मन इतने बरस बीते
देखते तेरा बहाव
बाढ़-उफान
घटाव-चढ़ाव
यहाँ जमे पत्थरो ने
सहे जाने कितने घाव
उनकी भस्म रेत पर
स्वच्छता में
जाने कितने ही
धो कर चले गए
अपने मैले-कुचैले पाँव
बाँध, अपनी-अपनी गठरी
कुछ फेंक गए
पूजा के फूल
और कुछ अपने पापों के
जोड़े गए
तमामो शूल ,
जेठ की तपती दुपहरी
दे गयी धूल के अंगार ,
कई बार कतरे गए
सफ़ेद पंख मर गए
बगैर छोड़े अपने
कोई भी निशाँ
लालची हारी निगाहें
छोड़ गयी अपने
लोभ-क्षोभ के भाव,
कितना कुछ - कितना कुछ मन
असीम सीमाहीन
देखा नहीं कहीं कभी तुझमे
एक बिंदुमात्र भी ठहराव !!
*** हेमा ***
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