्य कविता के शब्दों से कर पाता ...
ReplyDeleteयथास्थिति और जीवन यथार्थ की विडंबना पर सटीक कविता है। अपने कलेवर में थोड़ी और खुल सकती थी, लेकिन यों अपने आप में मुकम्मल है। बधाई हेमाजी।
ReplyDeleteज़िन्दगी के माथे पर
ReplyDeleteउनकी जिद्द के
शुद्ध,लाल तिलको की
अशुद्ध रीतियाँ
और वक़्त दर वक़्त
जीत की समझ की कथाएं
बदल डालती है... bahut badhiya. pahli post ki badhai.
हेमा जी, ब्लाग पर आपकी पोस्ट पढ़ने मे नहीं आ रही है। कैसे हिंदी में खुलेगा। बताऍंगी।
ReplyDeleteऔर,पनपती जाती है
ReplyDeleteज़िन्दगी के माथे पर
उनकी जिद्द के
शुद्ध,लाल तिलको की
अशुद्ध रीतियाँ
और वक़्त दर वक़्त
जीत की समझ की कथाएं... bahut khoob :)
Beautiful one....
ReplyDeleteऔर वक़्त दर वक़्त
ReplyDeleteजीत की समझ की कथाएं
बदल डालती है
जय-विजय की
भाषा का हर पता
पराजयों की
संतुलित भाषा में!! अनुभव जन्य बोध ..बढ़िया कविता हेमा !
बोध-कविता है, जैसे बोध-कथाएं होती हैं. कम में बहुत कुछ कहती.
ReplyDeleteसुंदर पंक्तियां
ReplyDeleteanubhav se sarabor rahi hian sabhi abhivyaktiya jo bhi ab tak padhi or ye bhi visheshta liye hue hai ,,bilkul , badalta kon hai.
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